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100 दिन सरकार के, हम भी हैं दरबार के

सौ-दिन की उपलब्धियां गिनाते हुए उन कामों को भी लिस्ट में शामिल कर लिया जाता है जो हुए भी नहीं है या पूरे होने वाले हैं

Nazim Naqvi

न जाने ये चलन कब से चला आ रहा है लेकिन चला आ रहा है. होता ये है कि जब कोई नई सरकार केंद्र या राज्य में शपथ लेती है तो उसके काम-काज की समीक्षा के लिए 100 दिन का एक पड़ाव निर्धारित किया जाता है. तेवर कुछ इस तरह का होता है कि देखेंगे कि पहले सौ दिनों में सरकार ने क्या कुछ किया है. उसके वादे क्या थे और अब इरादे क्या हैं.

पता नहीं होना चाहिए या नहीं, लेकिन सरकार भी इस अवसर को भुनाने के लिए लालायित रहती है. शपथ के बाद का ये पड़ाव, किसी उत्सव जैसी घटना में बदल जाता है जिसमें कुछ रेवड़ियां बंटने के अवसर भी निकल ही आते हैं. अखबारों में विज्ञापन भरे पन्ने हों या राज्य भर में जगह-जगह लगी होर्डिंग्स हों या टीवी चैनलों पर दिखते एडवर्टीजमेंट और शुभकामना संदेश, मीडिया और दूसरे प्रचार माध्यमों की तो चांदी हो जाती है.


दूसरी तरफ विपक्ष भी कमर कस कर मैदान में उतर आता है. हालांकि उसके तीरों में वो नुकीलापन नहीं होता (सौ दिनों में कहां कोई नोक तेज हो सकती है) फिर भी सरकार की तरफ तीर चलाये जाते हैं. रस्म निभाने के लिए.

पिछले दिनों जून के आखिरी सप्ताह में, पांच राज्यों ने अपने सौ-दिन पूरे होने का पर्व मनाया. इनमें पंजाब, उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा शामिल हैं. इस बात को मानते हुए कि 14-15 सप्ताह यानी 100 दिवसीय पड़ाव किसी राज्य सरकार को आंकने के लिए बहुत ही कम समय है, आइए देखते हैं कि कहां क्या हुआ?

कैप्टन के लिए सहज नहीं रहे पहले सौ दिन

10 वर्षों के बाद सत्ता में वापसी करती कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने अपनी पहली ही बैठक में 120 निर्णय लेते हुए प्रशासनिक सुधारों की झड़ी लगा दी इनमें चुनाव- घोषणापत्र के लोकलुभावन वादे भी शामिल थे. लेकिन अनुभवी कैप्टन के नेतृत्व के बावजूद ये सौ दिन, सरकार के लिए सहज नहीं रहे.

सरकार एक रेत-खनन-नीलामी विवाद के दलदल में फंसकर शर्मसार हुई जिसमें मंत्री राणा गुरजीत सिंह के पूर्व-कर्मचारी शामिल थे.

100 दिन के भीतर सरकार ने क्या किया इस पर बोलते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि सरकार ने वीआईपी कल्चर खत्म किया, ट्रक यूनियन का सिस्टम खत्म किया, माइनिंग माफिया को खत्म किया वगैरह-वगैरह. वैसे भी हम कैप्टन साहब से एक अच्छी पारी खेलने की उम्मीद करते हैं क्योंकि खुद उन्होंने इसे अपनी अंतिम राजनीतिक पारी कह दिया है.

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लेकिन वो पंजाब जो कभी देश के अग्रणी राज्यों में था, आज उसका खजाना खाली है. और कैप्टन के लिए यह एक बड़ी चुनौती है. दो-तिहाई बहुमत के साथ शुरूआती सौ-दिनों में, हालांकि विधानसभा में पगड़ियां भी उछलीं लेकिन कैप्टन के लिए ये बाएं हाथ का खेल ही साबित हुयीं.

त्रिकोणयी नेतृत्व का कंफ्यूजन

आइए अब रुख करते हैं उत्तर-प्रदेश का, जिसने पूरे देश को हैरत में डालते हुए, खुद को एक योगी के हवाले कर दिया और उनकी प्रशासनिक क्षमताओं के मद्देनजर उन्हें दो-दो उपमुख्यमंत्रियों की बैसाखियां भी भेंट कर दीं. 405 विधायकों वाली विधान-सभा में 325 विधायकों के समर्थन से नेतृत्व संभालने वाले योगी के लिए पहले 100 दिन आसानी से निकाल ले जाना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन त्रिकोणीय नेतृत्व का कंफ्यूजन हर तरफ दिखाई दिया.

योगी ने मुख्यमंत्री बनते ही पहला निशाना बनाया जनता के आचरण को, पान की पीकों, दफ्तर की लेट-लतीफी, सड़कों की छेड़खानियों पर उन्होंने जमकर हमला बोला. इसके साथ ही उनका 15 जून तक राज्य की सभी सड़कों को गड्ढा-मुक्त करने का ऐलान भी उनकी प्रशासनिक क्षमता का नतीजा लगा. अवैध बूचडखानों पर रोक ने पूरे देश में जो माहौल गरमाया सो अलग.

एसपी के शासन में, राज्य की कानून व्यवस्था को निशाने पर लेने वाली योगी सरकार खुद जातीय और सांप्रदायिक संघर्षों में फंसी लेकिन लोगों ने उसकी इस दलील को मानकर, फिलहाल राहत दे दी लगती है कि एसपी के जंगलराज को 100 दिनों में समाप्त करना कोई हंसी-खेल नहीं है. ये समय चुनाव-पूर्व वादों के प्रति अपने इरादे जाहिर करने का भी था, जिसके लिए उन्होंने किसानों की कर्जमाफी के लिए 36 हजार करोड़ देने का एलान कर दिया.

दरअसल सरकार चलाना अब व्यवसाय है और व्यवसाय के एक अंग ‘मार्केटिंग’ की तरह यहां भी वही उसूल चलता है कि ग्राहक को अगर चांद चाहिए तो तुरंत हामी भर लीजिए कि आप चांद लाकर देंगे, जब सौदा तय हो जाए तब सोचिये कि अब ये पूरा कैसे होगा. 36 हजार करोड़ की कर्ज-माफी और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से आने वाला 34 हजार करोड़ का अतिरिक्त बोझ, राज्य कहां से लाएगा? देखा जाएगा.

29% क्षेत्रफल की सरकार

त्रिवेंद्र सिंह रावत

अब आइए उत्तराखंड की हसीन वादियों में चलते हैं और जायजा लेते हैं त्रिवेंद्र सिंह रावत के सौ दिन कैसे गुजरे? पहली जानकारी त्रिवेंद्र सिंह रावत के हक में जाती हुई दिखाई देती है. उत्तराखंडी पंडिताई की मानें तो रावत ने अपने पहले सौ दिनों में अपनी आन-बान-शान पर कोई आंच नहीं आने दी.

माना जा रहा था कि सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत जैसे नेताओं के साथ त्रिवेंद्र सिंह का क्या सुलूक रहता है, उत्तराखंड की सियासत इसी बात पर निर्भर करेगी. लेकिन लोगों का मानना है कि न तो वो प्रभावशाली सहयोगियों के दबाव में आए और न ही नौकरशाही के सामने घुटने टेके.

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लेकिन त्रिवेंद्र सरकार के सूचना विभाग ने 100 दिनों की उपलब्धियों पर जो 72 पन्नों की एक पत्रिका प्रकाशित की है उसे देखकर लगा कि ये सरकार उत्तराखंड के सिर्फ 29% क्षेत्रफल की सरकार है क्योंकि इसमें वन-क्षेत्र के बारे में एक शब्द का भी जिक्र नहीं है. पेड़ों की तस्करी और बाघों की हत्याओं का सिलसिला जारी है और इस संबंध में. भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस का दावा करने वाली सरकार एक शब्द न बोले? दाल में कहीं कुछ काला जरूर है.

संतुलन बनाने की कोशिश में लगा फुटबॉलर

तस्वीर: पीटीआई

एक पहाड़ से चलते हैं दूसरे पहाड़ी क्षेत्र, यानी मणिपुर की ओर. यहां एक फुटबॉलर राज्य का नेतृत्व करते हुए 100 दिन पूरे कर चुका है. नाम है नोंगथोंगबाम बीरेन सिंह. उम्र है 56 वर्ष. क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग से ही सही, उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को मणिपुर की पहली सरकार दी है. उम्मीद की जा रही है कि वे विरोधियों की काट करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का अनुभव सियासत में भी अच्छी तरह आजमाएंगे. क्योंकि मणिपुर के विद्रोह और हिंसा के इतिहास को देखते हुए यहां एक अच्छे संतुलन की जरूरत है.

बीरेन सरकार ने पिछले 14-15 हफ्तों में, अभी तक यही धारणा दी है कि वह राज्य की सुरक्षा में आई दरारों की मरम्मत करना और नस्लीय विभाजन को पाटने का इरादा रखते हैं. और ये काम पड़ोसी राज्यों के सहयोग के बिना काफी मुश्किल है. बीरेन सिंह का ये इरादा काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि मणिपुर की अबतक की सरकारों पर ये इल्जाम लगता रहा है कि वे गैर-आदिवासी लोगों के वर्चस्व वाले इम्फाल घाटी के इशारों पर चलती रही हैं.

पिछले सौ दिनों में नोंगथोंगबाम बीरेन सिंह अपने दो कामों को महत्वपूर्ण मानते हैं, पहला, नागाओं द्वारा नए जिले को बनाने के विरोध में, 140 दिन तक जारी आर्थिक-नाकाबंदी को ख़त्म कराना और दूसरा, 2015 में चुराचंदपुर में पुलिस की गोलीबारी में मारे गए आठ लोगों के शवों को दफनाना. पीछे इन दोनों ही घटनाओं ने राज्य की कानून व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था.

परिपक्व पर्रिकर

और अब रुख है समंदर का. हालांकि गोवा में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला फिर भी बीजेपी ने अपनी अगुवाई में गठबंधन की सरकार बना कर अपने सियासी तेवरों का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया.

हां, इसके लिए उसे सहयोगी दलों की उस मांग के सामने सर झुकाना पड़ा जो मनोहर पर्रिकर को ही मुख्यमंत्री बनाने की थी. राज्य से आकर केंद्र की जिम्मेदारी संभाल रहे पर्रिकर को वापिस गोवा जाना पड़ा था. उनकी सरकार ने भी सौ-दिन पूरे कर लिए हैं. गोवा से मिल रही जानकारियों में उनके सहयोगी, उनकी लीडरशिप में पहले से ज्यादा ताजगी और ‘अधिक परिपक्वता’ महसूस कर रहे हैं और उनके प्रशासनिक एजेंडे को जन-समर्पित मान रहे हैं.

राज्य कोई भी हो एक बात जो समान रूप से देखने को मिलती वो ये कि सौ-दिन की उपलब्धियां गिनाते हुए उन कामों को भी लिस्ट में शामिल कर लिया जाता है जो हुए भी नहीं है या पूरे होने वाले हैं. कुछ इस तर्ज पर कि कुछ हुआ हो या न हुआ हो, दौड़-धूप में कोई कमी हो तो बताइए?