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वाजपेयी बिन बीजेपी, अटल बिन आडवाणी  

अटल बिन आडवाणी वो करिश्मा नहीं कर पाए. अटल बिन आडवाणी अधूरे ही रह गए.

Amitesh

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो लंबे वक्त से सक्रिय राजनीति से दूर थे. अस्वस्थ होने के कारण 2004 के लोकसभा चुनाव के कुछ साल बाद ही उनकी सक्रिय राजनीति से दूरी बढ़ गई थी. लेकिन, पार्टी के भीतर उनके विचारों और पदचिन्हों पर आगे बढ़ने की बात बराबर होती रहती थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह तक सब अपने भाषणों में अलग-अलग मौके पर वाजपेयी के रास्ते और उनकी नीति पर आगे बढ़ने को लेकर सरकार और पार्टी की प्रतिबद्धता की दुहाई देते रहते थे. चाहे कश्मीर को लेकर सरकार की नीति हो या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में अटल जी के कामों का जिक्र, लगातार उनकी नीति की तारीफ कर उस पर आगे बढ़ने की बात होती रहती है.


बीमार होने के चलते वाजपेयी भले ही अपने सरकारी आवास तक सीमित रह गए थे. लेकिन, उनका आभामंडल का असर ऐसा था जो उस घर की चहारदीवारी से बाहर सबको प्रेरित करता रहा.

साल में एक बार 25 दिसंबर को उनके जन्म दिन के मौके पर उनके सरकारी आवास 6 ए कृष्णमेनन मार्ग पर बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के अलावा देश के अलग-अलग हिस्सों से उनके समर्थकों, उनके चाहने वालों और उनसे प्यार करने वालों का दिन भर तांता लगा रहता था. इनमें दूसरे दलों के भी नेता शामिल रहते थे, जो वाजपेयी को जन्मदिन की बधाई देने आते रहते थे. ये वाजपेयी के प्रति लोगों के उस प्यार को ही दिखाता था जिनके सक्रिय राजनीति से अलग रहने और बीमार होने के बावजूद उनसे मिलने लोग इस तरह पहुंचते रहे.

आखिरी समय में अटल जी की मौत से भी ठन  ही गई. लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रहने के बावजूद लंबे समय तक उनकी मौत से जंग जारी रही. हार नहीं मानने की बात कहने वाले अटल जी मौत से हार नहीं मानने की कोशिश में लगे रहे.

1980 में बीजेपी की स्थापना के बाद पहले अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयास किया. वाजपेयी का चेहरा और उनके साथ आडवाणी की सांगठनिक कुशलता दोनों के दम पर ही बीजेपी ने धीरे-धीरे अपने-आप को स्थापित किया. 1984 में महज दो लोकसभा सीटों पर जीतने वाली बीजेपी के लिए आगे की राह आसान नहीं थी. लेकिन, अटल-आडवाणी की जोड़ी ने धीरे-धीरे पार्टी के कार्यकर्ताओं के भीतर ऊर्जा का संचार किया. संगठन को आगे बढ़ाया और ऐसा भी मौका आया जब बीजेपी सत्ता में भी आई.

हालांकि इसके पहले 90 के दशक में मंदिर आंदोलन के वक्त सोमनाथ से अयोध्या तक अपनी रथयात्रा के बाद लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी. एक वक्त ऐसा भी आया जब आडवाणी को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद भी दिया गया था. अपने हिंदुत्व के मुद्दे पर कड़े तेवर के चलते आरएसएस के चहेते आडवाणी ही थे.

लेकिन, आडवाणी ने आगे चलकर वाजपेयी के चेहरे को आगे कर बीजेपी की सरकार बनाने की कोशिश की थी. उस वक्त आडवाणी को भी इस बात का एहसास था कि उनके चेहरे पर नहीं, बल्कि वाजपेयी के चेहरे को आगे कर कई दूसरे दलों को साधा जा सकता है. वाजपेयी का उदार चेहरा कई दूसरे दलों को पसंद भी आया और 1996 में 13 दिनों बाद बहुमत साबित नहीं कर पाने के बाद 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने सरकार बनाई.

1996 में जब अटल जी की सरकार को किसी भी दल ने समर्थन नहीं दिया तो उस वक्त 13 दिनों में ही उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. यह वो वक्त था जब वाजपेयी के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने पर विपक्ष की तरफ से कटाक्ष किया गया था. लेकिन, वाजपेयी ने आगे चलकर छह सालों तक सफलतापूर्वक सरकार चलाई.

1980 से लेकर 2004 तक यह वो दौर था जब अटल-आडवाणी की जोड़ी ही बीजेपी की सर्वेसर्वा थी. दोनों की जुगलबंदी ऐसी थी कि कुछ मुद्दों पर कभी-कभी मतभेद होने के बावजूद भी उन मुद्दों को सहजता से सुलझा लिया जाता था. सौम्य और मृदुभाषी अटल बिहारी वाजपेयी ने कई मौकों पर इशारों-इशारों में ऐसी बात कह दी जिससे उनके कई सहयोगी भी असहज हो जाते थे.

बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर वेंकैया नायडू ने 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को विकास पुरुष और लालकृष्ण आडवाणी को लौह पुरुष कह कर संबोधित कर दोहरे नेतृत्व में चुनाव में उतरने की बात कही थी. यह एक ऐसा वक्त था जब बीजेपी के भीतर एक तबका उपप्रधानमंत्री आडवाणी को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहता था. लेकिन, अटल जी ने सबको यह कहकर चौंका दिया कि ‘ना टायर्ड ना रिटायर्ड, अगले चुनाव में आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान.’

इस बयान के बाद बीजेपी के भीतर सियासी हलचल काफी बढ़ गई थी. बाद में इस बयान पर वेंकैया नायडू सफाई देते नजर आए. आखिरकार चुनाव अटल जी के नेतृत्व में ही लड़ा गया.

अटल बिहारी वाजपेयी को विरोधी दलों के नेता ‘राइट मैन इन रॉन्ग पार्टी’ कहते थे. यानी गलत पार्टी में सही आदमी. इस पर भी वाजपेयी अपने ही अंदाज में उनको जवाब दिया करते थे.

लेकिन, जब बीजेपी के संगठन महामंत्री गोविंदाचार्य ने एक बार उन्हें बीजेपी का मुखौटा कह दिया था तो इस पर अटल जी नाराज हो गए थे. गोविंदाचार्य की तरफ से उन्हें मुखौटा कहा जाने का मतलब यह निकाला गया कि बीजेपी एक हिंदुत्ववादी विचारधारा की पार्टी में वाजपेयी का उदार चेहरा. वाजपेयी को यह बयान नागवार गुजरा था. उसके बाद धीरे-धीरे गोविंदाचार्य बीजेपी में किनारे होते गए और फिर पार्टी से ही बाहर हो गए.

2004 में बीजेपी की दोबारा सरकार नहीं बन सकी. उसके बाद आडवाणी ने फिर से कमान संभाल ली थी. 2004 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद वाजपेयी अपनी बीमारी के चलते धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से दूर होते चले गए. लेकिन, 2009 में आडवाणी को बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी बनाया गया था. लेकिन, अटल बिन आडवाणी वो करिश्मा नहीं कर पाए. अटल बिन आडवाणी अधूरे ही रह गए.