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एसवाईएल: क्या इस बार लागू हो पाएगा सुप्रीम कोर्ट का फैसला?

पानी को लेकर राज्य सरकारें जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की उपेक्षा कर रही हैं यह चिंताजनक है...

Amit Singh

सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है. पिछले 34 सालों में सर्वोच्च न्यायालय का यह तीसरा फैसला आया है. हैरानी की बात है कि इसके बावजूद पिछले 34 सालों में इस नहर का निर्माण नहीं हो पाया है.

देश में पानी को लेकर टकराव का हाल यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश बेमानी हो गए हैं. अभी पिछले दिनों कावेरी जल विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच टकराव देखा गया था. जहां तक एसवाईएल की बात है तो केंद्र सरकार सुनवाई के दौरान तटस्थ रही.


पानी को लेकर राज्य सरकारें जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की उपेक्षा कर रही हैं, ये चिंताजनक बात है.

गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के आए फैसले से पंजाब को झटका लगा है. यह फैसला पंजाब में सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा गठबंधन और विपक्षी कांग्रेस दोनों को असहज करने वाला है. सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि पंजाब सरकार का पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट एक्ट 2004 असंवैधानिक है. पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा सतलुज यमुना लिंक नहर बनेगी.

सुप्रीम कोर्ट ने यह राय राष्ट्रपति की सिफारिश पर दी है. अब सुप्रीम कोर्ट का 2002 और 2004 का फैसला प्रभावी हो गया. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि केंद्र सरकार को नहर का कब्जा लेकर लिंक निर्माण पूरा करना है.

मामले में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से चार सवालों के जवाब मांगे थे.

पानी के बंटवारे पर कानूनी दांवपेंच

क्या पंजाब का पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट एक्ट 2004 संवैधानिक है? क्या ये एक्ट इंटरस्टेट वाटर डिस्प्यूट एक्ट 1956 और पंजाब रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट 1966 के तहत सही है? क्या पंजाब ने रावी-ब्यास बेसिन को लेकर 1981 के एग्रीमेंट को सही नियमों के तहत रद्द किया है? क्या पंजाब इस एक्ट के तहत 2002 और 2004 में सुप्रीम कोर्ट की डिक्री को मानने से मुक्त हो गया है?

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय में इन सवालों के जवाब नकारात्मक दिए हैं. शीर्ष अदालत ने कहा कि पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट एक्ट 2004 असंवैधानिक है. केंद्र सरकार को नहर का कब्जा लेकर लिंक निर्माण पूरा करना है. पंजाब सरकार के लिए इसे बड़ा झटका माना जा रहा है क्योंकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि 'सतलुज-यमुना लिंक नहर पर यथास्थिति बनाए रखें.'

शीर्ष अदालत ने गृह मंत्रालय के सचिव, पंजाब के मुख्य सचिव और डीजीपी को सतलुज-यमुना (एसवाई) रिवर लिंक की जमीन और अन्य मुद्दों पर संयुक्त रिसीवर नियुक्त किया है. अदालत ने कहा कि इस संबंध में जारी आदेश को लागू न करने देने की कोशिशें की जा रही है और ऐसे में अदालत खामोश नहीं बैठ सकती है.

पानी के बंटवारे पर लहलहाती सियासत की फसल

दरअसल एसवाईएल का मुद्दा बहुत संवेदनशील है. हरियाणा और पंजाब के बीच दशकों से यह विवाद चला आ रहा है. इसमें हमेशा राजनीति ही हावी रही है. इसी वजह से सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखा जाता रहा. इस दौरान नहर तो सूखी की सूखी ही रही लेकिन जब भी एसवाईएल का मुद्दा उठा तो राजनीति की फसल हरीभरी हो गई.

वैसे भी सियासत में किसान ऐसी लहलहाती फसल है, जिसे हर पार्टी काटना चाहती है. इस बार के फैसले के बाद भी इसी फसल को काटने के लिए सियासी टकराव बढ़ गया है. फैसला आने के बाद पंजाब की बादल सरकार ने एक बूंद भी पानी नहीं देने का ऐलान किया है. वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह लोकसभा से और सभी कांग्रेसी विधायक इस फैसले के तुरंत बाद विधानसभा से इस्तीफा देकर पहले ही सियासी दांव चल चुके हैं.

वैसे एसवाईएल से संबंधित समझौते में पंजाब और हरियाणा के साथ ही दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर भी शामिल है. मगर पंजाब और हरियाणा के लिए यह भावानात्मक और राजनीतिक रूप से बेहद अहम है. यह तब ज्यादा हो गया है, जब चंद महीने बाद पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

इस पूरे मसले में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका देखने लायक है. भाजपा, कांग्रेस, अकाली दल, इनेलो समेत सभी दल मौके की राजनीति कर रहे हैं. पंजाब भाजपा और कांग्रेस जहां इस फैसले का विरोध कर रही हैं. वहीं, हरियाणा की कांग्रेस और भाजपा की ईकाई इसके समर्थन में है. हैरानी की बात ये है कि इनके केंद्रीय नेतृत्व ने मामले पर पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है.

एसवाईएल पर सबकी अपनी-अपनी राजनीति

वैसे इस मसले की शुरुआत तब हुई, जब पंजाब रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट, 1966 के अंतर्गत पंजाब को दो हिस्सों में बांटकर हरियाणा नाम का दूसरा राज्य बना. इसके बाद 1976 में सरकार ने सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर के निर्माण की योजना बनाई और पंजाब-हरियाणा को रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी के आवंटन की अधिसूचना जारी की.

1981 में हरियाणा क्षेत्र में आने वाले एसवाईएल के हिस्से का निर्माण पूरा हुआ. 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटियाला के कपूरी गांव में एसवाईएल नहर की नींव रखी. 1985 में पंजाब विधानसभा में दिसंबर 1981 में हुई वाटर ट्रीटी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया.

1987 में नेशनल वाटर ट्रिब्यूनल ने पंजाब सरकार को उसके क्षेत्र में एसवाईएल का निर्माण जल्द से जल्द पूरा करने का आदेश दिया. उस समय लगभग 90 प्रतिशत काम पूरा हो चुका था. 2004 में पंजाब में कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए ‘पंजाब टर्मिनेशन ऑफ अग्रीमेंट्स एक्ट 2004’ लागू किया.

14 मार्च 2016 को पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मति से सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक 2016 पास किया गया, जिसके अनुसार सरकार एसवाईएल नहर के निर्माण के लिए अधिगृहित की गई किसानों की 3,928 एकड़ जमीन बिना उनसे मुआवजा लिए उन्हें वापस करेगी. जिसके बाद 10 नवंबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आ गया है.

वैसे भी देश के विभिन्न राज्यों में पानी के मुद्दे पर भले ही टकराव होता रहा है लेकिन नदी तट सिद्धांत के जरिये इसे साफ किया गया है. नदी-तट सिद्धांतों के अनुसार अगर कोई नदी पूरी तरह से एक ही राज्य के अंतर्गत बहती है तब उस पर केवल उस राज्य का अधिकार होगा, किसी और राज्य का नहीं.

यदि नदी एक राज्य से अधिक राज्यों से होकर बहती है, तो जिस भी राज्य से वह गुजर रही है, उस राज्य में आने वाले नदी के क्षेत्र पर उस राज्य का अधिकार होगा.

इन नदी तट अधिकारों का आधार इस बात को माना गया है कि किसी राज्य विशेष के लोगों को नदी के राज्य में होने से उसके बहाव आदि के कारण परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो ऐसे में नदी से होने वाले फायदे का एकमात्र लाभार्थी भी वही राज्य होगा.

एसवाईएल नहर मुद्दे पर पंजाब का तर्क था कि पंजाब रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट 1966 के बाद हरियाणा सतलुज नदी के संबंध में पंजाब के साथ सह-तटवर्ती (समान नदी बांटने वाला) राज्य नहीं रहा. ठीक उसी तरह जैसे पंजाब यमुना के लिए सह-तटवर्ती नहीं रहा. ऐसे में अगर हरियाणा, पंजाब की नदियों का पानी लेना चाहता है तो पंजाब को भी यमुना में उसका हिस्सा मिलना चाहिए.