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पुलवामा की ‘केमिस्ट्री’ से सुधरेगा बीजेपी का ‘अंकगणित’?

बीजेपी उम्मीद कर सकती है कि राष्ट्रवाद के तूफ़ान में तमाम ‘कचरा’ बह जाएगा. जब तक पाकिस्तान और कश्मीरी अलगाववादियों के खिलाफ़ तेज हवाएं चल रही हैं, राफैल पर सवाल उठाना बेमानी है, बेरोजगारी, किसानों की समस्या, अर्थव्यवस्था, जीएसटी जैसी बातें इस हवा में उड़ जाएंगी

Raj Shekhar

शहादत पर सियासत नहीं होनी चाहिए. ये एक सैद्धांतिक जुमला है, जिस पर सहमत सब हैं लेकिन अमल कोई नहीं करता. आख़िरकार ‘पुलवामा’ पर भी  राजनीति शुरू हो गई. सबसे पहले बाल्टी से ढक्कन उठाया बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने. ममता को हमले की टाइमिंग पर संदेह है, उनका आरोप है कि ‘जब लोकसभा चुनाव सर पर हैं तो बीजेपी छाया युद्ध के हालात पैदा कर रही है’. ममता का टोन कुछ ऐसा था जैसे सीआरपीएफ जवानों के काफिले पर जानबूझ कर हमला होने दिया गया.

ममता के इस हमले पर सियासी हलके में सवाल-जवाब चल ही रहे थे कि गुरुवार को कांग्रेस भी मैदान में कूद गई. कांग्रेस ने प्रधानमंत्री को जवानों के शोक से बेपरवाह बताते हुए, अपने 5 सवालों के जरिए सरकार को घेर लिया.


जिसका लब्लो-लुआब ये था कि सरकार अपनी नाकामी स्वीकार क्यों नहीं करती, इतना आरडीएक्स और हथियार आया कैसे, कड़ी चौकसी वाले हाइवे पर आतंकी पहुंचे कैसे, और आखिर नोटबंदी से आतंकवाद रोकने का दावा कहां गया ?

जींद चुनाव हारने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला की ये तीसरी मगर पहली आक्रामक प्रेस कांफ्रेंस थी. सुरजेवाला ने सवाल ही नहीं उठाए बल्कि प्रधानमंत्री को एक बार फिर ‘राजधर्म’ की नसीहत दे दी. उन्होंने आरोप लगाया कि पुलवामा हमले के बाद प्रधानमंत्री उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट पार्क में प्रमोशनल फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. शहीद जवानों के पार्थिव शरीर दिल्ली एयरपोर्ट पहुंच गए मगर वो खुद एक घंटे बाद पहुंचे !

ये वही कांग्रेस पार्टी है जिसका राष्ट्रीय अध्यक्ष पुलवामा हमले के अगले दिन खुद को सेना और सरकार के साथ शाना-ब-शाना खड़ा बताता है. जिसकी राष्ट्रीय महासचिव और खुद कांग्रेस अध्यक्ष की बहन प्रियंका लखनऊ में पत्रकारों को बुलाकर अपनी प्रेस कांफ्रेस रद्द करती हैं.

 तो अचानक 7 दिन बाद इस आक्रामक रुख की वजह क्या है ?

दरअसल कांग्रेस समेत दूसरे दलों ने पहले तेल देखा, फिर तेल की धार देखी. उम्मीद थी हमले का ठीकरा सरकार के सर फूटेगा. खुफिया जानकारी जुटाने और सुरक्षा में नाकामी के इल्ज़ाम लगेंगे. सरकार जब बैकफुट पर होगी तो उसे दबोचना आसान होगा. लेकिन पासा पलट गया.

जवानों की शहादत के बाद देश में राष्ट्रवाद की ऐसी बयार बही कि गुस्से का रुख सरकार की बजाए पाकिस्तान की ओर हो गया. जाहिर है इस बयार को बहाने में सरकार और बीजेपी का योगदान भी कम नहीं था. यूं भी ‘राष्ट्रवाद’  बीजेपी और संघ परिवार का ही पेटेंट है. आप कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन बीजेपी के ‘राष्ट्रवाद’ पर सवाल नहीं उठा सकते. हमले के बाद गली-गली में तिरंगे और मोमबत्तियों के साथ शाम को जो जुलूस निकले, उन्होंने जनता के गुस्से को दूसरी दिशा दे दी. जो कसर रह गयी थी वो प्रधानमंत्री के आक्रामक भाषणों ने पूरी कर दी.


दिल्ली में भी पाकिस्तान के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन चल रहा है. इस दौरान कई लोग पाकिस्तान का झंडा जलाते हुए भी दिखे (फोटो: पीटीआई)

इस सारी कवायद का हासिल ये रहा कि सरकार पाकिस्तान के खिलाफ़ ऐक्शन में नजर आयी. कमी-बेसी सोशल मीडिया गैंग ने पूरी कर दी, जिसने पाकिस्तान के समांतर कश्मीर और कश्मीरियों की शक्ल में एक नया शत्रु खड़ा कर दिया. जिस जुबान में वहां बात हो रही है उससे लगता है कि सरकार से अगला सर्जिकल स्ट्राइक कश्मीर में करने की मांग हो रही हो.

प्रधानमंत्री से जिस तरह की अपेक्षा की जा रही है, उससे साफ़ है कि उनके वोटर की उनसे उम्मीद टूटी नहीं है. अगर सियासी अखाड़े के बाहर बैठे विश्लेषक ये बातें समझ रहे हैं, तो क्या सियासत कर रही कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को ये सब नहीं दिख रहा ?

जवाब है – दिख गया है, फर्क सिर्फ इतना है कि ममता बनर्जी का धैर्य जवाब दे गया, कांग्रेस दो दिन बाद तैयारी करके, सवालों के साथ मैदान में उतरी !

लेकिन अब ये सवाल बेमानी हैं. कहना अटपटा लग सकता है, लेकिन बीजेपी के भाग्य से छींका टूट गया है. पार्टी उम्मीद कर सकती है कि राष्ट्रवाद के तूफ़ान में तमाम ‘कचरा’ बह जाएगा. जब तक पाकिस्तान और कश्मीरी अलगाववादियों के खिलाफ़ तेज हवाएं चल रही हैं, राफैल पर सवाल उठाना बेमानी है, बेरोजगारी, किसानों की समस्या, अर्थव्यवस्था, जीएसटी जैसी बातें इस हवा में उड़ जाएंगी.

क्योंकि गलियों में तिरंगा लेकर घूम रहा नौजवान खुद नारा लगा रहा है – नहीं चाहिए विकास, नहीं चाहिए रोजगार, अबकी बार पाकिस्तान पर प्रहार. अब ये हवा कब तक बहती रहेगी कहना कठिन है. ये नारे लग रहे हैं या लगवाए जा रहे हैं ये भी पता नहीं, लेकिन लगे हाथ ऐसे नारे भी इसी भीड़ में लग रहे हैं कि 'नून रोटी खाएंगे. मोदी को ही लाएंगे”.

जाहिर है सरकार बैक फुट पर नहीं है. बल्कि उसकी घेराबंदी कर रहा विपक्ष निहत्था सा दिख रहा है. ताजा माहौल में उसके उठाए सवालों पर कोई कान देने को भी तैयार नहीं.

लेकिन इस हमले पर सरकार से सवाल क्यों न पूछा जाए  ?  अगर लापरवाही के इल्जाम लग रहे हैं तो क्या इसका कोई सियासी ‘बैड इम्पैक्ट’ नहीं होगा ?

एक वरिष्ठ पत्रकार जवाब देते हैं – होगा, मगर तब जब इसी नवैयत का एक और हमला जल्द ही फिर हो जाए. वर्ना तो गेंद फिलहाल सरकार के पाले में है. अगर गौर से देखिए तो लामबंद होता विपक्ष मोदी सरकार का जो गणित बिगाड़ता दिख रहा था, उसे फिलहाल बीजेपी केमिस्ट्री से मैनेज करती नजर आ रही है.