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स्कूली शिक्षा पहले वर्ग भेद घटाती थी...अब बढ़ा क्यों रही है?

जो शिक्षा वर्गभेद मिटाने के लिए जानी जाती है, वही देश में वर्गभेद की बड़ी वजह बनती दिख रही है

Ashwini Kumar

इस हमारे देश में स्कूली शिक्षा से जुड़ा एक अनोखा मेला लगने जा रहा है. ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल शो के नाम से. दिल्ली और मुंबई में ब्रिटेन की स्कूली शिक्षा से जुड़े कुछ जाने-माने प्रतिनिधि आएंगे और हमारे चुनिंदा (जिनकी इसमें दिलचस्पी होगी) अभिभावकों, एकेडमिशियन और दूसरे लोगों को बताएंगे कि उनके पढ़ाने का पैटर्न हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था से कितना अलग, आगे और अव्वल है.

कैसे उनके स्कूलों में पढ़कर हमारे बच्चे आगे चलकर दुनियाभर के देशों के बच्चों से ज्यादा काबिल बन सकते हैं. जो कि भारतीय स्कूलों में पढ़ने से संभव नहीं है. उनके पास अपने हक में कई सारे आंकड़े भी हैं, लेकिन दावों और वास्तविकता के बीच जो फर्क होता है, उसे जांचने का काम फिर से अभिभावकों का ही होगा.


जब बच्चों के लिए किसी चीज की च्वाइस का मामला होता है, तो हम प्रैक्टिकल से ज्यादा इमोशनल होते हैं. खासतौर से उनकी शिक्षा के मामले में तो और भी. ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल के प्रतिनिधि कहते हैं, 'हमारे यहां से निकले बच्चे वर्ल्ड लीडर, साइंटिस्ट, आर्टिस्ट और बड़े बिजनेस माइंड साबित हुए हैं.' यकीनन ये तथ्य गलत भी नहीं होंगे, लेकिन तभी हमारे देश के पेरेंट्स खुद से ये सवाल कर सकते हैं कि क्या अपने सीबीएसई या राज्यों के बोर्ड्स से निकले बच्चे ऊपर बताए गए क्षेत्रों में अपना झंडा बुलंद नहीं कर रहे हैं?

पिछले कुछ सालों से देश के कई पब्लिक स्कूलों ने कैंब्रिज करिकुलम शुरू किया है. खासतौर से महानगरों और बड़े शहरों के स्कूलों में ये बड़ी तेजी से और जोर-शोर से लाया गया है. ऐसे ही एक स्कूल की प्रिंसिपल (ये महिला प्रिंसिपल जानी-मानी एकेडमिशियन हैं) से मैंने बात की. सीबीएसई और कैंब्रिज करिकुलम के बीच के फर्क के बारे में पूछा. करीब आधे घंटे तक कैंब्रिज की खूबियों के बखान से मैंने जो 5 सबसे खास निष्कर्ष निकाले वो कुछ इस तरह के रहे...

1. उनका जोर अंग्रेजी भाषा पर सबसे ज्यादा है.

2. सीबीएसई में फोकस सबसे ज्यादा साइंस और मैथ्स पर होता है, लेकिन वहां किसी खास सब्जेक्ट पर फोकस करने की जगह सारे सब्जेक्ट पर बराबर फोकस है.

3. उनकी पढ़ाई प्रोजेक्ट और स्किल आधारित है.

4. इनोवेशन और क्रिएटिविटी पर ज्यादा जोर है.

5. उनके टीचर्स ज्यादा ट्रेंड और काबिल (जैसा कि उन्होंने कहा) होते हैं.

हालांकि मेरे ये निष्कर्ष मुझे बेहद प्रभावशाली तरीके से समझाई गई विषय-वस्तु पर आधारित हैं. लिहाजा इस बात की पूरी गुंजाइश है कि ऊपर जिन पांच बिंदुओं का जिक्र मैंने कैंब्रिज करिकुलम के संदर्भ में किया है वो पूरी तरह से गलत न भी सही, तो अर्धसत्य जरूर हो सकते हैं.

बहरहाल, ये पेरेंट्स पर निर्भर करता है कि वे अपने देसी सीबीएसई या दूसरे बोर्ड्स की पढ़ाई से खुश हैं या नहीं, लेकिन एक बहुत ही गौर करने और चौंकाने वाली बात मुझे उनकी फीस में नजर आई. जो कि उस स्कूल के सीबीएसई माध्यम के बच्चों से ली जा रही फीस से करीब दो से ढाई गुनी है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

कैंब्रिज करिकुलम का ये शगल ज्यादा पुराना नहीं है लिहाजा उसकी प्रमाणिकता, गुणवत्ता और सीबीएसई के मामले में श्रेष्ठता साबित होने में कुछ साल लगेंगे. शायद वे इसमें विफल भी रहें. लेकिन जो एक बात तय है वो ये कि स्कूलों के लिए सैकड़ों बच्चों के जरिये फीस का (जो कि दोगुनी से कम कहीं नहीं है) नया स्ट्रक्चर (नई कमाई कह सकते हैं) जरूर शुरू हो गया है. और दूसरी ये कि एक ही स्कूल में बच्चों के बीच बड़ा आर्थिक वर्ग भेद नजर आने का पुख्ता इंतजाम भी हो गया है.

70-80 के दशक तक देश में कई सारे सरकारी स्कूल काफी अच्छा कर रहे थे. वहां से निकले बच्चे अव्वल संस्थानों का हिस्सा बन रहे थे. अचानक बड़े शहरों, फिर छोटे शहरों और फिर कस्बों तक में प्राइवेट स्कूल खुलने लगे. देखते-देखते ये प्राइवेट स्कूल आलीशान होते गए और सरकारी स्कूल अपने भवन से लेकर पढ़ाई तक में जर्जर होते गए. प्राइवेट स्कूलों के ब्रांच दर ब्रांच खुलते गए. खूब कमाई हुई. स्कूली शिक्षा ने धंधे का रूप ले लिया और स्कूलों के संचालक शिक्षा माफिया नजर आने लगे.

सवाल उठा अब आगे क्या? क्या इसी सवाल का जवाब कैंब्रिज करिकुलम है? क्या एक सोची-समझी सोच के तहत सीबीएसई के मुकाबले कथित तौर पर उत्कृष्ठ कैंब्रिज करिकुलम (या फिर दहलीज पर खड़ा ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल) आया है, जिससे कि बिना किसी विरोध के प्रति बच्चा दोगुनी से ढाई गुना कमाई का रास्ता खुल जाए? क्या इसकी कीमत पर सीबीएसई वाले स्ट्रीम के बच्चों को कुछ हद तक नजरअंदाज करने का सिलसिला भी चलेगा? जैसा कि सरकारी स्कूलों से प्राइवेट स्कूलों पर शिफ्ट होने के दौरान सरकारी स्कूलों को उपेक्षा का शिकार होकर खत्म होने के लिए उन्हें बेसहारा छोड़ा गया था?

इतनी आसानी से और इतनी जल्दी शायद ये काम अभी न भी हो, लेकिन जो तय दिख रहा है वो ये कि एक बार फिर हमारी प्राइवेट शिक्षा व्यवस्था पहले से ज्यादा कमाई के लिए एक और नए वर्ग भेद की बुनियाद जरूर रख चुकी है. ये वर्गभेद इस रूप में होगा कि आर्थिक रूप से एलिट घरों के बच्चे अब कैंब्रिज करिकुलम/ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल में बाकी बच्चों के मुकाबले एक ही स्कूल में श्रेष्ठता का भाव हासिल करेंगे.

अपनी स्कूली शिक्षा विसंगतियों का पिटारा है. वर्ग और सामाजिक भेद का क्लासिकल केस है. जो समृद्ध है वो पढ़ेगा और आगे बढ़ेगा. बाकियों के लिए राइट टू एजुकेशन लाकर हम उनकी आंखों में धूल झोंककर अपना काम खत्म मान लेते हैं. तभी तो खुद को प्रगति के पैमाने पर सबसे अव्वल मानने वाले गुजरात में 2012 से 2017 के दौरान 6 से 14 साल के 12.80 से 15.11 प्रतिशत स्कूल में एनरॉल तक नहीं किए गए. ये आंकड़े सीएजी के हैं. देश के बाकी पिछड़े राज्यों की हालत भी अलग नहीं है

हम अक्सर ये सोचते हैं कि महानगरों में बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलेगी. कई मायनों में ये सोच सही भी हो सकती है. लेकिन एक दिलचस्प आंकड़ा ये है कि पिछले दिनों कराए गए एनसीईआरटी के एक सर्वे में ये बात सामने आई कि मुंबई और बेंगलुरु के स्टूडेंट्स गणित और भाषा से जुड़े विषयों में उसी राज्य के कस्बों और गांव के बच्चों से जानकारी और ज्ञान में पीछे पाए गए. कर्नाटक में तो क्लास 8 के बेंगलुरु के बच्चों का गणित में औसत मार्क्स 35 प्रतिशत ही रहा, जबकि इसी प्रदेश के कई ग्रामीण जिलों के बच्चे उसी टेस्ट में 67 प्रतिशत अंक हासिल कर गए.

ये उदाहरण इसलिए कि महानगरों की शिक्षा व्यवस्था की श्रेष्ठता का जो भाव हमारे जेहन में है वो पूरी तरह से सही नहीं है और अपने बच्चों के लिए फैसले लेते वक्त कई चीजों को जांचने-परखने की जरूरत है.

अपनी स्कूली शिक्षा को लेकर कई बार हम कितने चलताऊ मिजाज में होते हैं इसकी बानगी लद्दाख के स्कूलों के उदाहरण में मिलती है. वहां बच्चों को आठवीं क्लास तक स्कूली शिक्षा ऊर्दू माध्यम से दी जाती है. इसके बाद अचानक माध्यम बदल जाता है और इंग्लिश में पढ़ाई शुरू हो जाती है. बच्चे न ठीक से उर्दू सीख पाते हैं, न इंग्लिश उनके पल्ले पड़ता है और न ही लोकल लद्दाखी भाषा में वे पारंगत हो पाते हैं.

नतीजा ये होता है कि भाषा के चक्कर में उनके विषय का ज्ञान अधकचरा रह जाता है और करीब 95 प्रतिशत बच्चे हर साल दसवीं की परीक्षा में फेल हो जाते हैं. सरकारों ने इस पर कोई काम नहीं किया. भला हो इस साल रैमन मैग्सेसे अवॉर्ड जीतने वाले लद्दाखी सोनम वांगचुक का, जिन्होंने लद्दाख के बच्चों को इस त्रासदी से निकालने के लिए अथक प्रयास किया और अपनी एक बेहद कामयाब शिक्षा पद्धति निकाली. जिसका कितना लाभ यहां के बच्चों को मिला उसका उदाहरण आंकड़ों के अलावा वांगचुक को मिला मैग्सेसे अवॉर्ड भी है.

जब हम कहते हैं कि हम दुनिया की छठी सबसे बड़ी इकॉनमी हैं. हमने फ्रांस को इस मोर्चे पर पीछे छोड़ दिया है तो हम पर झूठ बोलने का एक स्वाभाविक-सा दबाव आ जाता है. इस दबाव में हम देश में प्रति व्यक्ति आय की बात नहीं करते. जीवन की गुणवत्ता को नजरअंदाज करते हैं. शिक्षा के स्तर को भूल जाते हैं. इस बात को नजरअंदाज कर बुलेट ट्रेन चलाते हैं कि हमारी मौजूदा रेल व्यवस्था ही अभी कितनी पिछड़ी हुई है. पांच सितारा ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल की कल्पना करने लग जाते हैं, इस बात को नजरअंदाज कर कि हमारे देश के 13,500 गांवों में तो स्कूल ही नहीं है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

सरकारी स्कूल. फिर छोटे-छोटे प्राइवेट स्कूल. फिर आलीशान पब्लिक स्कूल. इसके बाद कैंब्रिज करिकुलम और अब ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल. पैटर्न पर गौर करें. हर शिफ्ट के बाद पिछली व्यवस्था का स्तर गिरा या गिरने का खतरा दिखा. हर शिफ्ट के बाद पढ़ाई का खर्चा बेतहाशा बढ़ गया. सरकारें गौर नहीं कर रही हैं कि स्कूली शिक्षा किस दिशा में जा रही है. शिक्षा के नए और महंगे शगलों को सरकार ये कहकर नजरअंदाज कर सकती है कि ये तो पेरेंट्स की च्वाइस का मामला है लेकिन ऐसा कहते ही उसे ये गारंटी भी लेनी होगी कि जो मौजूदा व्यवस्था है वो न नई व्यवस्था को मौका देने के लिए न पिछड़ेगी और न ही महंगी होगी.

क्योंकि जो शिक्षा वर्गभेद मिटाने के लिए जानी जाती है, वही देश में वर्गभेद की बड़ी वजह बनती दिख रही है. हम उस राह पर बड़ी तेजी से बढ़ते दिख रहे हैं, जिसमें शायद वही पढ़ेगा और आगे बढ़ेगा, जो दौलत के खजाने के साथ इन स्कूलों के सामने खड़ा होगा. दरअसल, कहीं न कहीं सिस्टम की मिलीभगत के साथ इसकी शुरुआत हो भी चुकी है.