भारत के कैथोलिक चर्च में पुरुषों द्वारा महिलाओं के हो रहे व्यापक यौन उत्पीड़न पर इस साल की शुरुआत में नन मंजू कुलापुरम ने कहा था, 'अगर यह बाहर आ गया तो सुनामी आ जाएगी.'
कुलापुरम जो बात कह रही थीं, वह अकेले कैथोलिक चर्च तक सीमित नहीं है बल्कि ऊपर से नीचे तक हर जगह व्याप्त है.
फर्क यह है कि बाकी कार्यस्थलों पर कानूनन आंतरिक शिकायत कमेटियां गठित करने का प्रावधान लागू है जबकि ऐसी कोई औपचारिक संस्था अस्तित्व में नहीं है जो पुरोहित वर्ग के सदस्यों द्वारा किए गए यौन उत्पीड़न को संबोधित करती हो.
बीते 14 नवंबर को कोझिकोड की एक महिला ने नदक्कवु स्थित सेंट मेरीज इंग्लिश चर्च के पैरिश पादरी के खिलाफ पुलिस में एक शिकायत दर्ज करवाई .
महिला ने आरोप लगाया कि अगस्त में जब वह अपनी बेटी के जन्मदिन पर उसके पास आशीर्वाद मांगने गई तो उसके बाद से उसने ईमेल और संदेशों के माध्यम से उसका यौन उत्पीड़न किया.
महिला ने मालाबार डायोसीज ऑफ दि चर्च ऑफ साउथ इंडिया के बिशप से शिकायत की, यहां तक कि पादरी के साथ हुई बातचीत की प्रतियां भी दिखाईं, लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया.
बिशप ने कहा कि कोझिकोड में कई और चर्च हैं. वह वहां जा सकती है. उस पादरी को हालांकि कुछ समय के लिए सितंबर में नीलांबर में भेज दिया गया, लेकिन महीने भर के बाद वह नदक्कवु में फिर वापस आ गया.
एक महिला परामर्श केंद्र अन्वेषी के जरिये जब इस महिला ने पुलिस से संपर्क साधा, तब कहीं जाकर मामला दर्ज किया गया और पादरी पर धारा 509 के अंतर्गत आरोप दाखिल किया गया (जो किसी महिला की इज्जत से खिलवाड़ करने में इस्तेमाल किए गए शब्द, भंगिमा या कृत्य के मामले में लागू होता है).
सुनवाई की जगह धमकी
तमाम और मामले ऐसे ही हैं जो इस चरण तक नहीं पहुंच पाए. 2016 की एक रिपोर्ट कहती है कि जब चर्च के शीर्ष अधिकारियों को ऐसी घटनाओं से आगाह किया जाता है, तो वे अकसर इनकी उपेक्षा कर देते हैं या ज्यादा से ज्यादा दोषी का तबादला कर देते हैं.
सिस्टर कुलापुरम बताती हैं कि उनके साथ की एक नन का नहाते वक्त एक सेमिनेरियन ने वीडियो बना लिया था जब वे दोनों घर से दूर एक सेमिनार में गई थीं. फिर उसे कानूनी रास्ता अख्तियार करने से रोका गया और कहा गया कि चर्च उसे न्याय देगा.
ऐसा कभी नहीं हो सका- पादरी को धार्मिक शिक्षा पूरी करने के लिए रोम भेज दिया गया और उसकी शिकार महिला ने हमेशा के लिए धर्मिक जीवन को त्याग दिया. आम तौर पर आरोपी को सम्मान और पीड़ित को अपमान मिलने का यह महज छोटा सा संस्करण है.
हालात हालांकि पचास के दशक की तुलना में बेशक बदल चुके हैं जब कहते हैं कि गुआम में बच्चों का यौन उत्पीड़न करने के आदती रेवरेंड लुई ब्रूलार्ड को उनके साथी पादरियों ने रोकने के बजाय नियमित रूप से प्रायश्चित करने की सलाह दी थी. अपराधी हालांकि आज भी न्यूनतम दंड के साथ बच निकलते हैं.
ऐसा ही एक मामला बाल यौन उत्पीड़न के दोषी फादर जोसेफ पलनिवेल जेयापॉल का है जिन्हें जनवरी में रोमन कैथेलिक चर्च ऑफ साउथ इंडिया में बहाल कर दिया गया.
उनकी शिकार बच्चियों में एक मिनेसोटा की लड़की कहती है कि जब वह 14 साल की थी, तब पहली बार पादरी के दफ्तर में उसने रेप किया. साल भर तक उसका उत्पीड़न करने के दौरान पादरी उससे जबरन कहलवाता रहा कि उसने (बच्ची ने) उसे (पादरी को) अशुद्ध किया है.
जेयापॉल को मिनेसोटा में एक साल की कैद हुई जहां वह 2015 में तैनात था, लेकिन उसने अपनी सजा की अवधि इस शर्त के साथ कम करवा ली कि वह ऐसा काम दोबारा नहीं करेगा जहां उसका संपर्क बच्चों के साथ हो.
जब वह भारत लौटा, तो एक बिशप ने उसके ऊपर लागू पांच साल के निलंबन को रोम के साथ कथित तौर पर परामर्श कर के हटा लिया.
बदलते हालात
इस अगस्त में शांति रोजेलीन ने कैथोलिक चर्च को चुनौती दी जब उसकी 17 वर्षीय बेटी की तमिलनाडु के कोवाइ में एक वलायार पादरी द्वारा तीन साल पहले की गई हत्या की जांच में यह बात सामने आई कि चर्च के अधिकारियों को लड़की के यौन उत्पीड़न की जानकारी पहले से थी.
उन लोगों ने स्थानीय पुलिस से यह बात छुपा ली और आश्चर्यजनक तरीके से इसकी खबर रोम में दे दी. दि इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट में रोजेलीन के हवाले से बताया गया है कि पादरी ने इस कदर विश्वास को तोड़ा था कि वह बार-बार एक ही बात दुहराता रहा, 'वह हमारा ईश्वर था.'
पुलिस ने अंत में लड़की के संबंध में जान-बूझ कर अहम जानकारी को छुपाने के आरोप में पांच पादरियों को गिरफ्तार किया. ऐसे मामलों में हालांकि ढिलाई और देरी पीड़ितों को धमकाने का पर्याप्त वक्त मुहैया करा देती है.
इसका भयावह उदाहरण एक मामले में मिलता है जहां केरल के एक कैथोलिक पादरी ने साल भर से ज्यादा समय तक एक पुरुष का उत्पीड़न करने के बाद उसके भाइयों को उसे जान से मारने की धमकी दी और चर्च के अधिकारियों के खिलाफ दायर शिकायत को वापस लेने का दबाव बनाया.
पादरियों द्वारा यौन उत्पीड़न के मामलों में एक गहन अध्ययन में वर्जीनिया सलदान्हा का जिक्र आता है जिसने बरसों तक फेडरेशन ऑफ एशियन बिशप्स कॉन्फ्रेंस में काम किया था.
उसके हवाले से कहा गया है कि यौन उत्पीड़न की शिकायतों से 'इन हाउस' (आंतरिक स्तर पर) निपटने को लेकर जो हो-हल्ला अकसर मचाया जाता है, उसका वास्तव में मतलब यह बनता है कि पीड़ित को परेशान किया जाएगा.
नीति निर्माण की कवायद
इंडियन थियोलॉजिकल एसोसिएशन की पहली महिला अध्यक्ष शालिनी मुलक्कल कहती हैं कि ननें आसपास की वर्जनाओं के चलते अकसर मामलों को सामने नहीं ला पाती हैं.
कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया ने अगस्त में घोषणा की थी कि वह इस संबंध में एक नीति तैयार करने जा रहा है. इस संगठन को धार्मिक महिलाओं के एक एडवोकेसी समूह फोरम ऑफ रेलीजियस फॉर जस्टिस एंड पीस की ओर से एक पत्र जिखकर बताया गया था कि यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं.
कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस के महासचिव बिशप थियोडोर मास्करेन्हास के मुताबिक इस नीति का चालू शीर्षक था 'पॉलिसी ऑन सेक्सुअल हरासमेंट इन वर्क प्लेसेज'. इसमें दूसरे कार्यस्थलों पर प्रयोग में लाई जा रही नीतियों की भी झलक होनी थी.
ड्राफ्ट में क्या होगा, उसके बारे में वे अस्पष्ट थे लेकिन उन्होंने जोर दिया कि वह चर्च के भीतर यौन उत्पीड़न को 'व्यवस्थित और समग्र' रूप से संबोधित करेगा.
कुछ और लोग हैं जिन्हें कैथोलिक चर्च की इस मंशा या उसकी संजीदगी पर कम आस्था है क्योंकि ईश्वर की गति को कोई नहीं जानता.
सितंबर में ईसाई महिलाओं के एक समूह की प्रमुख एस्ट्रिड लोबो गाजीवाला ने हैदराबाद में ईसाई महिला समूहों की एक बैठक में कहा था कि पीड़ितों को कैथोलिक चर्च के दायरे से बाहर निकलकर कानून का रास्ता लेना चाहिए.
बैठक का अंत इस निर्णय के साथ हुआ कि इंडियन क्रिश्चियन विमेंस मूवमेंट के मातहत एक कानूनी सब-कमेटी का गठन किया जाए जो यौन उत्पीड़न और हमले के मामलों को दर्ज करने का काम करे, इसके पीड़ितों को परामर्श दे और यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए नए प्रोटोकॉल लेकर आए.
पिछले साल इस मसले पर एक फिल्म बनी जिसका नाम था स्पॉटलाइट. इस फिल्म पहली बार बॉस्टन के रोमन कैथोलिक पादरियों द्वारा दशकों से किए जा रहे बाल उत्पीड़न को छुपाए जाने की कहानी को बड़े परदे पर उतार दिया.
फिल्म जब प्रदर्शित हुई, तब बॉस्टन के आर्चडायोसीज ने मीडिया से कहा कि आज की तारीख में कोई उत्पीड़न नहीं हो रहा है.
इस बयान पर उतना ही विश्वास किया जा सकता था जितना इस अप्रैल में कॉन्फ्रेंस ऑफ डायोसीजन प्रीस्ट्स ऑफ इंडिया के अध्यक्ष फिलेमन डॉस के आए उस बयान पर, कि 'भारत में (बाल यौन उत्पीड़न) बहुत ज्यादा नहीं है, हो सकता है विदेश में हो (जो कि है).'
यह बात अपने आप में परेशान करने वाली है कि यौन उत्पीड़न को छुपाने में संलिप्त बिशपों को जवाबदेह ठहराने और संबोधित करने के लिए वेटिकन ने 2015 में जाकर औपचारिक रूप से एक चर्च ट्रिब्यूनल का गठन किया.
हो सकता है कि सितंबर के अंत में कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस द्वारा यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए तैयार किए गए दिशानिर्देश दूसरे कार्यस्थलों की नीतियों के समान हों, लेकिन शालिनी मुलक्कल की मानें तो फिलहाल हालात यही हैं कि ननें आसपास की वर्जनाओं के डर से ऐसे मामलों को सामने नहीं ला पाती हैं.
जब वे ऐसा करती हैं, तो प्रभारी बिशप यौन उत्पीड़न के दोषी पादरी का तबादला करने या उसे परामर्श देने से ज्यादा कुछ नहीं करते. सबसे बुरा तब होता है जब ऐसे अपराधियों को दंड के नाम पर रोम में छुट्टी मनाने के लिए भेज दिया जाता है.
साभार- दि लेडीज फिंगर
दि लेडीज फिंगर (टीएलएफ) महिलाओं की एक ऑनलाइन पत्रिका है.