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भारतीय सही मायनों में राष्ट्रभक्त और स्वाभिमानी क्यों नहीं है?

हम भारतीय जो स्वभावत: राष्ट्रभक्त थे, उन्हें भ्रष्ट कानून और न्याय व्यवस्था ने राज्यद्रोही बना दिया

Atul Sharma

इंसान बोलना एक से डेढ़ साल में सीखता है. लेकिन क्या बोलना है और कब बोलना है, यह सीखने में कभी-कभी सारी जिंदगी लग जाती है. यह सीखने सिखाने की परवाह भी बहुत कम लोग करते हैं.

भारतीय परंपरा में यह परवाह की जाती थी लेकिन इंडिया ने सिर्फ बोलना ही सीखा. समाज ने संवाद छोड़ वाद-विवाद को वार्तालाप का माध्यम बना लिया और अब तो उससे भी आगे अनर्गल प्रलाप की ओर बढ़ रहा है. जेएनयू हो या जम्हूरियत, आजादी, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रद्रोह पर तमाम चर्चा अनर्गल प्रलाप ही लगती है.


बेवजह बोलने का यह कैसा चलन?

राष्ट्रद्रोह को समझने के लिये राष्ट्र और राज्य का भेद समझना ज़रूरी है. राष्ट्र बनता है मूल्यों,परम्पराओं और विरासत से और राज्य बनता है व्यवस्था व न्यायप्रणाली से. राष्ट्र एक विचारधारा है और राज्य एक व्यवस्था.

इसीलिए विदेशी शासक राज्य हासिल करने में तो सफल रहे लेकिन राष्ट्र को मिटा न सके. बल्कि मुसलमान शासकों से पहले के विदेशी शासक तो यहां की संस्कृति में घुल मिल गए. मुस्लिम शासन काल में अगर औरंगजेब जैसे शासक हुए तो अकबर,रहीम, दारा शिकोह और मलिक मुहम्मद जायसी जैसे भी हुए.

मुसलमान क्यूं देश से दूर?

मुसलमान आज अगर भारतीयता से दूर हो रहा है तो इसमें मुस्लिम कट्टरवाद से ज्यादा दोष हिन्दुओं में आत्मग्लानि के भाव का है. अंग्रेज इसका अपवाद रहे. उन्होंने राज्य भी हासिल किया और राष्ट्र को भी स्थाई चोट पहुंचाई. राज्य तो वापस मिल गया किन्तु राष्ट्र हाथ से फिसलता ही जा रहा है.

विविधता में एकता - यह जुमला जब से होश संभाला है, सुनते आ रहे हैं. विविधता दिखलाई भी देती हैं और समझ भी आती हैं पर एकता क्या है यह न कोई जानता है और न ही जानने का कोई प्रयास हो रहा है.

विविधता की सूची में वे तमाम मुद्दे जुड़ते जा रहे हैं जो 'एकता' को दीमक की तरह खोखला करते जा रहे है और हम अनभिज्ञ और बेपरवाह हैं इसके अंजाम से.

क्या है विविधता और एकता? 

विविधता थी हमारी वेशभूषा, खानपान, भाषा, उत्सव और त्यौहार. स्थान बदलने पर मौसम की तरह यह सब बदल जाते थे. परन्तु हमारे मूल्य, परंपरा और विरासत एक थे. 'एकता' थी हमारी संस्कृति. वह सबसे मजबूत आंतरिक बंधन था जो हमें बाहरी विविधताओं के बावजूद एक किए रहता था.

भारत एक राष्ट्र था क्योंकि काबुल से कामरूप तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक संस्कृति एक थी. वेशभूषा, खानपान, भाषा और यहां तक कि राज्य भी अलग अलग थे पर राष्ट्र एक था. इस 'विविधता में एकता' में जो एकता है वह है हमारी संस्कृति.

और संस्कृति क्या है ?

संस्कृति और Culture पर्यायवाची शब्द नहीं हैं. संस्कृति बहुत व्यापक व गहन शब्द है. इसका आशय उन तौर तरीकों, परंपराओं और नियमों से है जो समाज द्वारा इस उद्देश्य से अपनाये और व्यवहार में लाये गये ताकि ईश्वर की बनाई प्रकृति में बेहतरी लायी जा सके और उसके विनाश को रोका जा सके.

इस प्रकृति में इंसानी प्रकृति भी शामिल है. इसीलिये प्रकृति को नष्ट करने वाली सोच विकृति कहलायी और उसे बेहतर करने वाली सोच व कार्यप्रणाली संस्कृति कहलायी. ज्ञान और विज्ञान के संगम से जो सोच निकली वह संस्कृति कहलायी. विज्ञान यानी जो दिखलाई देता है उसे जानना और ज्ञान यानी जो देखता है उसे जानना.

परन्तु आज उलट ही हो रहा है. विविधताएं एक सी होती जा रही हैं - वेशभूषा, खानपान, भाषा और उत्सव न केवल राष्ट्रीय स्तर पर एक से हो रहे है बल्कि अंतरराष्ट्रीय भी होते जा रहे हैं. और हम अब्दुल्ला बने बेगानी शादियों में दीवाने हुए जा रहे हैं. और एकता यानी संस्कृति भिन्न भिन्न होती जा रही है.

नए नए भगवान प्रकट हो रहे हैं और धर्मगुरुओं में कुछ अलग करने की होड़ लगी हुई है. सामान्य जन अपना विवेक खो कर संस्कृति को फैशन की तरह बदल रहा है. एकता विविधताओं में बदल रही है और विविधता एक सी हो रही है. राष्ट्र छिन्न भिन्न हो रहा है.

ऐसे माहौल में राष्ट्रद्रोह ?

आजकल राष्ट्रद्रोह को अपराध नहीं बल्कि बुद्धिजीवी एवं प्रगतिशील होने का प्रमाण माना जाता है. क्योंकि हमें अपनी जननी,जन्मभूमि और मातृभाषा पर गर्व तो दूर, इनके प्रति सम्मान का भाव भी नहीं है. इसीलिये राष्ट्रभक्ति आज बाह्य चिन्ह यानी दिखावे तक सीमित रह गयी है.

महा शक्ति बनने का दिवास्वप्न हम भी देखने लगे हैं पर हम यह सोचना जरूरी नहीं समझते कि महाशक्ति वही राष्ट्र बन सका जिसकी व्यवहार की भाषा उसकी मातृभाषा है, उसके अधिकांश नागरिक ईमानदारी व अनुशासन में यक़ीं रखते है और जिन्हें अपने राष्ट्र पर गर्व है.

भीख और लूट का राजद्रोह से नाता

अब राजद्रोह की बात हो जाये. महाभारत में मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को कहते हैं कि राष्ट्र निर्माण के लिये नागरिकों का स्वाभिमानी होना आवश्यक है और स्वाभिमानी वही हो सकता है जो भीख और लूट में विश्वास न करता हो.

आज के परिपेक्ष में भीख यानी सब्सिडी और लूट यानी भ्रष्टाचार. हमारी सरकारों ने देश के सर्वोच्च उद्योगपति और व्यापारियों से लेकर गरीब किसानों और मजदूरों को मन्त्रालयों से लेकर राशन की दुकानों में खड़ा कर सब्सिडी यानी भीख वितरण का ही कार्य किया है. इस वितरण के तन्त्र से भ्रष्टाचार का रक्तबीज रूपी दानव पैदा किया है.

देश का हर नागरिक इन दोनों बीमारियों से अछूता नहीं रहा. भ्रष्ट कानून व्यवस्था एवं भ्रष्ट न्याय व्यवस्था ने हर नागरिक को विवश कर कहीं न कहीं राजद्रोह का दोषी बना दिया है.

हम ऐसे क्यों बन बैठे ?

अमरीका के लोग स्वभावत: कानून का उल्लंघन करने वाले लोग थे लेकिन वहां की स्वच्छ कानून और न्याय व्यवस्था ने उन्हें राज्यभक्त बना दिया और हम भारतीय जो स्वभावत: राष्ट्रभक्त थे, उन्हें भ्रष्ट कानून और न्याय व्यवस्था ने राज्यद्रोही बना दिया.

राष्ट्रभक्ति के लिये संस्कार व राजभक्ति के लिए स्वच्छ कानून व न्याय व्यवस्था की आवश्यकता है. नारे, झण्डे व कपड़ों के रंग से तब तक कुछ हासिल नहीं होना जब तक नागरिक संस्कारवान नहीं होगे और कानून व न्याय व्यवस्था स्वच्छ नहीं होगी.