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'कैद तोते' को किसने मारा? वर्मा-अस्थाना के बीच जंग की पूरी दास्तान क्या है

अब जबकि तोता मर चुका है, तो उसकी लाश का पोस्टमॉर्टम जरूर होना चाहिए. साथ ही पिंजरे को भी फेंक दिया जाना चाहिए. तभी कोई बदलाव मुमकिन होगा

Praveen Swami

बात 1977 की गर्मियों की है. इंदिरा गांधी की लगाई हुई इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी. तभी इस प्रहसन के एक छोटे से किरदार ने स्टेज पर खड़े होकर इसका अजीबोगरीब तरीके से उपसंहार किया. दिल्ली में स्पेशल जज के सामने जो शख्स पेश हुआ, वो दुबला सा, बहुत नरमी से पेश आने वाले इंसान थे कृषि मंत्रालय के उप आयुक्त. सीबीआई ने उन पर आरोप लगाया था कि उपायुक्त के पास 44 लाख 86 हजार साठ रुपए और तीस पैसे की ऐसी रकम थी, जिसका कोई हिसाब नहीं था. उस दौर में जब डबल सेवेन कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल एक रुपए में मिल जाती थी, तो ये बहुत बड़ी रकम थी. इस पैसे से दिल्ली के वसंत विहार और ग्रेटर कैलाश इलाक़ों में शानदार संपत्तियां खरीदी गई थीं.

उपायुक्त जेसी वर्मा के इस मामले में इतने पेंच-ओ-खम देखने को मिले कि फन्ने खां स्क्रिप्टराइटर मात खा जाएं. किसे पता था कि एक दिन उन्हीं जे.सी. वर्मा के बेटे सीबीआई के निदेशक बनेंगे और उनके राज में जांच एजेंसी गृह युद्ध की शिकार हो जाएगी.


सभी अच्छे नाटकों की तरह सीबीआई की जंग में भी हीरो और विलेन हैं. समर्थकों की नजर में आलोक वर्मा एक ऐसी सरकार के शिकार बन गए हैं, जो किसी भी कीमत पर राफेल सौदे की जांच रोकना चाहती है. वहीं वर्मा के विरोधी ये मानते हैं कि शहादत का सेहरा उनके धुर विरोधी और मातहत अधिकारी राकेश अस्थाना के सिर बंधना चाहिए.

वो सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस ए.के. पटनायक ही थे, जिन्होंने सीबीआई को 'पिंजरे में बंद तोता' कहा था. अब वही पटनायक उन आरोपों की जांच की निगरानी कर रहे हैं, जो आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना ने एक-दूसरे पर लगाए हैं. सीबीआई दरअसल पिंजरे में बंद तोता भी नहीं. बल्कि ये तो सजा-धजाकर, रंग-रोगन कर के तैयार किया गया कपट का पुतला है, जिसमें ऐसी मशीनें लगा दी गई हैं, जिनकी मदद से वो कभी-कभार चीख-पुकार मचाता है, उछल-कूद करता है. सीबीआई की ये गति पिछले कई दशकों से है.

रिटायर्ड जस्टिस ए.के. पटनायक

हिरासत में लिए गए बयानों की अदालत में कोई अहमियत नहीं होती. मगर, इनसे अलग-अलग तरह के माहौल बनाने में मदद मिलती है. दिक्कत ये है कि इनसे हकीकत बयां नहीं होती. सच तो ये है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का कमोबेश हर बड़ा अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपों की जद में है. ये ही सीबीआई की कड़वी हकीकत है. आज दो बड़े और ताकतवर अधिकारियों के गैंग सत्ता के लिए आपस में भिड़े हुए हैं.

गृह युद्ध के पीछे की कहानी क्या है?

1957 में जन्मे आलोक वर्मा की शुरुआती जिंदगी करोल बाग की एक सरकारी कॉलोनी में बीती है. उन्होंने दिल्ली के सेंट जेवियर कॉलेज, सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पढ़ाई की.

आलोक वर्मा 1979 में आईपीएस बने. उनके करियर में कोई ऐसी बात नहीं, जो उन्हें भीड़ से अलग करे. 2011-12 में सतर्कता आयुक्त रहने और 2012 में पांच महीने तक दिल्ली पुलिस की खुफिया शाखा के चीफ रहने के सिवा, वर्मा अपने पूरे करियर में किसी ऐसे अहम पद पर नहीं रहे, जिससे उन्हें भ्रष्टाचार के मामलों की जांच का खास तजुर्बा हुआ हो. आलोक वर्मा 1995 से 2011 तक नई दिल्ली में हथकरघा मंत्रालय में तैनात रहे थे. ये उनकी किसी भी पद पर सब से लंबी पोस्टिंग थी.

लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने आलोक वर्मा को सीबीआई का प्रमुख बनाए जाने का विरोध करते हुए तीन पन्ने का नोट लिखा था. इसमें खड़गे ने कहा था, 'सीबीआई का प्रमुख एक ऐसे अधिकारी को बनाया जाना जरूरी है, जो दूसरे उम्मीदवारों से कहीं बेहतर हो, विश्वसनीय हो और जिसके पास भ्रष्टाचार की जांच का तजुर्बा हो.'

उस वक्त सीबीआई में सबसे सीनियर अधिकारी थे रूपक दत्ता. दत्ता ने तब तक सीबीआई में करीब 17 साल बिताए थे. उससे पहले रूपक दत्ता ने कर्नाटक के लोकायुक्त रहे जस्टिस एन संतोष हेगड़े के साथ करीब साढ़े तीन साल तक काम किया था. लेकिन, जस्टिस हेगड़े ने 2011 में उस वक्त की बीजेपी की कर्नाटक सरकार से टकराव के बाद लोकायुक्त के पद से इस्तीफा दे दिया. तो, दत्ता को इस साथ की कीमत चुकानी पड़ी. सीबीआई प्रमुख के लिए राकेश अस्थाना नरेंद्र मोदी की पहली पसंद थे. वो गुजरात के दिनों से ही मोदी के करीबी अफसर थे. पर, दिक्कत ये थी कि अस्थाना के पास सीबीआई प्रमुख बनने के लिए जरूरी वरिष्ठता नहीं थी.

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए सीबीआई ने अक्सर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी लोगों को निशाना बनाया था-खास तौर से अमित शाह को. मोदी सरकार इसका बदला लेने के लिए चाहती थी कि आलोक वर्मा यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए दो मामलों की वैसे ही जांच करें. पहला केस था दिल्ली के कारोबारी मोईन कुरैशी के खिलाफ सीबीआई जांच का. कुरैशी को सोनिया गांधी के करीबी अहमद पटेल का आदमी माना जाता है. मोदी सरकार जिस दूसरे केस में जांच एजेंसियों से तेजी दिखाने की उम्मीद कर रही थी, वो पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम और उनके बेटे कार्ति चिदंबरम से जुड़ा है. इसकी जांच प्रवर्तन निदेशालय के चीफ रहे करनैल सिंह और उनके मातहत राजेश्वर सिंह कर रहे थे.

आलोक वर्मा की नियुक्ति के कुछ ही हफ्तों के भीतर इन मामलों की जांच कर रहे अधिकारियों के बीच जंग छिड़ गई. अधिकारियों ने इस मामले में सियासी हुक्मरानों को भी घसीट लिया.

पूरी कहानी प्रवर्तन निदेशालय में नंबर दो की हैसियत रखने वाले राजेश्वर सिंह के इर्द-गिर्द घूमती है. राजेश्वर सिंह ने डीएसपी के तौर पर प्रवर्तन निदेशालय में कदम रखा था. उन्होंने बड़ी तेजी से तरक्की की. देखते ही देखते राजेश्वर सिंह बहुत ताकतवर अधिकारी बन गए. उन्हें इस बात से भी मदद मिली जब सुप्रीम कोर्ट ने चिदंबरम के मामले की जांच में दखलंदाजी पर चिंता जताई.

यूं तो राजेश्वर सिंह भ्रष्टाचार विरोधी मामलों की जांच कर रहे थे. लेकिन उनके कई नेताओं से नजदीकी संबंध हैं.

2013 में कांग्रेस नेता अहमद पटेल और कानून मंत्री कपिल सिब्बल राजेश्वर सिंह के बेटे की पांचवीं सालगिरह के कार्यक्रम में पहुंचे थे. 2017 की शुरुआत में जब राकेश अस्थाना सीबीआई के कार्यवाहक निदेशक थे, तो सीबीआई की अंदरूनी सतर्कता यूनिट ने तीन अधिकारियों की नियुक्ति पर रोक लगा दी थी. ये अधिकारी थे-राजेंदर उपाध्याय, राजीव कृष्ण और मीनाक्षी कृष्ण. सीबीआई की विजिलेंस यूनिट ने इन अधिकारियों की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे. राजेंदर उपाध्याय के बारे में कहा जाता है कि वो तब से आलोक वर्मा के करीबी थे, जब वर्मा दिल्ली के पुलिस कमिश्नर थे.

इससे भी अहम बात थी मीनाक्षी कृष्ण की तैनाती. मीनाक्षी जो कि राजीव कृष्ण की पत्नी हैं, वो राजेश्वर सिंह की बहन हैं. आलोक वर्मा की तमाम कोशिशों के बावजूद, राकेश अस्थाना इन तीनों अधिकारियों को सीबीआई से दूर रखने में कामयाब रहे थे.

अस्थाना के एक साथी कहते हैं, 'हो सकता है कि अस्थाना पीछे हट जाते और इन अधिकारियों की सीबीआई में तैनाती हो जाने देते. लेकिन उनका अहम आड़े आ गया.'

पिछले साल अगस्त में जब राकेश अस्थाना को सीबीआई का स्पेशल डायरेक्टर बनाया जाने वाला था, तब आलोक वर्मा ने पलटवार किया. आलोक वर्मा ने सरकार को आगाह किया कि अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच चल रही है. ऐसे में वो प्रमोशन के लायक नहीं हैं. ये आरोप स्टर्लिंग बायोटेक कंपनी से रिश्वत लेने के हैं. स्टर्लिंग बायोटेक कंपनी नितिन संदेसरा, चेतन संदेसरा, दीप्ति संदेसरा और हिदेश पटेल की है. आरोपों के घेरे में आने के बाद ये चारों ही देश छोड़ कर भाग चुके हैं.

संदेसरा परिवार से अस्थाना के रिश्ते जगजाहिर हैं. परिवार के सूत्र बताते हैं कि 2011 में अस्थाना ने संदेसरा परिवार का एक संवेदनशील विवाद सुलझाने में मदद की थी. इसके बाद अस्थाना के बेटे ने स्टर्लिंग बायोटेक में इंटर्नशिप भी की थी. हालांकि जब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने गया, तो अदालत को अस्थाना पर लगे आरोपों से जुड़े सबूतों में दम नहीं लगा. अस्थाना का प्रमोशन तो हो गया, मगर उनके और आलोक वर्मा के बीच लड़ाई और तेज हो गई.

अक्टूबर 2017 में रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग यानी रॉ ने दो पेज का नोट जारी किया, जिसमें कहा गया कि ईडी के अधिकारी राजेश्वर सिंह ने आईएसआई के एजेंट मुहम्मद आलम दानिश शाह को कम से कम एक बार फोन किया था. रॉ के नोट पर हंगामा मच गया. राजेश्वर सिंह ने कहा कि ये कॉल शाह की तरफ से आई थी और 'एक मामले में अहम जानकारी देने के लिए की गई थी.'

सरकार के सूत्र बताते हैं कि राजेश्वर सिंह ने निजी तौर पर ये माना था कि वो आलम दानिश शाह को बचपन से जानते थे. राजेश्वर सिंह ने ये सवाल भी उठाया कि शाह जब कई बार भारत आ चुका है, तो इस दौरान आईएसआई एजेंट होने के शक के बावजूद उस से पूछताछ क्यों नहीं हुई? रॉ के चीफ अनिल धस्माना को आरोपों की जांच करने को कहा गया. बाद में वो आरोप वापस ले लिए गए.

प्रवर्तन निदेशालय के बॉस करनैल सिंह और राजेश्वर सिंह ने पूरे विवाद के लिए सामंत गोयल नाम के अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया, जिसने ये खुफिया जानकारी जुटाई थी. सामंत गोयल पंजाब पुलिस में रह चुके हैं. वो फिलहाल रॉ में पश्चिमी एशिया का काम-काज देखते हैं. गोयल राकेश अस्थाना के बैच के अधिकारी भी हैं और उनके करीबी दोस्त भी.

करनैल सिंह और राजेश्वर सिंह का मानना था कि सामंत गोयल ने अपने दोस्त अस्थाना की मदद के लिए ये काम किया था. बदले में गोयल को शायद ये उम्मीद थी कि जब रॉ के नए चीफ की नियुक्ति का टाइम आएगा, तो अस्थाना उन्हें दो सीनियर अधिकारियों को पछाड़कर रॉ का प्रमुख बनने में मदद करेंगे.

राजेश्वर सिंह ने वित्त सचिव हंसमुख अधिया को चिट्टी लिख कर विवाद को और बढ़ा दिया. राजेश्वर सिंह ने चिट्ठी में अधिया पर 'भ्रष्ट अधिकारियों का साथ देने' का आरोप लगाया. वहीं सीबीआई ने गोयल और अस्थाना के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कर ली. इसमें रॉ के अधिकारी पर अपने दोस्त और बैच के साथी सीबीआई अधिकारी अस्थाना के लिए वसूली करने का आरोप लगाया गया.

इसके बदले में अस्थाना ने सीवीसी को चिट्ठी लिख कर आरोप लगाया कि मोईन कुरैशी से जुड़े कारोबारी सतीश बाबू सना ने मामले से छुटकारा पाने के लिए दो करोड़ रुपए की रिश्वत दी. अस्थाना ने लिखा कि सना ने तेलुगू देसम पार्टी के एक नेता के जरिए आलोक वर्मा को 'साध लिया'.

इस मामले में जल्द ही तमाम राजनेताओं में भी खेमेबंदी हो गई, वर्मा और राजेश्वर सिंह को राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का समर्थन मिल गया. स्वामी की वित्त मंत्री अरुण जेटली से लंबे वक्त से सियासी जंग चल रही है. वहीं अरुण जेटली और हंसमुख अधिया ने ये संघर्ष खत्म करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी से मदद मांगी.

मोदी ने अधिकारियों की इस जंग में युद्ध विराम के लिए पुरजोर कोशिश की मगर नाकाम रहे. आलोक वर्मा राफेल सौदे की जांच को भी इस गृह युद्ध में हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं. इस डर ने मोदी के हाथ बांध दिए.

तोते को किसने मारा ?

'मेहनत, निष्पक्षता और विश्वसनीयता. यही तीन मंत्र काम में आपकी राह दिखाएंगे.' ये बात सीबीआई के संस्थापक निदेशक धर्मनाथ कोहली ने उस चिट्ठी मे लिखी थी, जो उन्होंने मई 1968 में पांच साल सीबीआई प्रमुख रहने के बाद रिटायरमेंट के दौरान लिखी थी. उस दौर में, देश की आजादी के बाद भारत ने पहली बार घोटालों का दौर देखना शुरू किया था.

इन घोटालों की वजह से देश में सियासी उथल-पुथल मच गई थी. जीवन बीमा निगम के अनैतिक निवेशों की वजह से वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी. खान मंत्री के.डी. मालवीय, कोलकाता की एक कंपनी को अवैध रूप से मदद पहुंचाते पकड़े गए थे. पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिह कैरों को वित्तीय धांधली के आरोप के बाद इस्तीफा देना पड़ा था.

ऐसे टकराव होने तय थे क्योंकि देश में एक राजनीतिक व्यवस्था अभी बनने की प्रक्रिया से ही गुजर रही थी. स्थानीय तौर पर कद्दावर लोगों पर इस बात का दबाव था कि वो केंद्रीय नेतृत्व के आगे घुटने टेक दें. इसके बदले में उन्हें धन-संपत्ति और सुविधाएं देने का लालच दिया जा रहा था. बाहरी लोगों को ये सुविधाएं देने के एवज में अफसर हफ्ता वसूली कर रहे थे.

प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी ने सीबीआई को निजी लड़ाइयों का छापामार दस्ता बना दिया. उनके राज में सीबीआई निदेशक डी सेन, इस गैंग के सरदार बन गए. एक मामला ऐसा भी आया, जिसमें चार जूनियर अधिकारियों के यहां इसलिए छापे मारे गए, क्योंकि वो इंदिरा गांधी के बेटे के कारोबार की जानकारी संसद को देने के लिए जुटा रहे थे. तो इन अधिकारियों को आमदनी से ज्यादा संपत्ति रखने के आरोप में निशाना बनाया गया. हालांकि बाद में ये आरोप टिक नहीं सके. पर, इस हिट स्क्वॉड के हमले का नतीजा ये हुआ कि चारों अधिकारियों का करियर तबाह हो गया.

जनता पार्टी की सरकार तीन साल से भी कम वक्त तक सत्ता में रही. इस दौरान सीबीआई ने चार अधिकारियों को निदेशक बनते देखा. एस एन माथुर, सीवी नरसिम्हन, जॉन लोबो और आर डी सिंह. इस दौरान इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ मामले देखने को लेकर सीबीआई के अधिकारियों के बीच जंग छिड़ी रही.

प्रधानमंत्री राजीव गांधी के राज में सीबीआई निदेशक रहे, मोहन कत्रे ने कई घोटालों की जांच में पलीता लगाया. सीबीआई ने एयरबस ए-320 विमानों की खरीद में हुए घोटाले में किसी भी नेता को रिश्वत लेने का आरोपी नहीं बनाया. कत्रे ने ये सुनिश्चित किया कि विन चड्ढा के खिलाफ कोई आरोप न लगे. विन चड्ढा भारत में बोफोर्स के एजेंट थे.

बोफोर्स घोटाले की जांच के लिए जो टीम बनी थी, उसे प्रधानमंत्री बनते ही चंद्रशेखर ने हटा दिया. सिलसिला यूं ही जारी रहा. जब 1991 के शेयर बाजार घोटाले की जांच के दौरान संदिग्ध अधिकारियों की जांच होने लगी, तो उस वक्त के सीबीआई निदेशक एसके दत्ता को सरकार की नाराजगी झेलनी पड़ी. उनके बाद सीबीआई प्रमुख बने, के विजय रामाराव पर आरोप है कि उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर कांग्रेस में नरसिम्हा राव के विरोधियों का मुंह बंद किया.

एच.डी. देवेगौड़ा ने जोगिंदर सिंह को खुद चुन कर सीबीआई का प्रमुख बनाया. लेकिन उन्हें इसलिए हटा दिया गया, क्योंकि वो देवेगौड़ा सरकार के एक अहम सहयोगी बिहार के सीएम लालू प्रसाद के खिलाफ जांच करने लगे थे.

अमित शाह को परेशान करने के लिए मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के मामलों की भी अनदेखी करने को तैयार थी. पिछले साल पूर्व सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा पर आरोप लगा कि उन्होंने कोयला घोटाले की जांच को नुकसान पहुंचाया. एक और पूर्व सीबीआई निदेशक अमर प्रताप सिंह के खिलाफ कांग्रेस से जुड़े कारोबारी से संबंध रखने की जांच चल रही है.

मोदी सरकार ने भी यही किया और इसके वैसे ही नतीजे भी सामने आए. अगर अस्थाना और वर्मा एक दूसरे के खिलाफ जो आरोप लगा रहे हैं,वो सच हैं, तो सरकार इस बात के लिए जिम्मेदार है कि उसने वर्दीधारी अपराधियों को नियुक्त किया और उन्हें बढ़ावा दिया. अगर दोनों के आरोप गलत हैं, तो सरकार इस बात की जिम्मेदार है कि उसने सनकी और पागल लोगों को अहम संस्था में तैनात किया. इस कीचड़ से प्रधानमंत्री मोदी बेदाग नहीं निकल सकते हैं.

पांच दशक पहले जब आलोक वर्मा कॉलेज में थे, तब गृह मंत्री वाई बी चव्हाण ने वादा किया था कि वो सीबीआई को नियंत्रित करने के लिए एक नया कानून बनाएंगे. 1978 में एलपी सिंह कमेटी ने सीबीआई का काम-काज सुधारने के लिए कई सुझाव दिए. 1991-92 में संसद की एक स्थायी समिति ने सीबीआई को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया.

लेकिन, किसी भी सरकार ने इन वादों को पूरा करने की नीयत और मजबूत इरादे नहीं दिखाए. शायद मौकापरस्ती हर सिद्धांत पर भारी पड़ती है.

अब जबकि तोता मर चुका है, तो उसकी लाश का पोस्टमॉर्टम जरूर होना चाहिए. साथ ही पिंजरे को भी फेंक दिया जाना चाहिए. तभी कोई बदलाव मुमकिन होगा. लेकिन, हम सियासी नेतृत्व में ऐसी इच्छाशक्ति का कोई संकेत नहीं देखते हैं.