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प्रद्युम्न के वकील का कॉलम : नाबालिगों में लगातार बढ़ रही आक्रामकता की क्या है वजह?

युवाओं में लगातार बढ़ रही आक्रामकता और कमजोर कानून की वजह से न्याय की उम्मीद कर रहे लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं

Sushil K Tekriwal

किशोर अपराध की जघन्यता और हर दिन इसके खतरनाक रूप लेने को लेकर दो ताजा तरीन घटनाएं सुर्खियों में छाई रहीं. किशोरों का एक समूह एक व्यक्ति और उसके पुत्र पर धारदार चाकू से निरंतर और अंधाधुंध कातिलाना वार करता रहा. पीड़ित व्यक्ति का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने किसी किशोर से कहासुनी होने पर उसे एक थप्पड़ जड़ दिया था.

दूसरी घटना में दो किशोरों ने मिलकर 22 साल के एक नवयुवक की जान ले ली. इस जघन्य और बर्बर घटना की वजह केवल यह थी कि तीन साल पहले मृतक और अभियोगी के बीच कहासुनी हुई थी. अभियोगी तब से ही जान से मारने की योजना पर काम कर रहा था.


किशोरों में क्यों बढ़ रही है आक्रामकता!

किशोरों में लगातार बढ़ रही आक्रामकता निस्संदेह खतरनाक स्तर पर जा रही है. इसका एक कारण यह भी है कि इन घटनाओं से निपटने के लिए बना नया कानून कई मायनों में दंतहीन है. कई यूरोपीय देशों में बारह साल से ज्यादा उम्र वाले किशोर अपराधियों को युवा अदालतों और व्यस्क अदालतों में पेश किया जाता है.

इन्हीं अदालतों में उनपर मुकदमा चलाया जाता है. हाल तक यूएसए में खतरनाक अपराधों में लिप्त 16 साल के किशोर अपराधी को भी फांसी की सजा तक दी गई है. यह और बात है कि हाल ही में आए यहां के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केवल फांसी की सजा रोक दी गई है.

कैसे हैं भारत के कानून?

इसके विपरीत भारत में किशोर अपराधों से निपटने के लिए बना नया कानून कई मायनों में जटिल है. साथ में कई खामियां भी हैं. इस कानून पर विस्तार से चर्चा आज काफी प्रासंगिक हो गई है. यह चर्चा इसीलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि किशोरों द्वारा किए जा रहे अपराधों में लगातार तेजी आ रही है.

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एक शोध के मुताबिक 16 से 18 साल की उम्र के साथ-साथ 14 से 16 साल तक के किशोर भी कई खूंखार अपराधों को अंजाम दे रहे हैं. इनके द्वारा किए जा रहे अपराधों में 45 प्रतिशत से ज्यादा तेजी आई है. किशोरों द्वारा हत्या और बलात्कार जैसी घिनौनी और बर्बर घटनाओं का ग्राफ दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है.

प्राकृतिक बदलाव का असर?

ब्रिटेन के गार्डियन अखबार में विस्तार से प्रकाशित एक शोध पत्र की यदि मानें तो वैश्विक स्तर पर बढ़ रही गर्मी ने मानव शरीर में बड़ा परिवर्तन किया है. साठ और सत्तर के दशक के मुकाबले किशोरों का शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विकास काफी तेजी से हो रहा है.

किशोरों के युवा होने की औसतन उम्र सीमा भी काफी बदल गई है. यह औसतन उम्र सीमा अब आठ से दस साल के बीच शुरू हो जाती है. किशोरों में तेजी से कम उम्र में ही हार्मोन से संबंधित बदलाव आ रहे हैं जिसका सीधा असर उनके शारीरिक और मानसिक क्षमता पर है. साथ में यह बदलाव उनके स्वभाव मे आ रही आक्रामकता पर भी है.

ऐसे में कानून की वैज्ञानिकता तभी तय होती है जब बदलती हुई परिस्थितियों में कानून को ढाला जाता है. तभी समय के साथ इसकी प्रासंगिकता और सारगर्भितता भी बनी रहती है. इसी पृष्ठभूमि में भारत में जघन्य अपराधों में शामिल किशोरों के खिलाफ वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलाने के लिए बने नए कानून की समुचित व्याख्या अनिवार्य हो गई है.

क्या है कानून?

दरअसल किशोर न्याय (बालकों की देखरेख) और संरक्षण अधिनियम, 2015 के नाम से जघन्य अपराधों में शामिल 16 से 18 साल के किशोरों के खिलाफ वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलाने के लिए बना कानून अभी अपनी शैशव अवस्था में है. यह कानून 15 जनवरी 2016 से लागू हुआ है.

इस नए कानून की तहरीर निर्भया कांड के बाद लिखी गई. इस कानून को अभी कई अग्नि परीक्षाओं से गुजरना होगा. इस कानून ने हालांकि उन लाखों परिवारों के लिए एक गंभीर आस जगाई है जो किशोरों द्वारा अंजाम दिए गए बर्बर अपराधों से पीड़ित हैं.

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस कानून की बारीकियों को समझना काफी जरूरी हो गया है. हाल ही में प्रद्यूम्न हत्याकांड मामले में आरोपी नाबालिग पर बालिग की तरह मुकदमा चलाने का आदेश दिया गया है. लेकिन कई मामलों में इस कानून की लचरता और लाचारगी भी सामने आती है.

भले ही जघन्य अपराधों में शामिल 16 से 18 साल के किशोरों के खिलाफ वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलाने का स्पष्ट प्रावधान इस नए कानून के माध्यम से किया गया है लेकिन फिर भी ऐसे अपराधियों को उम्रकैद या मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती. साथ ही उसे ऐसी सजा भी नहीं दी जाएगी, जिसमें उसके जेल से बाहर आने की उम्मीद न हो.

इस नए कानून की धारा 21 के तहत गंभीर अपराधों में लिप्त ऐसे किशोरों को उम्रकैद या मृत्युदंड की सजा देने पर रोक है. साथ ही गंभीर अपराधों में लिप्त ऐसे किशोरों को 21 साल की उम्र तक जेल नहीं भेजा जाएगा. उन्हें बाल सुधार गृह में ही रखा जाएगा. इस नए कानून में धारा 21 के प्रावधान का जिक्र यहां इसीलिए जरूरी है क्योंकि सामान्य व्यस्क अपराधियों के लिए भारतीय दंड संहिता में हत्या के मामलों में उम्रकैद या फांसी की सजा तक का प्रावधान है जिसे इस नए कानून से हटा दिया गया है.

क्या है उम्रकैद का मतलब?

साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई महत्वपूर्ण फैसलों में साफ कहा है कि उम्रकैद का मतलब जीवनभर की कैद होती है. यानी उम्रकैद की सजा भुगत रहा कैदी निश्चित समय के बाद अनिवार्य रिहाई की मांग नहीं कर सकता. लेकिन किशोर न्याय (बालकों की देखरेख) और संरक्षण अधिनियम, 2015 में इस कड़ी सजा पर रोक लगाई गई है. दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म कांड के एक आरोपी के नाबालिग होने के कारण कड़ी सजा से बच निकलने के बाद कानून में संशोधन की मांग उठी थी और नया कानून बनाया भी गया है.

सरकार ने काफी सोच विचार के बाद संशोधन किया. जघन्य अपराध में आरोपी 16 से 18 आयु वर्ग के किशोर पर बालिग व्यक्ति की तरह ही मुकदमा चलाने का रास्ता खोला. वहीं, ऐसा करते समय यह भी ध्यान रखा गया है कि भले ही आरोपी जघन्य अपराध में शामिल हो लेकिन उसके साथ खूंखार अपराधी जैसा व्यवहार न हो. इस नए कानून में कई लाचारगी स्पष्ट दिखती है जो समुचित न्याय पाने की राह में गंभीर रोड़ा बनेगी.

जेजे एक्ट बच्चों और किशोरों के लिए बना सुधारात्मक कानून है, इसलिए उसमें नरम रवैया अपनाया गया है और पूरे कानून में इसकी प्रतिध्वनि दिखाई देती है जबकि इस कानून को और भी ज्यादा कठोर बनाया जा सकता था.

इस नए कानून में जघन्य अपराध में आरोपी 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों पर व्यस्क के रूप में मुकदमा चलाने की प्रक्रिया भी काफी जटिल है. इस कानून की धारा 15 के तहत किसी भी जघन्य अपराध में आरोपी 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों पर व्यस्क के रूप में मुकदमा चलाने से पहले किशोर न्याय बोर्ड को एक प्रारंभिक मूल्यांकन करना होता है.

इसके लिए सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन को आधार बनाया जाता है. इस प्रारंभिक मूल्यांकन में किशोर न्याय बोर्ड को यह सुनिश्चित करना होता है कि जघन्य अपराध में आरोपी 16 से 18 आयु वर्ग का किशोर शारीरिक और मानसिक रूप से न सिर्फ अपराध करने में सक्षम है बल्कि वह इस अपराध के खतरनाक अंजामों को भी बखूबी समझने में समर्थ है.

इस जटिल प्रक्रिया के बावजूद भी यदि किशोर न्याय बोर्ड यह फैसला देता है कि किसी भी जघन्य अपराध में आरोपी 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों पर व्यस्क के रूप में मुकदमा चलेगा तो भी इस कानून की धारा 19 (1) की उपधारा 1 और 2 कहती है कि आरोपी पर बालिग की तरह मुकदमा चलाए जाने के किशोर न्याय बोर्ड के फैसले को मानने के लिए बाल सत्र न्यायालय बाध्य नहीं है. वह इसकी समीक्षा भी करेगा और दोबारा से सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन के आदेश भी जारी करेगा.

यह वाकई में काफी जटिल प्रक्रिया है जिससे एक ऐसा डर पैदा होता है कि आने वाले दिनों में यह कानून कहीं अपनी कसौटी पर खरा ही न उतरे. साथ ही धारा 101 के तहत किशोर न्याय बोर्ड के उस फैसले को किशोर सत्र न्यायालय में चुनौती भी दी जा सकती है जिस फैसले में उसे व्यस्क के रूप में मुकदमा चलाने की बात कही गई है.

कैसे काम करता है कानून?

किशोर न्याय बोर्ड का फैसला आने के बावजूद भी किशोर सत्र न्यायालय दोबारा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन रिर्पोट मंगाने के बाद उसका विस्तार से आंकलन करेगा. यह न्यायालय दो प्रकार का फैसला ले सकती है-- एक यह कि आरोपी किशोर पर बालिग की तरह अपराध प्रक्रिया कानून के प्रावधानों में मुकदमा चलाए जाने और फैसला दिए जाने की जरूरत है. यानी सामान्य आरोपी की तरह ट्रायल और फैसला हो क्योंकि अपराध प्रक्रिया कानून के प्रावधान सामान्य व्यस्क अपराधियों पर लागू होते हैं.

दूसरा यह कि आरोपी पर वयस्क की तरह मुकदमा चलाए जाने की जरूरत ही नहीं है और तब किशोर सत्र न्यायालय आरोपी पर आगे से नाबालिग की तरह ही मुकदमा चलाए जाने का आदेश दे सकती है.

इस तरह नाबालिग पर व्यस्क की तरह मुकदमा चलाने के बारे में एक और जटिल प्रक्रिया का इस कानून में प्रावधान किया गया है जिससे न्याय की आस में बैठे लाखों पीड़ित परिवार कानूनी बारीकियों और तकनीकियों में ही गोल-गोल घूमते नजर आएंगे और न्याय देने का कानून का मकसद पराजित होता दिखेगा. किशोर न्याय (बालकों की देखरेख) और संरक्षण अधिनियम, 2015 का सरलीकरण किया जाना चाहिए था जबकि हुआ इससे बिल्कुल उलट है.

इतना ही नहीं धारा 19 की उपधारा 3 कहती है कि आरोपी किशोर 21 वर्ष का होने तक सुरक्षित जगह रखा जाए. यानी उसे बाल सुधार गृह मे रखा जायेगा. 21 वर्ष के बाद उसे जेल भेजा जा सकता है या फिर छोड़ा जा सकता है.

इस बीच लगातार उसके व्यवहार को लेकर नियमित निगरानी और आंकलन होगा. साथ ही धारा 20 कहती है कि 21 वर्ष का होने के बाद भी अगर सजा बचती है तो अदालत सजा भुगतने के लिए उसे जेल भेज सकती है या फिर निगरानी प्राधिकरण की देखरेख में शर्तों के साथ रिहा कर सकती है.

साथ ही इस कानून में इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए था कि सोलह साल से कम उम्र के उन किशोरों से भी कठोरता से निबटा जाना चाहिए जो जघन्य और बर्बर घटनाओं में शामिल हैं. लेकिन इस पहलू पर यह कानून पूरी तरह से खामोश है. ऐसा लगता है कि इस काननू को वैज्ञानिकता पर तौल कर नहीं बल्कि भावनाओं को आधार बनाकर बनाया गया है जिसमें समग्र संशोधन की जरूरत जल्द ही पड़ने वाली है.

यह तय है कि किशोर न्याय (बालकों की देखरेख) और संरक्षण अधिनियम, 2015 की जटिलता आने वाले दिनों में काफी बढ़ेगी. इसके बावजूद भी हम आशा करेंगे कि जिस मकसद से यह नया कानून बनाया गया है, उस उद्देश्य को पूरा करने में यह कानून सफल साबित हो. अगर ऐसा नहीं हो पाया तो यह न्याय के सिद्धांत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तो होगा ही, साथ ही साथ न्याय की उम्मीद कर रहे पीड़ितों के लिए भी दोहरी बदकिस्मती का पैगाम होगा.