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बंगाल सांप्रदायिक हिंसा: तुष्टीकरण की राजनीति ने लोगों को बांट दिया है

आज बदुरिया में जो हो रहा है वो तुष्टीकरण की नीतियों का ही नतीजा है

Mayank Singh

पश्चिम बंगाल में तकी रोड पर जब आप कोलकाता से बांग्लादेश सीमा पर घोजाडांगा पोस्ट की तरफ बढ़ते हैं, तो इस व्यस्त हाइवे पर करीब 50 किलोमीटर चलकर बेराचंपा से एक दोराहा आता है. बाएं की ओर 14 किलोमीटर आगे चलते हुए आप बदुरिया कस्बे पहुंच जाते हैं.

बदुरिया की आबादी करीब ढाई लाख है. इन दिनों ये कस्बा पूरे देश में चर्चा में है. हाल ही में यहां हुए सांप्रदायिक दंगों की वजह से इसकी चर्चा हो रही है. बदुरिया की हिंसा का असर न केवल पूरे देश के सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ सकता है, बल्कि ये मामला देश की सुरक्षा से भी जुड़ा है.


आज से 16 साल पहले बदुरिया आने पर मैंने देखा था कि ये जगह एकदम शांत हुआ करती थी. जीवन की रफ्तार सुस्त थी. उस वक्त तकी रो़ड पर भी इतना ट्रैफिक नहीं हुआ करता था. हम अपनी दोपहिया गाड़ी पर भी आराम से चलते हुए बदुरिया पहुंचे थे.

हालांकि उस वक्त भी बदुरिया में शांत माहौल में आने वाले तूफान के संकेत दिख रहे थे. जब 16 बरस पहले हम यहां आए थे, तो रमजान का महीना चल रहा था. नमाज के लिए हाइवे को बंद कर दिया गया था. हमें नमाज और इफ्तार पूरे होने तक हाइवे के किनारे स्थित एक चाय की दुकान पर रुकना पड़ा था.

थोड़ी देर में यह दुकान खचाखच भर गई थी. आमतौर पर दिल्ली की सियासी इफ्तारों से अलग हमारे सुदूर गांव-कस्बों की इफ्तार शांत और सादी होती हैं. लेकिन यहां रोजेदारों के लिबास और बोली दोनों ही साफ बताती थी कि वे हिंदुस्तानी नहीं हैं.

भड़की हिंसा में उपद्रवी भीड़ ने कई दुकानों और मकानों को आग के हवाले कर दिया

बदुरिया में हमारे मेजबान ने हमारे शक पर मुहर लगा दी थी. वे लोग खुद बदुरिया के बदलते माहौल से परेशान थे. अपने ही इलाके में वो अजनबी हो चुके थे. अवैध घुसपैठ के चलते बड़ी तादाद में बांग्लादेशी बदुरिया में आकर बस रहे थे. उस वक्त पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार थी. वामपंथी सरकार ने इस घुसपैठ की तरफ से आंखें बंद की हुई थीं. वो बांग्लादेश से आए इन घुसपैठियों को वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे.

उस वक्त बदुरिया के लोग ममता बनर्जी को बड़ी उम्मीद की नजर से देखते थे. उन्हें लगता था कि ममता की सरकार बनी तो वो बांग्लादेशी घुसपैठियों पर लगाम लगाएंगी. उन्हें लगता था कि ममता के सत्ता में आने पर प्रशासन बेहतर होगा. हिंदू-मुसलमान के नाम पर भेदभाव नहीं होगा.

आज 16 साल बाद बदुरिया के लोगों की उम्मीदें टूट चुकी हैं. आज ये कस्बा जंग का मैदान बन चुका है. 17 साल के एक लड़के की जिस फेसबुक पोस्ट की वजह से यहां पिछले हफ्ते जबरदस्त हिंसा हुई, वो तो बस बहाना थी. इस बार हमारे मेजबान बताते हैं कि जब हिंसा भड़की तो उन्हें बहुत डर लगा. इसीलिए वो बाकी देशवासियों को यहां के हालात के बारे में बताने को बेताब थे. उन्हें डर लग रहा था कि अगर कुछ किया न गया तो यहां बड़ा ‘हत्याकांड’ हो सकता है.

हालात बेहद खराब

स्थानीय लोग कहते हैं कि आज की तारीख में बदुरिया में हालात बेहद बिगड़ चुके हैं. यहां के 65 फीसदी वोटर मुसलमान हैं. यहां पर सबसे ज्यादा जो इमारतें बन रही हैं वो मदरसे और मस्जिद हैं.

बदुरिया आज बांग्लादेश का ही हिस्सा लग रहा है. स्थानीय लोग अपने ही इलाके में अजनबी हो गए हैं. पुलिस अब लड़कियों से छेड़खानी की शिकायत तक नहीं सुनती. 3 जुलाई को जो हिंसा भड़की वो तो बस एक बहाना थी. असल में घुसपैठिये यहां बचे हुए पुराने लोगों को ये इलाका छोड़कर भाग जाने की धमकी दे रहे हैं.

आज ये हालात ममता बनर्जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से पैदा हुए हैं. यहां के ज्यादातर लोग भारतीय नागरिक तक नहीं हैं. दंगाइयों और हिंसा भड़काने वालों- जो फेसबुक पोस्ट लिखने के आरोपी लड़के को फांसी पर लटकाने की मांग कर रहे थे-  के प्रति नरमी दिखाकर ममता ने साफ कर दिया है कि वो सांप्रदायिक ताकतों के आगे झुक गई हैं. तभी तो उन्होंने यहां तीन दिन तक दंगाइयों को खुली छूट दे रखी थी और सुरक्षाबलों को उनसे निपटने से रोक रही थीं.

जब ममता बनर्जी को दंगाइयों से सख्ती से निपटना चाहिए था. जब उनकी जिम्मेदारी थी कि वो सांप्रदयिक ताकतों के खिलाफ कड़े कदम उठातीं, तो वो केंद्र सरकार से झगड़ा करने लगीं. मदद के लिए भेजी गई सुरक्षा बलों की टुकड़ियों को लौटा दिया. इसके बाद वो राज्यपाल पर आरोप लगाने लगीं.

ममता ने उन्हें बीजेपी का सड़कछाप नेता कह दिया और उन पर  अपमानित करने का आरोप भी लगाने लगीं. इससे ममता बनर्जी की नीयत साफ हो गई. जाहिर है कि उनकी ये सियासी नौटंकी कानून-व्यवस्था को लेकर अपनी नाकामी छुपाने के लिए ही थी. कानून का राज कायम करने के मोर्चे पर ममता बनर्जी बुरी तरह फेल हुई हैं.

इस हिंसा को राज्यपाल की ओर से ‘हस्तक्षेप’ की उपज बताने के उनके दांव को भले ही उनके समर्थक मान लें, लेकिन इससे तो सांप्रदायिक ताकतों के हौसले बुलंद ही होंगे. राज्य के दूसरे हिस्सों में भी दंगाइयों को ममता के रवैये से हौसला मिलेगा. बदुरिया में शरीयत के तहत सजा की मांग, सिर्फ बंगाल ही नहीं, पूरे देश के लिए खतरे की घंटी है.

धर्म के नाम पर कत्ल करने पर उतारू भीड़ को सजा न मिलने से एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश होने के हमारे दावे पर दाग लगना तय है. किसी भी भीड़ का हिंसक तरीकों से अपनी मांग मंगवाना जायज नहीं. लोगों को कानून से खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए.

मीडिया पर भी सवाल

पश्चिम बंगाल की ताजा सांप्रदायिक हिंसा को लेकर वहां के मीडिया के रोल पर भी सवाल उठे हैं. सरकार के दबाव में या फिर चापलूसी की नीति के चलते किसी भी बड़े मीडिया हाउस ने बदुरिया की हिंसा की घटना को तवज्जो नहीं दी.

यूं लग रहा था कि मीडिया की इस शुतुरमुर्गी नीति से हालात खुद-ब-खुद ठीक हो जाएंगे. मगर ये उसी मीडिया की खामोशी थी, जो हाल के दिनों में देश के दूसरे हिस्सों में पीट-पीटकर हुई हत्याओं की घटनाओं पर खूब शोर मचा रहा था. गौरक्षकों की हिंसा को लेकर यही मीडिया छाती पीट रहा था. पश्चिम बंगाल के मीडिया को समझना होगा कि अपराधियों से निपटने के दो पैमाने नहीं हो सकते. अगर वो गौरक्षकों की हिंसा को लेकर शोर मचा रहे थे, तो उन्हें बदुरिया की सांप्रदायिक हिंसा पर भी आवाज उठानी चाहिए थी.

पाकिस्तान की तरह भारत अच्छे और बुरे आतंकवादी यानी अच्छे और बुरे दंगाइयों का फर्क नहीं कर सकता.

सवाल ये है कि पश्चिम बंगाल में कालियाचक, धूलागढ़ और अब बदुरिया की सांप्रदायिक हिंसा क्या संकेत देती है? पश्चिम बंगाल के बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल के लिए यूं तो सिर्फ ममता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. मगर मौजूदा सरकार होने की वजह से सबसे ज्यादा जवाबदेही उन्हीं की बनती है. इससे वो अपनी नौटंकी वाली सियासत करके पल्ला नहीं झाड़ सकतीं.

पूरे देश को मालूम है कि वोट बैंक की राजनीति के चलते पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकारों ने बांग्लादेश के अवैध घुसपैठियों की तरफ से आंखें मूंदे रखीं. उस दौर में भारत-बांग्लादेश की सीमा पर जानवरों के बदले इंसानों की अदला-बदली का कारोबार आम था. सीमा की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार एजेंसियां ये अवैध कारोबार रोकने में नाकाम रहीं.

इससे ही साफ है कि हम देश की सुरक्षा को लेकर कितने गंभीर हैं. हमारी नाकामी की सबसे बड़ी मिसाल यही है कि हमें यही नहीं पता कि बांग्लादेश से कितने लोगों ने अवैध तरीके से हिंदुस्तान में घुसपैठ की. आज हालात ये हैं कि खुद बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने चेताया है कि बांग्लादेश से आतंकी पश्चिम बंगाल में घुसकर पनाह ले रहे हैं. लेकिन ममता ने शेख हसीना की चेतावनी को भी अनसुना कर दिया.

कोई भी सरकार जिसकी हालत पर नजर हो, जो देश की सुरक्षा को लेकर गंभीर हो, वो घुसपैठ को लेकर बेहद सतर्क होगी. लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं हुआ. घुसपैठियों की तादाद बढ़ती रही. मुसलमानों की आबादी पश्चिम बंगाल में जितनी तेजी से बढ़ी है, उतनी तेजी से देश के किसी भी हिस्से में नहीं बढ़ी. फिर भी वहां की सरकारें सोई रहीं.

क्या है इस हिंसा की जड़ में

आज पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी, आजादी से पहले के स्तर पर पहुंच रही है. 1941 में पश्चिम बंगाल में 29 फीसद मुसलमान आबादी थी. आज ये आंकड़ा 27 प्रतिशत पहुंच गया है. जबकि देश के बंटवारे के बाद 1951 में पश्चिम बंगाल में केवल 19.5 फीसद मुसलमान थे. बंटवारे के बाद बड़ी तादाद में मुसलमान, पाकिस्तान चले गए थे.

हम मुसलमानों की आबादी में बढ़ोतरी के आंकड़ों पर गौर करें तो चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं. 2001 से 2011 के बीच पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 1.77 फीसद सालाना की दर से बढ़ी. जबकि देश के बाकी हिस्सों में मुस्लिम आबादी 0.88 प्रतिशत की दर से बढ़ी.

यूं तो राजनीति में आंकड़ों की बहुत बात होती है. लेकिन पश्चिम बंगाल की तेजी से बढ़ती मुस्लिम आबादी की तरफ से सब ने आंखें मूंद रखी थीं. सियासी फायदे के लिए देशहित की कुर्बानी दे दी गई. अगर हम आंकड़ों पर ध्यान देते तो फौरन बात पकड़ में आ जाती कि जिस बंगाल में कारोबार ठप पड़ रहा था, उद्योग बंद हो रहे थे, वहां लोग रोजगार की नीयत से तो जा नहीं रहे थे.

आज की तारीख में हम घुसपैठ के सियासी असर की बात करें तो, पश्चिम बंगाल के तीन जिलों में मुसलमान बहुमत में हैं. करीब 100 विधानसभा सीटों के नतीजे मुसलमानों के वोट तय करते हैं. यानी मुस्लिम वोट, पश्चिम बंगाल की सियासत के लिहाज से आज बेहद अहम हो गए हैं. इसीलिए राज्य में ममता बनर्जी जमकर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति कर रही हैं. उनसे पहले वामपंथी दल यही कर रहे थे.

तुष्टीकरण की गंदी सियासत का नमूना हमने 2007 के चुनावों में देखा था. उस वक्त अपनी तरक्कीपसंद राजनीति के बावजूद वामपंथी सरकार ने बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को कोलकाता से बाहर जाने पर मजबूर किया. इसकी वजह ये थी कि बंगाल के कट्टरपंथी मुसलमान, तस्लीमा के शहर में रहने का विरोध कर रहे थे. आज का पश्चिम बंगाल सांप्रदायिक रूप से और भी संवेदनशील हो गया है.

ममता बनर्जी ने सांप्रदायिकता को अपना सबसे बड़ा सियासी हथियार बना लिया है. उनका आदर्शवाद सत्ता में रहते हुए उड़न-छू हो चुका है. राज्य के 27 फीसद मुस्लिम आबादी को लुभाने के लिए ममता किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखती हैं. इसीलिए वो नूर-उल-रहमान बरकती जैसे मौलवियों को शह देती हैं.

ये वही बरकती है जिसने पीएम मोदी के खिलाफ फतवा दिया था. बरकती ने कई भड़काऊ बयान दिए. वो लालबत्ती पर रोक के बावजूद खुले तौर पर अपनी गाड़ी में लालबत्ती लगाकर चलता था. लेकिन ममता ने उसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया. बाद में कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के ट्रस्टियों ने बरकती को इमाम पद से जबरदस्ती हटाया.

इसी तरह ममता बनर्जी ने मालदा के हरिश्चंद्रपुर कस्बे के मौलाना नासिर शेख की तरफ से आंखें मूंद लीं. इस मौलाना ने टीवी, संगीत, फोटोग्राफी और गैर मुसलमानों से मुसलमानों के बात करने पर पाबंदी लगा दी थी. राज्य के धर्मनिरपेक्ष नियमों के खिलाफ जाकर ममता ने इमामों और मौलवियों को उपाधियां और वजीफे दिए हैं.

ममता ने मुस्लिम तुष्टीकरण की सारी हदें तोड़ दी हैं. तभी तो दुर्गा पूजा के बाद 4 बजे के बाद मूर्ति विसर्जन पर, मुहर्रम का जुलूस निकालने के लिए रोक लगा देती हैं. उन्हें आम बंगालियों की धार्मिक भावनाओं का खयाल तक नहीं आता. कलकत्ता हाई कोर्ट ने ममता बनर्जी सरकार के इस फैसले को अल्पसंख्यकों का अंधा तुष्टीकरण कहा था.

क्या ममता बनर्जी को ये समझ में आएगा कि मुस्लिम तुष्टीकरण से बंगाल में अब काजी नजरुल इस्लाम जैसे लोग नहीं पैदा होगे. बल्कि इससे इमाम बरकती और नसीर शेख जैसे मौलवियों को ही ताकत मिलेगी. ये वही लोग हैं जो मुसलमानों की नुमाइंदगी का दावा करते हैं, मगर उन्हीं के हितों को चोट पहुंचाते हैं. ये सांप्रदायिकता फैलाते हैं.

आज बदुरिया में जो हो रहा है वो तुष्टीकरण की नीतियों का ही नतीजा है. कल यही हाल कोलकाता का भी हो सकता है.

ममता बनर्जी सांप्रदायिकता की ऐसी आग से खेल रही हैं, जिस पर काबू पाना उनके बस में भी नहीं होगा.