view all

ऐसा भारत बनाने की जरूरत जिसमें सचमुच सबका साथ, सबका विकास हो

Rakesh Khar

लोकसभा और पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं. बिखरे विपक्ष ने एकजुट होकर चुनावी रणभेरी बजा दी है. क्षेत्रीय दलों के समर्थन से कमजोर कांग्रेस में भी नया जोश भर गया है. लिहाजा उसने भी पूरा जोर लगाकर हुंकार भर दी है. विपक्ष की इस ललकार पर केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी ने भी ताल ठोक दी है. लेकिन पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और रुपए में लगातार हो रही गिरावट ने एनडीए सरकार की पेशानी पर बल डाल दिए हैं. तेल के सिर चढ़ने और रुपए के औंधे मुंह गिरने से मोदी सरकार सियासी आग में घिरकर झुलसती नजर आ रही है. सेंसेक्स की गिरावट ने इस धधकती आग में घी डालने का काम कर दिया है. शेयर बाजार ने सोमवार को लगातार पांचवें दिन भी गोता लगाया. सेंसेक्स जहां 536 अंक गिरकर बंद हुआ, वहीं निफ्टी करीब दो महीने बाद 11,000 अंकों के नीचे पहुंच गया.

रुपए में हो रही लगातार गिरावट के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खासे दबाव में हैं. इस मुद्दे को लेकर विपक्ष उनपर चौतरफा हमले बोल रहा है. खासकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो रुपए की गिरावट पर प्रधानमंत्री की चुप्पी को मुद्दा बना दिया है. लिहाजा रुपए की गिरावट को रोकने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने सितंबर की शुरुआत में एक अहम बैठक बुलाई. उस बैठक में अफसरों और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों ने कई उपाय सुझाए. उनमें से कई उपायों पर बैठक के बाद अमल भी किया गया. अब तकरीबन एक महीना बीतने को आया है, लेकिन नतीजे कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं. रुपया अब भी रसातल की ओर मुंह किए गिरता ही जा रहा है.


रुपए में गिरावट को लेकर सरकार भले ही दबाव में हो, लेकिन दहशत में बिल्कुल नहीं है. सरकार इस बात से आश्वस्त है कि भारत का आर्थिक ढांचा पूरी तरह से मजबूत है, लिहाजा रुपए की मौजूदा गिरावट से देश की अर्थव्यवस्था को खास नुकसान नहीं होगा. यही वजह है कि, सरकार के नीति निर्धारक नए आर्थिक आंकड़ों (इकनॉमिक डेटा) को पेश करने में व्यस्त हैं. जीडीपी, राजकोषीय घाटा, सीएडी, विदेशी मुद्रा भंडार और मुद्रास्फीति का हवाला देकर यह बात साबित करने की कोशिश की जा रही है कि रुपए में गिरावट को लेकर चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है.

लेकिन रुपए में गिरावट और तेल के दामों में लगातार इजाफे को विपक्ष ने बड़ा मुद्दा बना दिया है. चुनावी मौसम में यह दोनों मुद्दे विपक्ष को मुंह मांगी मुराद जैसे नजर आ रहे हैं. लिहाजा वह इन्हें पूरी तरह से भुनाने पर अमादा है, ताकि आगामी चुनावों में इनका सियासी फायदा उठाया सके. ऐसे में गिरता रुपया और चढ़ता तेल देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को परिभाषित (सही या गलत) कर रहे हैं.

फिलहाल ऐसा कोई दिन नहीं गुजर रहा है, जब रुपए की गिरावट अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियां (हेडलाइंस) न बन रहे हों. तेल (पेट्रोल-डीजल) की कीमतों में बढ़ोतरी और रुपए की कमजोरी के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने इस महीने की शुरुआत में राष्ट्रव्यापी बंद रखा था. जो कि काफी हद तक कामयाब भी रहा.

महंगे तेल को लेकर भारत बंद और हंगामे पर विपक्ष को दोष क्यों दें? आज केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन जब यूपीए 2 के शासन के दौरान खुद विपक्ष में था, तब उसने भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफे के खिलाफ जमकर हो हल्ला और हाय तौबा की थी. एनडीए के नेताओं ने उस वक्त जो तंज कसे थे, वे अब खुद उनकी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं. अतीत की तल्ख टिप्पणियां आज आईना बनकर एनडीए नेताओं को मुंह चिढ़ा रही हैं.

विपक्ष के हुल्लड़-हंगामे के बावजूद एनडीए सरकार चिंतित नजर नहीं आ रही है. उसे चढ़ते तेल और गिरते रुपए में अपने सियासी नुकसान की भी फिक्र नहीं है. या यूं कहें कि कम से कम अभी तो सरकार को अपने राजनीतिक पतन की चिंता नहीं है. हालांकि, न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम में बहस के दौरान सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ताओं को बेशक मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ रहा है, और उनके जवाब देना भारी हो रहा है. लेकिन शीर्ष नेतृत्व इन सब से बेफिक्र होकर कहीं और ही व्यस्त है.

पिछले लोकसभा चुनावों में मोदी मध्यम वर्ग का प्रतीक बनकर उभरे थे. वह मध्यम वर्ग ही था जिसने मोदी को सत्ता तक पहुंचाया. लेकिन अपने कार्यकाल के आखिरी साल में प्रधानमंत्री मोदी मध्यम वर्ग के बजाए निचले वर्ग के लिए काम करते नजर आ रहे हैं. समाज के निचले तबके के प्रति मोदी का प्रेम और सेवा भाव उनकी मूल राजनीति (कोर पॉलिटिक्स) को रेखांकित करता है. प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार इस वक्त खुद को गरीबों और दबे-कुचले लोगों का मसीहा साबित करने में जी जान से जुटी है. मोदी सरकार की नीतियों और विचारों के इस आमूलचूल और आदर्श बदलाव के हम सभी लोग साक्षी हैं.

इसीलिए, उज्ज्वला (महिला सशक्तिकरण), पीएमएवाई (किफायती आवास), जन धन (जेएएम) और अब पोस्टल बैंकिंग जैसी योजनाएं सरकार के मूल आर्थिक नजरिए को परिभाषित करती हैं. आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के वेतन में वृद्धि और आयुष्मान भारत योजना के जरिए भी सरकार निचले तबके को साधना चाहती है. लिहाजा सरकार हर घर हर शख्स के सशक्तिकरण का वादा कर रही है. वहीं डिजिटल इंडिया का नारा बुलंद करके आधुनिकतम टेक्नोलॉजी का श्रेय लेना भी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है.

दिलचस्प और गौरतलब बात यह है कि, प्रधानमंत्री की अगुवाई में सरकार ने अब व्यक्तिगत धनोपार्जन के मुद्दों का जिक्र करना बंद कर दिया है, हालांकि वह मुद्रा स्कीम को अब भी गेम चेंजर के तौर पर बढ़ावा देना जारी रखे है. लिहाजा यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि प्रधानमंत्री मोदी सबसे पहले देश के गरीबों के लिए ‘अच्छे दिन’ लाना चाहते हैं. मोदी सरकार की नीतियों में आया यह बदलाव 2019 के लोकसभा चुनाव के एजेंडे को निर्धारित करता नजर आ रहा है.

पिछले साढ़े चार सालों के दौरान इक्विटी (शेयरों) में असाधारण वृद्धि ने कई लोगों को हैरान कर दिया है. इस तथ्य पर कोई संदेह नहीं है कि शेयर बाजार की उथल-पुथल ने टिकाऊ निवेश वर्ग को अमीर बना दिया है. दरअसल, जिन लोगों ने मोदी युग के दौरान बाजारों में अपना विश्वास बनाए रखा है, उनके हिस्से में ‘अच्छे दिन’ जरूर आए हैं.

लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार अपनी प्रमुख आर्थिक उपलब्धि के तौर पर सेंसेक्स को क्यों नहीं गिना रही है? क्योंकि, सेंसेक्स निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था का सही बैरोमीटर नहीं है. दरअसल सेंसेक्स तो आर्थिक भावना का एक सक्षम प्रतिबिंब भर है.

इस साल सेंसेक्स में ऐतिहासिक वृद्धि दुनिया भर में सुर्खियां बनी. लेकिन इस बात की अहमियत न तो सत्तारूढ़ गठबंधन ने समझी और न ही विपक्ष को इसकी सुध रही. पिछले हफ्ते ग्लोबल ब्रोकरेज मॉर्गन स्टेनली ने सितंबर 2019 के लिए बीएसई का लक्ष्य बढ़ाकर 42,000 कर दिया था. साथ ही मॉर्गन स्टेनली ने यह भी कहा था कि, कमाई चक्र (अर्निंग साइकिल) घूमने के कगार पर है.

मॉर्गन स्टेनली ने कहा, 'भारत कमाई की गहन मंदी से बाहर आ रहा है. यह मंदी सात साल लंबी थी. कॉरपोरेट जगत अब अगले 12 महीनों में कारोबार में वृद्धि पर भरोसा कर रहा है.'

वैश्विक बाजार में भारत के स्टॉक मार्केट के दबदबे और बोलबाले के कई और सबूत भी हैं. अमेरिका की मल्टीनेशनल इन्वेस्टमेंट बैंक और फाइनेंशियल सर्विसेज कंपनी गोल्डमैन सैक्स को भी भारत के स्टॉक मार्केट पर भरोसा है. गोल्डमैन सैक्स ने 17 सितंबर को कहा कि दुनिया भर में यह भारतीय शेयरों के इजाफे का समय है.

गोल्डमैन सैक्स 2014 से ही भारतीयों शेयरों में तेजी के अनुमान जता रहा है. तब से अब तक शेयर बाजार दोगुना हो चुका है.

लेकिन सवाल यह उठता है कि, क्या सेंसेक्स में ऐतिहासिक वृद्धि बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण बात नहीं है? विडंबना यह है कि, इक्विटी पर सरकार का मौन इस बात की ओर इशारा करता है कि मिश्रित आर्थिक नीतियों के निर्माण की यात्रा में भारत पिछले चार सालों में कहां पहुंच गया है. इस सिंड्रोम को कई तरह से समझाया जा सकता है. लेकिन मुख्य रूप से यह चुनावी मौसम से संचालित होता है. जो कि इस बार समय से थोड़ा पहले ही आ गया है.

साल 2004 में सबक सीखने के बाद एनडीए अब बेहद सतर्क है. वह अपनी चुनावी कैंपेन को किसी भी तरीके से चमक-दमक वाला नहीं बनाना चाहता है. यही वजह है कि बीजेपी ने नया नारा ‘अजेय भारत, अटल बीजेपी’ दिया है. जो कि ‘शाइनिंग इंडिया’ की भावना से कोसों दूर है. दूसरी बात यह है कि अपने कार्यकाल के दौरान मोदी सरकार ने गरीबी उन्मूलन और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत करने पर जोर दिया है. ऐसे में सेंसेक्स का उछाल उसकी चुनावी पटकथा में फिट नहीं बैठता है.

तीसरी बात यह है कि ऐसा माना जाता है कि देश का मध्यम वर्ग मोदी पर आंख मूंदकर भरोसा करता है. लिहाजा इक्विटी (बढ़ते म्यूचुअल फंड निवेश की गवाही) के माध्यम से इसके अनुमानित विकास को पूरा करने की कोई जरूरत नहीं है.

चौथी बात यह है कि एनडीए सरकार का ज्यादा ध्यान ग्रामीण मतदाताओं पर केंद्रित है. ऐसे में स्टॉक मार्केट की किसी भी बात को प्रतिकूल माना जा सकता है. स्वतंत्रता दिवस के भाषणों में प्रधानमंत्री ने अक्सर गरीबी कम करने और देश के अंतिम छोर तक विकास पहुंचाने की बात पर जोर दिया है. चुनावी गणित से पता चलता है कि, सरकार ग्रामीण मतदाताओं को लुभाने में जुटी है. दरअसल ग्रामीण मतदाता भारत की कुल आबादी के दो-तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं.

पांचवीं बात यह है कि पिछले कुछ चुनावों में ऐसा देखा गया है कि शहरी निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों के बजाए ग्रामीण क्षेत्रों के लोग ज्यादा तादाद में मतदान करते आए हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में ग्रामीण मतदाताओं ने बड़े पैमाने पर मतदान में हिस्सा लिया था. लिहाजा ग्रामीण क्षेत्रों पर सरकार का फोकस लाजमी है.

आखिरी बात यह है कि सरकार फिर से मध्यम वर्ग को अपने पक्ष में मतदान करने को मनाने की स्थिति में नहीं है. महंगाई और बेरोजगारी जैसी मुद्दों को लेकर मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा सरकार से खफा है. लिहाजा सरकार मध्यम वर्ग को मनुहार के साथ साधने में जुटी है.

लेकिन मध्यम वर्ग का दिल फिर से जीतने के लिए सेंसेक्स सही औजार नहीं है. मध्यम वर्ग को समझाने और फुसलाने के लिए सरकार के पास, जीएसटी, उड़ान, राजमार्ग, बुनियादी ढांचे को बढ़ाया, मजबूत डिजिटल अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दे हैं. इनके अलावा हाल ही में पीपीएफ, एनएससी और सीनियर सिटीजन सेविंग स्कीम में ब्याज वृद्धि करके भी सरकार ने मध्यम वर्ग को फिर से पटाने की कोशिश की है. दरअसल सरकार मध्यम वर्ग से कहना चाहती है कि, अगर आपने एक बार फिर से साथ और समर्थन दिया तो हम फिर से सत्ता में लौट सकते हैं.

दिलचस्प बात यह है कि, मोदी युग में सेंसेक्स की उथल-पुथल और गिरावट का फायदा कांग्रेस जरा भी नहीं उठा पाई है. इसके विपरीत अतीत में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार कहा था कि, 1992 में सेंसेक्स में गिरावट के बाद भी उनकी नींद नहीं उड़ी थी. हालांकि इस साल 2 फरवरी को बजट सत्र के दौरान राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर हमला जरूर बोला था. कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा था कि, सेंसेक्स में 800 अंकों से ज्यादा की गिरावट के बाद शेयर बाजार ने सरकार के खिलाफ 'नो कॉन्फिडेंस मोशन' दिया है.

राहुल गांधी ने ट्वीट किया था, 'संसदीय भाषा में कहें तो, सेंसेक्स ने मोदी सरकार के बजट के खिलाफ 800 अंकों का ठोस 'अविश्वास प्रस्ताव' दिया है.' हालांकि वह बात अलग है कि, मोदी सरकार ने इस साल जब विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को बड़े अंतर से गिराया, तब 23 जुलाई को सेंसेक्स ने जोरदार उछाल भरी.

सेंसेक्स के खिलाफ मतदान से पता चलता है कि, चुनावों के चलते राजनीति भारत को आर्थिक रूप से विभाजित करेगी. लिहाजा भारत को गरीबी की राजनीति का विरोध करना चाहिए. साथ ही सुदूर और दुर्गम इलाकों तक में बसे लोगों की जिंदगी की गुणवत्ता को सुधारने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए.

लेकिन यह सब मध्यम वर्ग की कीमत पर नहीं होना चाहिए. हमें मध्यम वर्ग की जरूरतों और सुविधाओं का भी पूरा ख्याल रखना होगा. असल में भारत में विकास के लिए संतुलित निवेश की जरूरत है. एक ऐसा भारत बनाने की आवश्यकता है, जो सचमुच सबका साथ सबका विकास चाहता है. गरीबों की तरफ झुकाव या उनके समर्थन का अर्थ मध्यम वर्ग या व्यावसायिक वर्ग का विरोधी नहीं होना चाहिए. याद रखें कि, वास्तविक विकास नौकरियों के ज्यादा से ज्यादा अवसर पैदा होने पर होगा. लेकिन नौकरियां तब पैदा होंगी जब निवेश के लिए समग्र वातावरण परिपक्व होगा.