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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी खुद तमंचा लेकर पाकिस्तान कूच कब करेंगे?

युद्धोन्माद भड़काने के लिए सरकार से ज्यादा दोषी जनता है. 

Rakesh Kayasth

देश गुस्से में है. देश उबल रहा है, देश चीख रहा है. प्रधानमंत्री जी पाकिस्तान से बदला लीजिये- हमें खून के बदले खून चाहिए.

हिंदुस्तानी सैनिक के सिर के बदले पाकिस्तानी सैनिक का सिर चाहिए. घंटे गिने जा रहे हैं और पूछा जा रहा है कि प्रधानमंत्री अब तक खामोश क्यों हैं. पुराने दावे याद दिलाये जा रहे हैं और 56 इंच के सीने पर फिर से तंज किया जा रहा है. यह सरकारी युद्धोन्माद नहीं है.


युद्धोन्माद कभी सरकारी नहीं होता है बल्कि सरकार में आने के लिए होता है. इसलिए सोशल मीडिया पर अगर ये चुटुकुला चल रहा है कि मोदीजी विपक्ष में होते तो पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजा देते तो इसे चुटकुले से ज्यादा भारतीय राजनीति की एक कड़वी सच्चाई के रूप में देखा जाना चाहिए.

नरेंद्र मोदी सुपरमैन नहीं

विकास पुरुष से लेकर राष्ट्रऋषि तक नरेंद्र मोदी को उनके समर्थकों और भक्तों ने अनगिनत उपनाम दिये हैं. लेकिन केवल उपनाम किसी राजनेता को सुपरमैन नहीं बनाते. जाहिर है मोदीजी भी सुपरमैन नहीं है कि हवा में उड़कर चुटकियों में हर समस्या का नामो-निशान मिटा दें.

रक्षा और विदेश नीति के बड़े सवाल ठंडे दिमाग से सोच-विचार की मांग करते हैं. क्या देश की जनता अपनी सरकार को ये मोहलत देने को तैयार है? सरकार की आलोचना लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है. लेकिन क्या डे-टू-डे बेसिस पर सरकार के कामकाज की मॉनीटरिंग संभव है?

नरेंद्र मोदी कोई सुपरमैन नहीं है जो किसी भी समस्या को तुरंत सुलझा लें

ऐसा पूरी दुनिया में कहीं नहीं होता. सरकारें अपना काम करती हैं और जनता अपना काम. सरकार के कामकाज पर राय रखना हर नागरिक का अधिकार है. लेकिन ये भला कहां संभव है कि सोशल मीडिया पर बन बिगड़ रहे जनता के मूड के हिसाब से सरकार अपने फैसले ले.

दरअसल हम एक ऐसे जल्दबाज और जज्बाती देश में जी रहे हैं जिसे सबकुछ इंस्टेंट नूडल की तरह लगता है. पैकेट खोला, उबाला और हो गया.

आखिर कौन बना रहा जज्बाती और उन्मादी समाज?

जज्बाती होने के साथ भारतीय समाज हमेशा से जजमेंटल भी रहा है. उसके लिए कोई भी बात या तो बहुत अच्छी होती है या बहुत बुरी. समाज के इस मनोविज्ञान को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जमकर भुनाया. साल 2000 के बाद देश में न्यूज चैनलों की बाढ़ आई. खबर देखने वाले कंज्यूमर बन गये और खबर दिखाने वाले व्यापारी.

मुझे अच्छी तरह याद है कि देश के तमाम बड़े-बड़े संपादक न्यूज रूम में पत्रकारों को तीन शब्द खासतौर पर रटाते थे- एंगर, इमोशन और एग्रेशन. यानि जनता के गुस्से, उसकी भावनाओं को उभारा जाये और जो भी कटघरे में खड़ा हो उसकी ईंट से ईंट बजा दी जाये. बदतमीजी की हद तक पहुंचे एंकरों के सुर इसी ट्रेनिंग का नतीजा हैं.

धीरे-धीरे ये प्रवृति इस तरह आगे बढ़ी कि तथ्यों को जांचे-परखे बिना मीडिया मनमाने ढंग से हर घटना पर फैसले देने लगा. बड़ी से बडी घटना को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक शो बना दिया जो सस्पेंस और हाई इमोशन के साथ शुरू होता था और अपनी नाटकीय ताकत के हिसाब से कुछ घंटे से लेकर कई दिनों तक चलता था.

उसके बाद उस घटना कोई जिक्र तक नहीं होता था...पैसा हजम, तमाशा खत्म.

गुस्से की खतरनाक राजनीति का शिकार भारत

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उभार के दौर में इस खतरे को किसी ने नहीं भांपा कि हमारा समाज जरूरत से ज्यादा इमोशनल और जजटमेंटल होता जा रहा है. तर्क और तथ्यों में लोगो की दिलचस्पी कम होती गई और सिर्फ भावनाओं के आधार पर रियेक्ट करना हमारा सामाजिक व्यवहार बन गया.

भारत की राजनीति में अक्सर लोगों की भड़की हुई भावनाओं का फायदा उठाया जाता है (फोटो: पीटीआई)

तमाम राजनीतिक पार्टियों ने इस प्रवृति को खूब भुनाया. सिर्फ बीजेपी को दोष देना सही नहीं होगा. राहुल गांधी ने भी अपनी पूरी राजनीतिक ब्रांडिंग एंग्री यंगमैन की तरह करने की कोशिश की थी.

याद कीजिये उनका अपनी ही सरकार का अध्यादेश फाड़ना 2011 के यूपी चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार आस्तीनें चढ़ाना और जनता को ललकारना- क्या आपको गुस्सा नहीं आता? ये अलग बात है कि इस इमेज को भुनाने में नाकाम राहुल अब इस बात पर चिंतित हैं कि देश में गुस्से की राजनीति लगातार बढ़ती जा रही है.

अपने ही खेल में फंसी बीजेपी

पाकिस्तानी घुसपैठ और भारतीय जवानों की निर्मम हत्या के बाद एनडीए सरकार भी जनता के उसी गुस्से की शिकार है जिसे उसने खुद विपक्ष में रहते हुए लगातार भड़काया था. भारत के लोगो में पाकिस्तान और खासकर उसकी सेना को लेकर हमेशा से नाराजगी रही है जिसकी जायज वजहें हैं.

ऐसे में पाकिस्तान के खिलाफ ऊंची आवाज में बोलना तमाम भारतीय नेताओं को सूट करता है चाहे पार्टी कोई भी हो. इसलिए पाकिस्तान विरोधी नारेबाजी के मामले में हमेशा उस पार्टी की आवाज ऊंची रहती है जो विपक्ष में बैठी हो. बीजेपी के कथित राष्ट्रवाद की बुनियाद ही पाकिस्तान विरोध है.

लेकिन सरकार में होकर हमेशा पाकिस्तान हाय-हाय का राग नहीं अलापा जा सकता. यही वजह है कि अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर तक बस लेकर गये थे और फिर करगिल युद्ध होने के बावजूद आगरा का शिखर सम्मेलन बुलाया था.

नरेंद्र मोदी ने भी पाकिस्तान के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की लगातार कोशिश की. नवाज शरीफ को शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित करने से लेकर उनके जन्मदिन पर अचानक पाकिस्तान जाने जैसी प्रतीकात्मक पहल भी इसमें शामिल है.

बीजेपी खुद संघ और हिंदू वाहिनी जैसे अपने सहयोगियों की चपेट में आती रही है

लेकिन खुद बीजेपी की उन्माद भरी राजनीति मोदी के आड़े आ रही है. ये सच है कि सैनिक कार्रवाई का जवाब सैनिक कार्रवाई होता है. लेकिन मोदी पर दबाव जिस तरह बढ़ता जा रहा है कि उसमें बहुत मुमकिन है कि सरकार को सर्जिकल स्ट्राइक जैसा कोई ऐसा फैसला जल्दबाजी में लेना पड़े जिसकी विश्वसनीयता पिछली बार की तरह संदेहों के घेरे में हो.

इस तरह के मामलो में विपक्ष को भरोसे में लेना हमेशा एक अच्छा कदम होता है. बेहतर ये होता है कि मोदी विपक्ष के साथ बात करके पुरानी परंपरा को एक बार फिर से जीवित करते जहां राष्ट्रीय महत्व के संवेेदशनील सवालों को राजनीति से परे रखा जाता था.

लेकिन तीन साल के अनुभव को देखते हुए इस बात की उम्मीद नहीं है. ऐसे में लगता यही है कि रक्षा और विदेश नीति के बड़े सवाल भी उन्माद भरी जनभावनाओं के आधार पर ही हल किये जाएंगे.