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अब आत्महत्या नहीं एकजुट संघर्ष होना चाहिए: विजू कृष्णन

ऑल इंडिया किसान सभा के जॉइंट सेक्रेटरी विजू कृष्णन से फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से खास बातचीत

Ankita Virmani

इस तस्वीर की कल्पना तो महाराष्ट्र की सरकार ने शायद ही की हो कि अपने हक के लिए करीब तीस हजार किसान सड़कों पर उतर आएंगे!  खबर के लिहाज से भी ये अखबार के बीच पन्नों में कई छुपी सी थी. लेकिन अन्नदाता जब अपने हक के लिए 180 किमी लंबी यात्रा पर निकला तो सरकार के साथ आम आदमी की चर्चा और सहानुभूति का विषय बन गया.

कृषि के नजरिए से महाराष्ट्र देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है. महाराष्ट्र की लगभग 51 प्रतिशत जनसंख्या खेतीबाड़ी पर निर्भर है. लेकिन दुख की बात ये है कि इसी राज्य के 70000 किसानों ने साल 1995 और साल 2005 के बीच आत्महत्या कर ली. 1997-2006 की एक स्टडी के मुताबिक देश में आत्महत्या करने वाला हर पांचवा किसान महाराष्ट्र से था.


फ़र्स्टपोस्ट हिंदी ने बात की जेएनयू के पूर्व छात्र और ऑल इंडिया किसान सभा के जॉइंट सेक्रेटरी विजू कृष्णन से जिन्होंने 30000 किसानों को 180 किलोमीटर लंबी मार्च के लिए प्रोत्साहित किया.

1.) किसान अब आत्महत्या करने की जगह आंदोलन कर रहा है. राज्य दर राज्य सड़क पर उतरकर अपनी बात सरकार तक पहुंचा रहा है. क्या आपको लगता है इन आंदोलनों से किसानों के हालात सुधरेंगे? ऐसे आंदोलनों की परिणति क्या है?

अखिल भारतीय किसान सभा सहित अन्य संगठनों का भी मानना रहा है कि आत्महत्या नहीं एकजुट संघर्ष होना चाहिए. पिछले कुछ सालों से हम लोग ये ही कोशिश कर रहे हैं. हम उन इलाकों में गए जहां किसानों की आत्महत्या दर बहुत ज्यादा है. हमने लोगों को एकत्र किया. उन लोगों को दिल्ली लाए, धरना किया. लेकिन सरकार का रुख किसानों के प्रति असंवेदशील है. जैसे मुंबई में जो हुआ. हम लोग सरकार को लगातार मेमोरंडम दे रहे थे. उस पर ही अगर सरकार कुछ करती तो इतने लोगों को 6 दिन तक चलना नहीं पड़ता.

रही बात फर्क पड़ने की तो बिल्कुल इन आंदोलनों से फर्क पड़ेगा क्योंकि जो शासित वर्ग है उनके दिलों में ये आंदोलन डर पैदा करने में कामयाब हुआ है. इसका राजनीतिक असर भी होता है ना, चुनाव भी पास में है तो ऐसे में सरकार पीछे हटने से पहले सौ बार सोचेगी.

2.) जब किसान नासिक से मुंबई के लिए निकले थे तो उन्हें देशभर से समर्थन मिल रहा था लेकिन राज्य की सरकार की तरफ से तीखे बयान आ रहे थे. बीजेपी नेता पूनम महाजन ने कहा कि ये किसान नहीं शहरी माओवादी हैं. आप खुद भी किसानों के साथ उस रैली में चल रहे थे. खबरें आप तक भी पहुंच ही रही होंगी. नेताओं का ऐसा एटीट्यूड देखकर क्या लगता है वो किसानों की समस्या के प्रति कितने गंभीर हैं ?

प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक सब ऐसे बयान दे रहे हैं. 2014 चुनाव से पहले प्रधानमंत्री ने खुद देश भर में 300 से ज्यादा मीटिंग की थीं और कहा था कि हम किसानों के हित के लिए काम करेंगे, स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेंगे और भी बहुत से लुभावने वादे किए थे लेकिन हर चीज से वो पीछे हटे.

हम कृषि मंत्री से भी मिले. उन्होंने कहा कि चुनाव आता है तो हम लोग बहुत कुछ बोलते हैं, आप लोग उसे इतना सीरियसली क्यों लेते हैं? बीजेपी प्रेसिडेंट की चुनावी जुमले वाली बात तो हम सब जानते ही हैं. पूनम महाजन या उनके जैसे और लोग जो ऐसा बोल रहे हैं ये उनकी असंवेदनशीलता दर्शाता है.

एक तरफ वो बोल रही हैं कि शहरी माओवादी हैं लेकिन उन्हीं के मिनिस्टर ने हमसे कहा कि इतना शांतिपूर्ण आंदोलन हमने अपनी राजनीतिक जिंदगी में नहीं देखा और इसके लिए हम आपको सलाम करते हैं.

कुछ लोग इस आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं. ये गरीब लोग अपने हक के लिए इतना चले लेकिन बोलने वाले ये भी कह रहे हैं कि ये गरीब लोग हैं, इनके पास इतना पैसा कहां से आया? इतने झंडे, इतनी टोपी कहां से आई?

फडणवीस ने भी कहा कि ये किसान नहीं, आदिवासी हैं. तो वो भूल रहे हैं कि आदिवासी सबसे पहले किसान हैं. उनकी जमीन सरकार जबरदस्ती लेने की कोशिश कर रही है, ये उनकी जीविका पर खतरा है. महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में इतने बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं लेकिन सरकार लगी है आधार बनाने में, देश को डिजिटल बनाने में जबकि लोग एक वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं.

शिवाजी की प्रतिमा हो या सरदार पटेल की. उन महान हस्तियों के लिए जो सम्मान है वो रहना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन प्राथमिकता क्या है? इतनी गरीबी है, लोगों को शिक्षा का अवसर नहीं मिल रहा है, आंगनबाड़ी ठीक से नहीं चल रही है, रोजगार नहीं मिल रहा है. ये प्राथमिकता होनी चाहिए. वो भी हो लेकिन ये भी हो. इतने बड़े तबके की बुनियादी जरूरतें पूरी हों.

3.) साल 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले पीएम मोदी ने स्वामिनाथन आयोग की सिफरिशें लागू करने की बातें कही थीं. क्या वजह लगती है आपको जो ये सिफरिशें अब तक लागू नहीं हो पाईं?

जब हम कुछ महीने पहले गुजरात गए थे तो वहां के किसानों ने हमसे बोला कि ये कोई गुजरात मॉडल नहीं है. किसान की जल, जंगल, जमीन सबकुछ लूटने का एक मॉडल है. वो ही हम देख रहे हैं. चार साल में विजय माल्या हो, नीरव मोदी हो, ललित मोदी हो वो कैसे लूट के जा रहे हैं ? चार साल से जो हो रहा है उससे किसान के मन में ये बैठ गया है कि ये सरकार किसान विरोधी है. इसका असर आने वाले दिनों में कैसा होगा इसका डर बीजेपी के मन में है. 2019 के चुनाव पर इसका फर्क पड़ेगा.

4.) मुंबई में जिस तरह से आम लोगों ने इस आंदोलन का समर्थन किया, उसे कैसे देख रहे हैं आप?

मुंबई में किसान सभा का कुछ नहीं है  लेकिन जब ये भीड़ मुंबई पहुंची तो आम लोगों ने अपनी बालकनियों से फूल डाले. खाना दिया. सिख समुदाय की तरफ से लंगर का इंतजाम किया गया, मुसलमानों ने भी खाने का प्रबंध किया. कुछ लोग चप्पलें भी लाए. ये लोगों ने अपनी स्वेच्छा से किया जिससे उनका किसानों के प्रति प्रेम भाव दिखता है.

लोगों को इस बात का एहसास था कि ये अपना हक मांगने के लिए इतनी दूर से चलकर आए हैं. काफी बड़ी हस्तियों की तरफ से भी समर्थन मिला.

5.) इस आंदोलन को राजनीतिक चश्मे से भी देखा जा रहा है. ये भी बातें उठ रही हैं कि त्रिपुरा में मिली हार के प्रतिकार स्वरूप या कह सकते हैं ध्यान भटकाने के लिए भी ऐसा किया गया. इस सवाल का जवाब आपसे बेहतर शायद ही कोई दूसरा दे पाए. आपका क्या कहना है.

क्या चार रैली करने से त्रिपुरा हार का गम चला जाएगा? त्रिपुरा में हारे हैं तो त्रिपुरा में उसका विश्लेषण करना होगा. उसके लिए हम महाराष्ट्र को ही क्यों चुनेंगे? किसान सभा 1936 में बनी था. स्वामी सहजानंद सरस्वती इसके पहले अध्यक्ष थे. जयप्रकाश नारायण, जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग इसके पहले सम्मेलन में रहे हैं. ये ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ लड़ने वाला एक संगठन है.

हां, हर निर्णय के पीछे राजनीति तो है ही. नवउदार नीतियों का अगर हम विरोध कर रहे हैं तो एक राजनीति तो है. कुछ संगठन देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा कर रहें हैं, दरार पैदा कर रहे हैं... उसका भी हम विरोध करते हैं तो वो भी एक राजनीति है. निश्चित रूप से हमारे संगठन की एक राजनीति है जो किसान हित के लिए है. जो भी हो रहा है वो ऐसा तो नहीं है कि अपने आप हो रहा है. कोई तो उसके लिए जिम्मेदार है. ये सरकार जवाबदेह है. हम उनसे सवाल कर रहे हैं और उनको राजनीति दिख रही है तो दिखे.

6.) सोमवार को सीएम फडणवीस के आश्वासन के बाद किसान वापस लौट गए. क्या आपको यकीन है कि सरकार किसानों को दिए गए वादे पूरे करेगी? और अगर ऐसा नहीं होता तो क्या ये आंदोलन जारी रहेगा?

बीजेपी के एक प्रवक्ता कह रहे थे कि ये अनपढ़ किसान हैं. हम लोग इन्हें गुमराह करके ले आए हैं. इनकी ये सोच है कि किसान को कुछ समझ नहीं आता. पिछले वादे पूरे नहीं हुए तब इतने किसान सड़क पर उतरे. खेती को एक लाभकारी व्यवसाय बनाना होगा. सरकार को किसानों को एक गौरवपूर्ण जिंदगी देने के बारे में सोचना होगा. एक उम्र के बाद किसानों को पेंशन जरूर मिलनी चाहिए. इस लड़ाई को हमारा संगठन दूसरे किसान संगठनों के साथ सहमति बनाकर जारी रखेगा.