view all

अयोध्या में धर्मसंसद: क्या राम जी करेंगे बेड़ा पार ?

25 नवंबर को अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन जरूर था और इस आयोजन में उसी तरह के जुनून का प्रदर्शन, अधिक सज-धज, वैसे ही नारे, वही एक एजेंडा, और कमोबेश उसी तरह के तमाशे हुए जो 1990, 91 और 92 में हुए थे. लेकिन एक बड़ा अंतर भी था और वह था जनसमूह का रुझान.

Utpal Pathak

महीनों से चल रहे इंतजाम और गोलबंदी के बीच किसी नए बवाल के डर और राजनीति के साम्य के मिले-जुले स्वरूप में हुई धर्मसभा अयोध्या में जैसे-तैसे संपन्न हो ही गई. 25 नवंबर को अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन जरूर था और इस आयोजन में उसी तरह के जुनून का प्रदर्शन, अधिक सज-धज, वैसे ही नारे, वही एक एजेंडा, और कमोबेश उसी तरह के तमाशे हुए जो 1990, 91 और 92 में हुए थे. लेकिन एक बड़ा अंतर भी था और वह था जनसमूह का रुझान. जैसा कि आयोजकों ने सोचा था कि 25 नवंबर को भी 1991, 92 जैसी भीड़ होगी लेकिन वैसा हुआ नहीं, बल्कि उससे ज्यादा मात्रा में भीड़ सोशल मीडिया पर मंदिर मस्जिद की बहस में भिड़ी हुई थी. 25 नवंबर को मीडिया जिस भीड़ को अपार जनसमूह दिखा रहा था वो दरअसल आयोजकों के लिए आशानुरूप भीड़ नहीं थी.

अयोध्या में तीस-चालीस हजार की भीड़ को मीडिया द्वारा पांच से छह लाख बता कर प्रचारित किया गया. महाराष्ट्र से शिवसैनिकों के लिए दो विशेष रेलगाड़ियां चलाई गईं थीं जो शिवसेना द्वारा अपने कार्यकर्ताओं के लिए अनुबंधित की गई थीं. प्रति रेलगाड़ी के हिसाब से यदि दो-तीन हजार शिवसैनिकों की संख्या जोड़ी जाए तो लगभग 5-6 हजार का आंकड़ा बनता है. लेकिन न्यूज चैनलों और हिंदी पट्टी के अखबारों को अयोध्या में नरमुंडों का रेला नजर आया. मीडिया ने दो लाख और पांच लाख लोगों तक का जमावड़ा दिखा दिया. हिंदी अखबारों ने दो पेज का विशेष कवरेज अयोध्या के नाम समर्पित कर दिया. लेकिन जमीनी हकीकत यह रही कि उत्तर प्रदेश में फैजाबाद छोड़ किसी अन्य जिले में विहिप/शिवसेना की स्थानीय इकाईयों के अतिरिक्त आम हिंदुओं ने तनिक भी रुचि नहीं दिखाई.


बहरहाल, भीड़ के कम या ज्यादा होने से राम जी के खेवनहारों की मंशा पर कोई असर पड़े न पड़े लेकिन कम भीड़ इस बात का इशारा करती है कि अब आयोजकों पर लोगों की आस्था कम हो रही है, और अब जनमानस लोग राम काज या कारसेवा या रामसेवा के लिए जैसे फौरन चल पड़ते थे वैसा माहौल अब बिल्कुल नहीं है. लोगों को यह एहसास हो गया है कि राम मंदिर अब आस्था का कम और राजनीतिक मन्तव्य सिद्ध करने का मुद्दा अधिक बन गया है.

क्या यह आयोजन संघ के लिए एक पूर्वावलोकन था 

पीटीआई

कहना गलत न होगा कि प्रवीण तोगड़िया के पदच्युत होने के बाद विहिप के इस नवसृजित स्वरूप और शिवसेना को आगे रख कर संघ ने इस धर्म संसद को एक पूर्वावलोकन के तौर पर ही लिया है. यह धर्म संसद दरअसल जनता के मिजाज और जनोन्माद को समझने बूझने की एक कवायद थी जिसके बाद संघ को अगला कदम उठाने में सहूलियत होगी.

अयोध्या में भीड़ जुटी और वापस भी चली गई लेकिन इस जमावड़े से संघ और बीजेपी को क्या मिला है यह अब भी यक्ष प्रश्न है. लेकिन चर्चा में विहिप था, बैनर पोस्टर पर विहिप के नए चेहरे थे और मीडिया में भी विहिप के लोगों को तवज्जो दी रही थी. यह वही विहिप है जिसने 1989 में सिखों के पंचककार में से एक कृपाण की तर्ज पर त्रिशूल बांटने का अभियान भी चलाया था, पर विरोध होते ही यह अभियान वापस ले लिया गया था.

ऐसे में धर्म सभा के मामले में भी संघ को भी फूंक-फूंक कर कदम रखना था लिहाजा बीजेपी के किसी शीर्ष नेता ने इस धर्म सभा का बचाव नहीं किया, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी राजधानी लखनऊ में रामलला की नई प्रतिमा से सबंधित विवरण के प्रति गंभीर दिखे और सारा मामला विहिप और शिवसेना के हाथ में रख कर बीजेपी दूर से तमाशा देखती रही. अयोध्या में सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद थी, और संघ भीड़ की लंबाई-चौड़ाई को समझने में लगा हुआ था.

क्या वाकई संघ को संविधान की अवज्ञा करने के गुरेज नहीं ?

असंख्य गैर संघी राजनीतिज्ञ देश के अनेक मंचों पर कई बार इस बात का हवाला दे चुके हैं कि संघ के अवचेतन में संविधान के प्रति अवज्ञा का भाव बहुत गहरे तक बैठा हुआ है. ऐसे में राम लला की आड़ में संघ का शक्ति प्रदर्शन संविधान की ताकत के समकक्ष आने का जरिया भर है. 6 दिसंबर 92 की तारीख का भी चुनाव शायद इस बात को ध्यान में रख कर किया गया था क्योंकि उस दिन संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के मुखिया डॉ. अंबेडकर का जन्मदिन था, और 25 नवंबर 2018 की तिथि भी इस बात को ध्यान में रख कर चुनी गई क्योंकि यह तारीख संविधान दिवस की पूर्व संध्या थी.

लेकिन इन सबके बावजूद अगर 25 नवंबर को कुछ नहीं हुआ तो इसका कारण यह भी है कि संघ के मन में इस बात का डर है कि अगर कोई अनहोनी हो जाती वैश्विक स्तर पर भारत पर सवाल उठाया जाता कि सुरक्षा व्यवस्था होने के बावजूद भीड़ इतने गंभीर मुद्दे पर हावी कैसे हो गई? इस सवाल की जद में संघ समेत बीजेपी और विपक्ष भी कठघरे में आ जाता और विवादित स्थल पर किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना दोबारा होने पर नौकरशाही और न्याय पालिका की साख को भी प्रभावित करती. संघ को अंतःकरण में इस बात का अंदाजा है कि अयोध्या के एक छोटे से जमीन के टुकड़े पर चल रहा मंदिर बनाम मस्जिद का यह मामला वैश्विक पटल पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा भी गंभीरता से लिया जा रहा है. लिहाजा संघ ने बहुसंख्यक अतिवाद को बढ़ावा देने के बजाय इस धर्मसभा के माध्यम से सिर्फ एक छोटा प्रयोग करना ही जरूरी समझा.

शिवसेना की रामभक्ति 

पीटीआई

विहिप के अलावा इस आयोजन में अगर प्रखर रूप से कोई राजनीतिक दल सामने आया तो वह है शिवसेना, लेकिन इस शिवसेना में अब थोड़ा परिवर्तन आया है, यह स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना नहीं रही बल्कि अब यह उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे की शिवसेना है. और इस नई शिवसेना के सामने चुनौतियां भी नई-नई हैं. महाराष्ट्र में रह रहे उत्तर भारतीयों के मन में शिवसेना के प्रति उपजे विद्रोह के बाद उद्धव ठाकरे को भी रामजी की शरण में आना ही पड़ा. ये अलग बात है कि वे मुंबई के अपने घर के नजदीक वाले राम मंदिर में उस श्रद्धा के साथ कभी नहीं गए जिस तरह वे सरकार की एक कृपापात्र बहुराष्ट्रीय कंपनी के निजी विमान में सवार होकर अयोध्या आए.

अयोध्या पहुंचने पर उन्होंने कहा कि वे कुंभकर्ण को जगाने आए हैं. अब सवाल यह है कि असली कुंभकर्ण तो प्रभु श्रीराम द्वारा कब का मारा जा चुका है. ऐसे में वे कुंभकर्ण की संज्ञा किसे दे रहे थे, यह अब तक स्पष्ट नहीं हुआ है. शिवसेना ने सुन्दर लिफाफों में संतों को प्रणाम भी अर्पित किया क्योंकि वे वाल्मीकि रामायण या तुलसी कृत रामचरित मानस के माध्यम से संतों में संपर्क साधने में असमर्थ थे. और वैसे भी तुलसीदास जी ने मानस की रचना के दौरान कई कष्ट झेले हैं ऐसे में उनका विवरण न करके उद्धव ठाकरे ने ठीक ही किया लेकिन अगर वे मानस पढ़ पाए होते तो शायद वे कुंभकर्ण की बजाय कोई और उदहारण देते.

बहरहाल शिवसेना की चिंता का विषय श्रीराम को पढ़ना नहीं है क्योंकि अगर वाकई उन्हें श्रीराम के बारे में जानने की इच्छा होती तो वे फादर कामिल बुल्के के शोध कार्य को पढ़ कर आते जिन्होंने भारत में उपलब्ध प्रभु श्रीराम से सबन्धित ग्रंथों एवं पुस्तकों पर शोध किया है और इसी विषय पर उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी मिली है. शिवसेना की असली चिंता श्रीराम नाम पर खोया जनाधार वापस पाने की है और इसी मंशा ने शिवसेना को इस आयोजन के प्रति सक्रिय किया.

दरअसल राम मंदिर का मुद्दा प्रारंभ से ही राम के प्रति आस्था का कम, और सत्ता प्राप्ति के मंतव्य का अधिक रहा है. हालिया रस्साकशी शिवसेना और बीजेपी में है कि राम मंदिर के प्रति सबसे अधिक आस्थावान कौन है. और इस रस्साकशी में दोनों तरफ से जुमले उछाले जा रहे हैं, और नए रास्ते तलाशे जा रहे हैं. ऐसे में शिवसेना दोनों तरफ से घिरी हुई है, जहां एक तरफ महाराष्ट्र में बीजेपी के प्रति उपजा संदेह और उत्तर भारतीयों का विरोध है और दूसरी तरफ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे का मराठियों के बीच बढ़ता पैनापन है. अयोध्या धर्म सभा के मामले में राज ठाकरे ने एक अप्रतिम कार्टून बना कर शत्रु धर्म का निर्वाह भी बखूबी किया.

राज ठाकरे ने कार्टून के माध्यम से राम मंदिर के निर्माण पर जोर दे रहे हिंदू संगठनों समेत शिव सेना और बीजेपी पर निशाना साधा है. राज ठाकरे ने अपने कार्टून में भगवान राम को अपने भाई लक्ष्मण के साथ चट्टान पर बैठे हुए दिखाया है और उनके सामने कुछ लोग नारे लगाते दिख रहे हैं. कार्टून में राम मंदिर की मांग पर नारे लगा रहे लोगों से राम सवाल करते दिख रहे हैं, मराठी भाषा में लिखे इस सवाल का हिंदी अनुवाद करें तो उसका अर्थ है, 'तुम सब लोगों ने देश को गहरे गढ्ढे में धकेल दिया है और अब मेरे नाम का इस्तेमाल कर रहे हो. लोगों ने राम राज्य की मांग की है राम मंदिर की नहीं.'

इस कार्टून में बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के अलावा राज के चचेरे भाई उद्धव ठाकरे भी नजर आ रहे हैं. राज ठाकरे ने यह कार्टून फेसबुक और ट्विटर पर ऐन उसी वक्त पर शेयर किया जब अयोध्या में धर्म सभा का आयोजन हो रहा था.

धर्म सभा बनाम धर्म संसद

'अगर अयोध्या मामला वाकई धर्म से जुड़ा है तो फिर इस धर्म सभा में किसी पीठ के शंकराचार्य को क्यों नहीं शामिल किया गया?' यह सवाल भी हिंदू संगठनों समेत देश भर के हिंदू मठों में कई दिन से तैर रहा है. और इस सवाल को केंद्र बिंदु में रख कर अयोध्या से सैकड़ों मील दूर वाराणसी में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के शिष्य स्वामी अविमुक्तेशवरानन्द ने धर्म संसद के माध्यम से उठाने की कोशिश की लेकिन मीडिया ने कई स्थानीय कारणों और दबावों के कारण प्रमुखता से नहीं दिखाया.

काशी में आयोजित हो रही इस धर्म संसद में मुख्य रूप से तीन मुद्दों को प्राथमिकता दी जा रही है जो क्रमशः राम मंदिर, गाय और गंगा हैं. लेकिन इस धर्मं संसद को मीडिया ने सिर्फ राम मंदिर से जोड़ कर दिखाया और शेष बिंदुओं पर चर्चा नहीं की.

जनमानस के राम और राम की अयोध्या 

वाल्मिकी के राम, तुलसी के राम और शबरी के राम को राजनीति और सत्ता लोभ ने किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है इस बात की चर्चा करनी हो तो गांव में किसी सामान्य रामभक्त से पूछिये. टेंट में अपने सम्मान को वापस पाने का इंतजार कर रहे रामलला ने 25 नवंबर को भी वही नारे सुने जो उन्होंने नब्बे के दशक में सुने थे. देश की श्रद्धा के केंद्रबिंदु रामलला का लघु विग्रह टेंट में है, और वहीं से बैठे-बैठे रामलला अब अपनी विशाल मूर्ति बाहर बनते हुए देखेंगे.

खैर, खुशी इस बात की है कि इस तमाम धार्मिक चाकचिक्य के बावजूद अयोध्या में शांति व्यवस्था कायम रही. देश के किसी अन्य प्रान्त में भी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी और कुल मिलाकर यह मान लिया जाना चाहिए कि आम जनमानस अब धर्म के नाम पर समझदार हो गया है. राम ने खुद उजड़ कर लोगों को विवेकवान बना दिया है और इसे राम इच्छा मान लेना ही श्रेयस्कर है.

अयोध्या में आज भी एक पुरानी कहावत कही जाती है - 'जहां बुढ़वन कै संग हुआं खरचन कै तंग, जहां ज्वानन कै संग, हुआं बाजै मिरदंग!' अर्थात जहां वृद्ध जनों का जुटान होगा वहां वे नून तेल लकड़ी को लेकर सिर धुनेंगे ही धुनेंगे, लेकिन जहां नौजवानों की जमात जुटेगी वो सिर धुनने लायक हालात में भी मातम नहीं मनाएगी, वह जुटेगी तो जैसे भी बन पड़ेगा, अपने को उल्लसित रखेगी और मृदंग बजाएगी.

शायद यही वजह रही होगी कि उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद देवरिया के मंझोली राज में जन्मे रामशंकर नाम के एक बालक को युवावस्था में अयोध्या और पखावज के साथ ऐसा प्रेम हुआ कि उन्होंने अपना जीवन यहीं काट दिया. उन्हें हम आज भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के मृदंगाचार्य रामशंकरदास उर्फ स्वामी पागलदास के नाम से जानते हैं.

स्वामी पागलदास पखावज की थाप आज भी अयोध्या में उनके चाहने वालों के मानस पटल पर अंकित है. श्री राम के असली सेवक आज भी मानते हैं कि अयोध्या एक दिन फिर से शांत होगी और वातावरण में सरयू की लहरों के प्रमाद का स्वर होगा और कहीं पार्श्व में पागलदास जी के पखावज की आवाज सुनाई देगी, लेकिन तब तक जितना शोर हो रहा है उसका हो जाना ही श्रेयस्कर है.