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उत्तराखंड में महिलाओं के आंदोलन से सहमी राज्य सरकार, सिर्फ 6 घंटे खुलेंगी दुकानें

उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जिसमें महिलाओं के भागीदारी महत्वपूर्ण रही है.

Namita Singh

महिलाओं के आंदोलन से सहमी लग रही राज्य सरकार ने पहाड़ में शराब की दुकानों के खुलने का समय अब सिर्फ छह घंटे तय किया है. शराब में डूबा पहाड़ महिलाओं के लिए एक बड़ी चुनौती रहा हैं और शराब का विरोध पहाड़ में हमेशा एक आंदोलन के रूप में दिखाई दिया.

पिछले सप्ताह राज्य सरकार ने कैबिनेट की बैठक के बाद घोषणा किया की पहाड़ में शराब की दुकानें अब 12 बजे दिन से 6 बजे शाम तक ही खुली रहेंगी.


'राज्य के 04 मैदानी जनपदों को छोड़कर 09 जनपदों में देशी/विदेशी/बीयर की दुकानों के खुलने का समय 12.00 बजे से शाम 6.00 बजे तक किया जायेगा एवं मैदानी जनपदों देशी/विदेशी/बीयर की दुकानों के खुलने का समय सुबह 10.00 बजे से रात 10.00 बजे तक किया जायेगा.' ऐसा राज्य सरकार ने निर्णय किया है.

उत्तराखंड में आबकारी विभाग एक बड़ा राजस्व का श्रोत रहा है. राज्य सरकार के लिए शराब की बिक्री से मिलने वाले राजस्व का विकल्प खोजना एक कठिन चुनौती है.

हालांकि, सरकार ने पहाड़ में शराब की दुकानों के खुलने का समय कम किया है. वित्तीय वर्ष 2017-18 में आबकारी विभाग के लक्ष्य को बढ़ाकर 2310 करोड़ रखा है. वित्तीय वर्ष 2016-17 में आबकारी विभाग द्वारा1905.7/-करोड़ का राजस्व अर्जन किया गया.

यह इस बात का संकेत है कि राज्य सरकार एक तरफ महिलाओं की भावनाओं का ख्याल भी कर रही है, वहीं दूसरी तरफ आबकारी विभाग को राजस्व बड़ा श्रोत बने रहना देना चाहती है.

गढ़वाल मंडल विकास निगम एवं कुमाऊं मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउसेस में बार खुलने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता. हाईवे से दूर शराब की दुकानों को शिफ्ट करने के विरोध में फिर से महिलाओं ने पहाड़ में आंदोलन किया और नयी सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया.

उत्तराखंड के लिए ये नया नहीं हैं. अंग्रेजों को भी उत्तराखंड में महिलाओं के द्वारा विरोध झेलने पड़े थे. शराब के खिलाफ संघर्ष 60 के दशक से ही शुरू हो गया था. पहाड़ की महिलाएं शराब के विरोध में हमेशा मुखर रहीं क्योंकि शराब ने राज्य के आर्थिक व सामाजिक ताने बाने को काफी प्रभावित किया.

60 के दशक में ही पौड़ी जिले की रहने वाली दीपा नौटियाल जिसने शराब बंदी के खिलाफ आवाज उठायी और अंगरेज अफसर से डरे बगैर अपने  गांव में टिंचर यानी शराब की दूकान जला डाली थी. तभी से लोग उन्हें टिंचरी माई कहने लगे.

नतीजतन 1970 में सरकार को पौड़ी और टिहरी जिले में शराबबंदी लागू करनी पड़ी थी. एक अनपढ़ और अशिक्षित महिला ने शराब का पुरजोर विरोध किया और नारी सशक्तिकरण की नींव डाली. 1970 में शराब के खिलाफ एक और आंदोलन 'नशा नहीं रोजगार दो' की शुरुआत हुई.

अवैध खनन जो कि राज्य में पर्यावरण के लिए हानिकारक है और भ्र्ष्टाचार का एक प्रमुख स्रोत समझा जाता है, वहां भी महिलाएं पीछे नहीं हटीं और जमकर विरोध किया था.

भष्टाचार एवं गलत नीतियों के खिलाफ महिलाओं ने मोर्चा खोला व् कृषि प्रधान मलेथा ग्राम सभा में स्टोन क्रशर के विरोध में धरना प्रदर्शन किया. तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत का ध्यान आकर्षित करने में महिलायें सफल रहीं थी.

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चिपको मूवमेंट से लेकर शराब के विरोध तक

उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जिसमें महिलाओं के भागीदारी महत्वपूर्ण रही है. इस पहाड़ी राज्य में परिवार के लिए संसाधन जुटाती व् मूलभूत आवश्यकताओं के लिए प्रतिदिन जान जोखिम में डालती महिलाएं राज्य के प्रमुख मसलों में अग्रणी भूमिका निभाती आयी हैं.

गरीबी और बेरोजगारी से जूझती महिलाएं और भी समस्याओं से दो चार होती रहती है. पहाड़ी ग्रामीण महिलाएं पुरुषों के शराब की लत, सिमटती कृषि से पैदा हुआ रोजगार संकट और अशिक्षा से निरंतर लड़ती रही हैं.

चिपको मूवमेंट से लेकर राज्य में चल रहे शराब की दुकानों के विरूद्ध आंदोलन तक महिलायें हर सामाजिक आंदोलन में आगे रही हैं और समय समय पर राजनीतिक गतिविधियों और फैसलों को भी प्रभावित किया हैं.

पहाड़ से पलायन, घटती कृषि भूमि, पानी की कमी और निरंतर काम होते प्राकृतिक संसाधन ने महिलाओं को सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए मजबूर किया है.

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मवेशियों के लिए चारा लाने के लिए व खाना पकाने के लिए जरूरी लकड़ियों को इकट्ठा करने के लिए जंगलों में जाते हुए करीब हर रोज जंगली जानवरों के हमलों का सामना करना पड़ता है.

जंगलों को बचाने की मुहीम में अग्रणी रहीं महिलाओं में गौरा देवी जो की विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की जननी रही हैं और जो पहाड़ में जंगलों की अंधाधुंध कटाई के विरुध्द अपनी साथियों के साथ पेड़ों से चिपक गयी थीं.

गौरा देवी जंगलों को अपना मायका कहती थीं और किसी भी कीमत पर उन्हें बचाने के लिए आगे रहीं तब पहाड़ों में वन निगम के माध्यम से ठेकेदारों को पेड़ काटने का ठेका दिया जाता था.  गौरा देवी को जब पता चला की पहाड़ों में पेड़ काटने के लिए ठेके दिए जा रहे हैं तो उन्होंने अपने  गांव में महिला मंगल दल का गठन किया और अपना सम्पूर्ण जीवन गांव और जंगल की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया.

सामाजिक ही नहीं राजनितिक क्षेत्र में भी महिलाएं अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहीं. पिछले कई चुनाव में महिलाओं का वोट परसेंट पुरूषों से कहीं आगे रहा. हालांकि सत्ता में उनकी भागीदारी को हमेशा गौण रखा गया. मुश्किल जीवन और दुरूह परिस्थितियों के बीच पहाड़ के महिलाएं प्रजातान्त्रिक भूमिका को निभाने में कभी पीछे नहीं रहीं.