मृत्यु को भी उत्सव की तरह मनाने वाले शहर बनारस के लोग आज सीएम योगी के फरमान से किंकर्तव्यविमूढ़ हैं. कुछ सूझ नहीं रहा है कि क्या करें.
डायनेमिक मुख्यमंत्री योगी ने दफ्तरों में पान खाने पर प्रतिबंध लगा दिया. दफ्तरों में पान खाने को गुनाह की श्रेणी में रख दिया.
योगीजी के प्रति अपार श्रद्धा के बावजूद बनारसियों को लग रहा है कि योगी जी ने उन्हें मीठी छूरी से हलाल कर दिया है. इतना कष्ट तो 'नोटबंदी' क्या, इंदिरा गांधी के 'नसबंदी' अभियान के दौरान भी उन्हें नहीं हुआ था.
बनारस में तो पान खाने को व्यसन कहना ही प्रहसन है
अब योगीजी को कौन समझाए कि भोले बाबा की नगरी में पान खाना व्यसन नहीं है. बनारस में तो पान खाने को व्यसन कहना ही प्रहसन है.
बनारस में पान न खाना ही अलिखित गुनाह है. ऐसा गुनाह जो आपकी सभ्यता और सामाजिक होने पर सवाल उठाता है. पान बनारसी का 'शगल' नहीं होता. पान तो उसका जीवन और अध्यात्म बल होता है. बनारसी के लिए पान खाना पद्मासन लगाने जैसी प्राथमिक और सम्यक सीढ़ी जैसा है.
अमीरजादा और रिक्शावाला दोनों ही यहां पान का शौक रखते हैं. पान से जुड़ने का मतलब सबसे छोटे आदमी से जुड़ने जैसा है. यह वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा सिंबल है. बनारस में पान को रोकना, अविनाशी परंपरा को रोकना है.
पान पर पाबंदी हुक्का-पानी बंद करने जैसा है, उर्वर बनारसी की नसबंदी कर देने जैसा है. जानने वाले जानते हैं कि बनारस और पान का योग मणिकांचन योग जैसा है.
बनारसी हैरान हैं कि युगदृष्टा योगी को पान का सिर्फ स्याह पक्ष ही क्यों दिखा. कुछ बनारसियों ने तो सोशल मीडिया के जरिए सीएम योगी से अपील की है कि योगीजी पान का सिर्फ स्याह पक्ष ही मत देखिए.
पान का रस मुंह में घुलते ही सही अर्थों में 'काम' बोलने लगता है
कभी बनारस आइए और मुंह में पान घुलाइए और इसका सृजनात्मक पक्ष भी देखिए. न जाने कितने लेखक, शायर, संगीतज्ञ और राजनीतिज्ञ इसके मुरीद रहे हैं.
पान संस्कार नहीं गिराता बल्कि यह तो मुंह में घुलकर व्यक्ति को समाज में मौन रहने जैसे उच्च संस्कारों से स्वतः ही लैश कर देता है. पान मुंह में जाते ही गर्दन खुदबखुद ऊपर हो जाती है. इशारों-इशारों में पूरी बातें ऐसे होती हैं कि कोई गूंगा-बहरा भी शरमा जाए.
बड़े से बड़ा रूका हुआ काम हो या सरकारी दफ्तरों की फाइल पान से एक झटके में आगे बढ़ जाती है. बड़े-बड़े खुर्राट दारोगा, अधिकारी और बाबूओं को एक पान पिघला देता है.
बनारस में पान खिलाने का एहसान नमक खिलाने के एहसान से बड़ा होता है. भाईचारा और आपसी मेलजोल बढ़ाने में जितना योगदान पान ने दिया उतना तो शायद गांधी, नेहरू और पटेल ने भी नहीं दिया.
पान का रस तालू और कंठ से होते हुए जब उदर में उतरता है तो सारे स्नायुतंत्र चैतन्य हो जाते हैं. चतुर्दिक काम का माहौल बनने लगता है. सही अर्थों में 'काम' बोलने लगता है.
तभी तो पान की दुकानों पर यहां ऐसी भीड़ लगती है जैसे शाहरुख खान की फिल्म का टिकट ब्लैक में बिक रहा हो. पनवारी भी इस अंदाज से पान लगाकर अपने ग्राहक को देता है जैसे प्रतिष्ठा का कोई प्रमाणपत्र दे रहा हो.
पान यहां संयम और शांति का द्योतक है
तंग गलियों में घूमते वक्त किसी खिड़की से पान की पीक की फुहार सिर पर पड़ जाए तो भी किसी के सम्मान पर ठेस नहीं पहुंचती. सिर्फ 'का राजा इहे होई' कह कर एक-दूसरे की ओर मुस्कान उछालकर आगे बढ़ जाते हैं.
योगीजी अगर पान की पीक को पिच्च-पिच्च थूकते लोगों को बनारसी समझ रहे हैं तो वे दिग्भ्रम के शिकार हैं. बनारसी जगह-जगह थूकता नहीं. वह पान भले ही दिन में पांच बार खाए लेकिन मुंह में घंटों घोले रखता है. क्या मजाल जो झक सफेद कुर्ते पर पीक के छींटें दिख जाए.
यह दारू और शराब नहीं, जो घर में झगड़ा करा दे. यहां तो श्रीमति जी भी इतराते हुए कहती हैं कि 'पान खाए सईयां हमार''. प्रभु भी तभी प्रसन्न होते हैं जब 'तांबूलम समर्पयामी' कहकर बनारसी पान चढ़ता है.
बनारसी पान की महिमा आयुर्वेद से लेकर संस्कृत काव्यों तक सर्वत्र चर्चित है. पान महज कोई पत्ता नहीं है, पान अनहद प्रकृति का वानस्पतिक रूप है.
पान की प्रक्रिया सहज नहीं. इसे पहले फेरा जाता है, फिर कत्थे को जमाया जाता है, फिर चूने को लगाया जाता है. फेरने, जमाने और लगाने की प्रक्रिया आध्यात्मिक रसानुभूति से कम नहीं है. इस रसानुभूति के अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा तक दीवाने रहे हैं.
2014 में ही पीएम मोदी ने बनारसियों से पान खाकर सड़क पर नहीं थूकने का वादा लिया था. वह वादा आज भी कायम हैं. फिर पाबंदी लगाने की क्या आन पड़ी.
हम तो यही कहेंगे... योगीजी हम बनारसियों के दिल पर चोट मत पहुंचाइए. बनारसी की पहचान को मत मिटाइए. कल किस मुंह से हम अपनी पहचान बताएंगे. मुनव्वर राणा हमारी इसी पहचान पर तो यह कहने को मजबूर हुए थे कि.
''मुहब्बत करते हो और आंसू बहाना नहीं आता
अरे बनारस में रहते हो और पान खाना नहीं आता...''