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अगर उबर के ड्राइवर न्यूनतम मजदूरी मांगने लगें तो?

अगर अमेरीका जैसे भारत में भी उबर के ड्राइवर न्यूनतम मजदूरी मांगने लगें तो?

Sheldon Pinto

शेयरिंग टैक्सी सर्विस उबर की भारत में शुरुआत बहुत अच्छी नहीं रही थी. पर अब ये सेवा बड़ी तेजी से कारोबार बढ़ा रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि ये सस्ते में लोगों को टैक्सी की सुविधा मुहैया करा रही है. इससे उबर के ड्राइवरों को भी फायदा हो रहा है, कंपनी को भी हो रहा है. और ग्राहक भी खुश हैं.

उबर के ग्राहक क्या चाहते हैं?


इस सवाल का सीधा सा जवाब है. ग्राहक चाहते हैं कि ड्राइवर उनको कहीं चलने के लिए मना न करे, चाहे पास में जाना हो या कहीं दूर. लोग आम टैक्सी सेवाओं से इसीलिए परेशान थे कि अक्सर थोड़ी दूरी के सफर की बात करने पर वो मुंह फेर लेते थे, इसीलिए उबर और ओला जैसी ऐप टैक्सी सेवाएं कामयाब हुईं. साथ ही साफ-सुथरी टैक्सी मिलती है. गाड़ी में एसी मिलता है और मांग के हिसाब से किराया घटता बढ़ता रहता है.

ग्राहक की बात क्यों मानेगा? इससे किराया बढ़ने का भी डर है.

न्यूनतम मजदूरी का विवाद

फिलहाल तो ग्राहक, ड्राइवर और कंपनी तीनों ही खुश हैं. मगर आगे चलकर एक विवाद खड़ा हो सकता है. इसकी झलक ऊबर के अमेरिका के ऑपरेशन में देखने को मिली है. जहां सैन फ्रांसिस्को में ऊबर के ड्राइवर 15 डॉलर प्रति घंटे की न्यूनतम मजदूरी की मांग कर रहे हैं. इससे ऊबर के ग्राहकों और ड्राइवरों, दोनों को झटका लग सकता है.

मांग के वक्त ज्यादा किराया यानी सर्ज प्राइसिंग और डायनामिक प्राइसिंग के जरिए ऊबर जैसी कंपनियां ग्राहक और ऊबर ड्राइवर के बीच तालमेल बैठाती हैं. ताकि मांग के हिसाब से ड्राइवर को पैसे मिल सकें. लेकिन अगर ड्राइवर को न्यूनतम मजदूरी की गारंटी मिलेगी, तो वो ग्राहक की बात क्यों मानेगा? इससे किराया बढ़ने का भी डर है. ऐसा होगा तो ग्राहक भाग जाएंगे. याद रहे कि खीझा हुआ ग्राहक किसी भी कारोबार के लिए सही नहीं.

सैन फ्रांसिस्को में ऊबर के ड्राइवर 15 डॉलर प्रति घंटे की न्यूनतम मजदूरी की मांग कर रहे हैं. इससे ऊबर के ग्राहकों और ड्राइवरों, दोनों को झटका लग सकता है.

बिना कार के ड्राइवर

असल में ये दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब ऊबर के ज्यादातर ड्राइवरों के पास अपनी गाड़ी नहीं होती. ये लोग गाड़ी मालिकों से किराए पर गाड़ी लेते हैं और ऊबर के लिए सेवाएं देते हैं. उन्हें इसके बदले में गाड़ी के मालिकों को अच्छी खासी रकम देनी पड़ती है. इसका दबाव ऐसा होता है कि ऊबर के ड्राइवर न कंपनी के हितों का ध्यान रख पाते हैं. और न ही वो ग्राहकों की तरफ पूरा ध्यान दे पाते हैं. वो तो बस मालिकों की डिमांड पूरी करने में लगे रह जाते हैं.

हालांकि ऐसे हालात से बचने के लिए ऊबर कंपनी खुद भी कुछ ड्राइवरों को कुछ पैसों के एवज में कार चलाने को देती है. वो महीने में किस्त दे देते हैं. कुछ सालों बाद गाड़ी उनकी हो जाती है.

साथ ही ड्राइवरों का हौसला बढ़ाने के लिए ऊबर दिन में तय संख्या में राइड देने वाले ड्राइवरों को 6000 रुपये ज्यादा देती है. ऐसे में ड्राइवर को लगता है कि वो छोटी दूरी के ग्राहकों को पकड़ें. इससे वो दिन में ज्यादा से ज्यादा राइड देकर ज्यादा पैसे कमा सकेंगे. लंबी दूरी के लिए निकलने वाले ग्राहकों को इससे निराशा होती है. हालांकि ऊबर

ऐसे में जब मालिक के हिस्से की मांग बढ़ती है तो इसका सीधा असर ग्राहक की जेब पर पड़ता है. सस्ती सेवा की उम्मीद टूटती है. मुश्किल से गाड़ी मिलती है. शायद इसीलिए ऊबर, ड्राइवरों को चलाने के लिए किराये पर कार देती है.

भारत में न्यूनतम मजदूरी

भारत में ऊबर के ड्राइवरों का न्यूनतम मजदूरी मांगने की आशंका फिलहाल तो नहीं है. क्योंकि ऊबर के मौजूदा बिजनेस मॉडल से सब खुश हैं. सबको फायदा हो रहा है, तो इस मॉडल से अलग मांग कौन करेगा भला? ऐसे में जब ड्राइवर तयशुदा रकम की मांग करेंगे तो वो दौड़-भागकर ज्यादा काम करने का हौसला खो देंगे. वो ऐसा करेंगे तो ग्राहक भी दुखी होकर दूसरी कंपनियों का रुख करेंगे. कंपनी को इससे भारी नुकसान होगा.

और अगर उबर वाले मांग करेंगे तो दूसरी टैक्सी सेवाओं के ड्राइवर भी न्यूनतम मजदूरी की मांग करेंगे. ऐसे में सरकार दखल देने को मजबूर होगी. सरकार के दखल का मतलब है घटते-बढ़ते किराये पर पाबंदी. फिर रेडियो कैब्स पर रोक लगेगी. कुल मिलाकर टैक्सी सेवाओं का भट्ठा बैठना तय है.