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विवेकानंद फ्लाईओवर हादसा: लटकते ढांचे को ढहाने में दुविधा में क्यों है ममता सरकार?

सरकार को डर है कि अगर उसने फ्लाई ओवर ढहाने की सोची तो 100 करोड़ रुपए और खर्च आएगा. सवाल है कि क्या खर्च के डर से सैकड़ों और जिंदगियों को दांव पर लगाया जाना ठीक है

Amita Ghose

कोलकाता की गीता दास का दिन सुबह 4 बजे शुरू होता है. पिछले 10 वर्षों से उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है. 31 बरस की गीता कोलकाता के बड़ा बाजार और पोस्ता इलाकों में साफ-सफाई का काम करती हैं.

काम निपटाकर गीता हर दिन दोपहर में करीब 12 बजे घर लौटतीं है. फिर उनका घर का काम शुरू होता है. वो खाना बनाकर अपने बच्चों को खिलाती हैं. गीता दास कोलकाता के विवेकानंद रोड फ्लाईओवर के तीसरे खंभे के नीचे रहती हैं.


विवेकानंद फ्लाईओवर के हादसे को याद करते हुए गीता दास कहती हैं, 'वो गुरुवार का दिन था. वो दिन भी आज के किसी दिन की तरह ही शुरू हुआ था. मैं तय वक्त पर काम के लिए निकल गई थी. लेकिन जब लौटी, तो सब खत्म हो चुका था'.

हादसे वाले दिन गौरी दास अपने रोजमर्रा के वक्त से पहले घर आ गए थे

गीता के पति गौरी दास 31 मार्च, 2016 को विवेकानंद फ्लाईओवर गिरने के हादसे में मारे गए थे. 35 बरस के गौरी हाथ रिक्शा चलाते थे. गीता इसे बदकिस्मती ही कहती हैं. क्योंकि हादसे वाले दिन गौरी अपने रोजमर्रा के वक्त से पहले घर आ गए थे. काम से लौट कर गौरी अपने दोस्तों के साथ गणेश टाकीज की इमारत के पास सुस्ता रहे थे.

(फोटो: सात्विक पॉल)

गीता याद करते हुए कहती हैं, 'मेरी अपने पति से आखिरी बार बात हादसे से पहले वाली रात को हुई थी.' हादसे के बाद गीता और उनका परिवार फ्लाईओवर के नीचे ज्यादा सुरक्षित हिस्से में आ कर रहने लगा. फिर भी जरा सी आवाज होने पर उनका परिवार डर के मारे रात भर जागता रहता है.

शनिवार को विवेकानंद फ्लाईओवर गिरने के 2016 में हुए हादसे को ठीक दो साल पूरे हो गए. उस दिन 2.2 किलोमीटर लंबे फ्लाईओवर का 41 मीटर लंबा स्लैब गिर गया था. हादसे में कुल 26 लोगों की मौत हो गई थी. जबकि 11 लोग जख्मी हो गए थे.

आज 2 साल बाद सवाल यह है कि आखिर पश्चिम बंगाल सरकार ने उस हादसे से क्या सबक लिया? विवेकानंद रोड के करीब रहने वाले कहते हैं कि उनकी जिंदगी रोज मुश्किलों का सामना करती है. वो तकलीफ में जी रहे हैं, क्योंकि सरकार ने हालात सुधारने के लिए एक भी कदम नहीं उठाया है. हादसे के बाद फ्लाईओवर का टूटा हुआ हिस्सा तो वहां से हटा दिया गया. लेकिन वो आखिरी मौका था, जब सरकार ने कोई कार्रवाई की थी. उसके बाद स्थानीय लोगों ने फ्लाईओवर को लेकर किसी सरकारी काम को होते हुए नहीं देखा.

हादसे के बाद से ही फ्लाईओवर का एक हिस्सा लटक रहा है. यह मंजर स्थानीय लोगों को रोज डराता है. आने-जाने वाले भी इसके नीचे से खौफ के साए में गुजरते हैं. यह कोलकाता की बेहद व्यस्त सड़क है. यहां से रोजाना हजारों गाड़ियां गुजरती हैं. इसके नीचे कम से कम सौ छोटी-मोटी दुकानें चलती हैं. फ्लाईओवर के दोनों तरफ के फुटपाथ सैकड़ों बेघर लोगों का हर रात आशियाना बनते हैं.

(फोटो: सात्विक पॉल)

हादसे के 2 साल पूरे होने के ठीक पहले आईआईटी खड़गपुर ने अपनी रिपोर्ट में इस फ्लाईओवर को पूरी तरह गिराने की सिफारिश की थी. इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया है. ऐसा लगा कि यह रिपोर्ट ये साबित करने के लिए दी गई थी कि इस मसले पर बंगाल की सरकार कितनी असहाय है. जब भी इस मसले पर सरकारी बयान आया, तो मानो उसमें एक छुपी हुई चीख थी- इस फ्लाईओवर को रहने दें, या गिरा दें.

फ्लाईओवर के हिस्से अभी भी लटक रहे हैं. वो कभी भी सिर पर गिर सकते हैं

स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता और टीएमसी समर्थक बरुन मलिक कहते हैं, 'आम लोग हमेशा की सबसे ज्यादा मुश्किल झेलते हैं. इस इलाके के लोग हादसे के बाद से ही खौफ के साए में जी रहे हैं. यह एक बहुत बड़ा हादसा था. हादसे के बाद जिंदगी की रफ्तार सामान्य होने में एक महीने से ज्यादा लग गए थे. मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं, जो इधर से गुजरने से पहले दो बार सोचते हैं. फ्लाईओवर के हिस्से अभी तक लटक रहे हैं. वो कभी भी सिर पर गिर सकते हैं.'

आईआईटी खड़गपुर की रिपोर्ट के मुताबिक, गणेश टाकीज और गिरीश पार्क के बीच का फ्लाईओवर का हिस्सा खराब डिजाइन, घटिया सामान और खराब काम की वजह से असुरक्षित है. रिपोर्ट में सरकार के ट्रैफिक सर्वे पर भी सवाल उठाए गए हैं. इसी सर्वे की बुनियाद पर विवेकानंद फ्लाईओवर बनाने के लिए 168 करोड़ के प्रोजेक्ट को 2008 में मंजूरी दी गई थी.

(फोटो: सात्विक पॉल)

इसे बनाने का ठेका कोलकाता की इंजीनियरिंग कंपनी आईवीआरसीएल को दिया गया था. रिपोर्ट के मुताबिक, कंपनी ने फ्लाईओवर का जो डिजाइन पेश किया था, उसमें कई खामिया थीं. लेकिन इसे 24 घंटे के अंदर ही शहर की एक यूनिवर्सिटी ने हरी झंडी दे दी थी. केवल 24 घंटे में. फ्लाईओवर का निर्माण 2009 में शुरू हुआ था. इसे पूरा करने के लिए 19 महीने की डेडलाइन तय की गई थी. लेकिन 7 साल बाद भी 2016 में हादसे के वक्त इस फ्लाईओवर का 25 फीसदी काम बचा हुआ था.

इस प्रोजेक्ट से जुड़ी शिकायतों की लंबी फेहरिस्त है. कई छोटी तो कई बड़ी. वर्ष 2016 में ही मुख्य सचिव बासुदेव बनर्जी की अगुवाई वाली एक कमेटी ने फ्लाईओवर को पूरी तरह से गिराने की सिफारिश की थी. लेकिन राज्य सरकार तब भी दुविधा में थी. तब सरकार ने आईआईटी खड़गपुर से कमेटी की सिफारिशों की समीक्षा करने को कहा. अब इस फ्लाईओवर को ढहाने में आने वाले खर्च को लेकर राज्य सरकार का सचिवालय और जिम्मेदार अधिकारी फिर से दुविधा के शिकार हैं.

सरकार इस फ्लाईओवर को वन-वे ट्रैफिक के लिए इस्तेमाल करने की सोच रही 

आईआईटी खड़गपुर के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के एक सूत्र ने बताया कि, 'जब हमने राज्य सचिवालय यानी नबन्ना को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो हमें बताया गया कि राज्य सरकार इस फ्लाईओवर को वन-वे ट्रैफिक के लिए इस्तेमाल करने की सोच रही है. जबकि फ्लाईओवर में अब जरा भी मजबूती नहीं बची है. यह एक वक्त में 10 गाड़ियों का बोझ भी नहीं उठा पाएगा. सरकार को डर है कि अगर उसने फ्लाई ओवर ढहाने की सोची तो 100 करोड़ रुपए और खर्च आएगा. सवाल यह है कि क्या खर्च के डर से सैकड़ों और जिंदगियों को दांव पर लगाया जाना ठीक है.'

आईआईटी खडगपुर

हम ने मौजूदा मुख्य सचिव से उनके मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश की. हमारी कई कोशिशों, ई-मेल और मैसेज के बावजूद मुख्य सचिव मलय डे ने कोई जवाब नहीं दिया. हालांकि इस बारे में सरकार क्या कदम उठाने की सोच रही है, इसकी पड़ताल करने से हमें नहीं रोका गया. हमने प्रधान सचिव इंदेवर पांडे से बात करने की कई बार कोशिश की. पहले तीन दिन तक तो उनके ऑफिस ने फोन पर बात करने से बचने की कोशिश की. अगले दो दिन उनका रवैया पूरी तरह से सरकारी था. हमारे फोन कॉल की अनदेखी होती रही. आखिर में इंजीनियर इन चीफ ऐंड ई. ओ सेक्रेटरी श्रीकुमार भट्टाचार्य ने हमारे फोन कॉल का जवाब दिया.

4 मिनट 56 सेकेंड की हमारी बातचीत की शुरुआत से लेकर अंत तक श्रीकुमार ने कहा कि इस बारे में बात करने के लिए इंदेवर पांडे ही सही अधिकारी हैं. वो ही यह तय करेंगे कि फ्लाईओवर का भविष्य क्या होगा.

श्रीकुमार ने फ़र्स्टपोस्ट से कहा कि, 'सरकार दुविधा में है क्योंकि इस प्रोजेक्ट पर पहले ही 200 करोड़ रुपए से ज्यादा का खर्च हो चुका है. अब अगर इसे गिराने का फैसला होता है, तो इसमें भी 100 करोड़ रुपए का खर्च आएगा. यह कोई बुद्धिमानी नहीं होगी. ऐसे फैसले जल्दबाजी में नहीं लिए जा सकते. लेकिन हमें उम्मीद है कि हम इसे लेकर जल्द ही किसी नतीजे पर पहुंच जाएंगे.'

(फोटो: सात्विक पॉल)

रिहाइशी बस्तियों और फ्लाईओवर के बीच महज दो फुट का फासला 

जब हम पोस्ता इलाके में फ्लाईओवर के आस-पास के इलाकों का मुआयना करने पहुंचे तो हमें स्थानीय लोगों के चेहरे पर डर साफ दिखा. साथ ही दिखा कि रिहाइशी बस्तियों और फ्लाईओवर के बीच महज दो फुट का फासला है. फ्लाईओवर का एक हिस्सा स्थानीय लोगों के लिए कूड़ेदान बन गया है. जहां प्लास्टिक, खाने-पीने के बचे सामान और जानवरों के मल का ढेर लगा हुआ था. 13बी विवेकानंद रोड के रहने वाले शशि सेठिया ने बताया कि, 'हमने टीएमसी के स्थानीय नेताओं के जरिए विधायक स्मिता बख्शी और सांसद सुदीप बंदोपाध्याय से संपर्क साधने की कई बार कोशिश की, ताकि हम उन्हें अपनी परेशानियों से रूबरू करा सकें. लेकिन किसी को हमारी फिक्र नहीं. किसी ने हादसे के बाद एक बार भी इधर आने की जहमत नहीं उठाई.'

शंभू पांडे, विवेकानंद रोड पर किराने की दुकान चलाते हैं. वो भी फ्लाईओवर के भविष्य को लेकर फिक्रमंद हैं. वो कहते हैं कि इसकी वजह से कई दिक्कतें हो रही हैं. पांडे कहते हैं कि, 'कई ऐसे मकान हैं जिनके खिड़की और दरवाजे फ्लाईओवर के नीचे पड़ते हैं. जब इसे बनाया जा रहा था, तभी लोगों ने ऐतराज किया था. लेकिन किसी ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया. अगर फ्लाईओवर का दक्षिणी हिस्सा गिरता है, तो और भी ज्यादा नुकसान होगा. कम से कम 10 से 12 मकान इसके नीचे आ जाएंगे. अगर सरकार फैसला लेने में देर कर रही है, तो उसे सड़क पर रहने वाले बच्चों, रिक्शा और टैक्सी ड्राइवरों की हिफाजत करनी चाहिए. क्योंकि फ्लाईओवर के नीचे रहते हुए उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं कि यह कितना खतरनाक हो सकता है. उन्हें तो बस अपने सिर के ऊपर साया चाहिए. भगवान न करे अगर 2016 जैसा हादसा फिर से होता है, तो बहुत से लोग मारे जाएंगे.'

(फोटो: सात्विक पॉल)

'टीएमसी से पहले की लेफ्ट सरकार सारा पैसा खा गई'

जब हमने स्थानीय टीएमसी विधायक स्मिता बख्शी से बात की, तो उन्होंने पूर्ववर्ती वामपंथी सरकार के सिर पूरा ठीकरा फोड़ दिया. बख्शी ने कहा कि उन्हें कभी भी स्थानीय लोगों की रोजमर्रा की शिकायतें न तो मुंहजबानी मिलीं और न ही लिखित रूप से. जब हमने उनसे पूछा कि उन्होंने कभी भी इस बारे में ममता बनर्जी या उनके करीबी सलाहकारों से बात की, तो स्मिता बख्शी ने कहा कि, 'सीनियर अधिकारियों ने कभी मुझसे मशविरा नहीं किया. मुझे लगता है कि वो जरूरी कदम उठा रहे हैं. हां, कभी भी कोई स्थानीय निवासी मेरे पास लिखित शिकायत लेकर नहीं आया. ऐसे में मैं अधिकारियों से क्या बात करूं? टीएमसी से पहले की लेफ्ट सरकार सारा पैसा खा गई. टीएमसी की सरकार उन कमियों को दूर करने की पूरी कोशिश कर रही है.'