1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है. दुनियाभर में मजदूरों को समर्पित इस खास दिन को लेकर सम्मान जताने की परंपरा है. मजदूर न हो तो फिर मालिक कहने या पुकारने वाला कौन होगा? मजदूरों की ही वजह से मालिक का भी वजूद है.
भारत में पहली बार चेन्नई में 1923 में मजदूर दिवस मनाया गया. गुलामी के उस दौर में मजदूरों के शोषण की इंतेहाई न थी. न तो काम के घंटे तय थे और न ही काम का वाजिब दाम. ऐसे में गुलामी की घुटन में एक दिन सांस लेने की आजादी बना मजदूर दिवस. 8 घंटे काम को लेकर शुरू हुई एक छोटी सी बहस बड़ा आंदोलन बन गई. अगर 1 मई 1886 को अमेरिका में एक घटना न होती तो शायद आज मजदूर दिवस भी नहीं होता.
मजदूर दिवस के मौके पर देश में सार्वजनिक अवकाश रहता है. इस दिन सरकारी दफ्तर, स्कूल-कॉलेज आदि बंद रहते हैं. दुनियाभर के मजदूरों को समर्पित इस दिन को लेकर त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब अलग सोच रखते हैं. बिप्लब देब ने मजदूर दिवस पर छुट्टी को रद्द कर दिया. वो कहते हैं कि वो मुख्यमंत्री हैं और मुख्यमंत्री मजदूर नहीं हो सकता है.
बिप्लव देब कहते हैं कि, 'क्या मेरे लोग मजदूर हैं, नहीं. क्या मैं मजदूर हूं, नहीं. मैं एक मुख्यमंत्री हूं. आप औद्योगिक क्षेत्र में काम नहीं करते हैं, आप सचिवालय में फाइलें देखते हैं. तो ऐसे में आपको छुट्टी की जरूरत क्यों है?
क्या मजदूर होना अपमानजनक है? आखिर बिप्लव देब मजदूरों को क्या समझते हैं? क्या उनके विचारों में सामंती सोच नहीं झलकती?
बिप्लव देब मानते हैं कि मई दिवस मजदूरों के लिए होता है और ये सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए नहीं. ऐसे में सरकारी कर्मचारियों को इसकी छुट्टी की कतई जरूरत नहीं है. इस साल हरियाणा सरकार ने भी मई दिवस पर छुट्टी को रद्द कर दिया था. आखिर मई दिवस की छुट्टी को लेकर इतना सियासी आवेग क्यों है?
त्रिपुरा में पहले सीएम नृपेन चक्रवती ने साल 1978 में मई दिवस पर छुट्टी का ऐलान किया था. मई दिवस श्रमिक अधिकारों का प्रतीक है. इसे सिर्फ ओद्यौगिक सेक्टर से कैसे जोड़ कर देखा जा सकता है?
'त्रिपुरा नरेश' अपने इस अंदाज में भले ही बेबाकी दिखाने की कोशिश करें लेकिन सवाल उठता है कि क्या बिप्लव त्रिपुरा में ओद्यौगिक विकास नहीं चाहते? क्या वो सिर्फ यही मानते हैं कि सचिवालय की फाइलों से ही विकास की दशा और दिशा तय होती है? क्या विकास और निर्माण में मजूदरों और श्रमिकों की कोई भूमिका नहीं होती?
एक बार बिप्लव देब हिंदी साहित्य के महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कालजयी कविता ‘तोड़ती पत्थर’ जरूर पढ़ें तो शायद उन्हें सर्वहारा वर्ग की पीड़ा का अहसास हो. तब शायद वो सामंती सोच से बाहर निकल कर ये अहसास कर सकें कि शोषित और शोषक वर्ग के बीच की खाई को पाटने के लिए एक दिन मई दिवस के रूप में क्यों जरूरी है. इसे सिर्फ छुट्टी का दिन कह कर कैलेंडर से खारिज नहीं किया जा सकता. जो लोग भी राष्ट्रनिर्माण में जुटे हुए हैं वो मेहनती हैं और वो मजदूर भी हैं.
क्या त्रिपुरा में भविष्य में औद्योगिक विकास में तेजी के दिन नहीं आएंगे? किसी ने सोचा था कि तकरीबन तीन दशक तक उग्रवाद के साए में रहने वाले त्रिपुरा में भी एक दिन जिंदगी पटरी पर लौटेगी? लोग सामान्य जीवन शांति के साथ जी सकेंगे?
त्रिपुरा में मुख्य रूप से चाय का उद्योग है तो साथ ही हथकरघा, फलों की पैकिंग,अल्युमिनियम के बर्तनों की मेकिंग मुख्य रूप से की जाती है. चाय उद्योग में ऐसी रौनक लौटी कि आज अमेरिका, रूस और ईरान में त्रिपुरा की चाय की डिमांड है. वहीं त्रिपुरा में छोटे,मंझोले,ग्रामीण और कुटीर उद्योग भी राज्य के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं. इन उद्योगों से जुड़े कारीगर, बुनकर,हथकरघा मजदूर त्रिपुरा के विकास और पहचान की मिलीजुली ताकत हैं. लेकिन ऐसा लगता है जैसे कि बिप्लव देब उन्हें न पहचान कर उनकी पहचान छीनना चाहते हों जैसे.
आज अगर बिप्लव देब ये मान रहे हैं कि वो बड़े उद्योगों को स्थापित करने के खिलाफ नहीं हैं तो उन्हें साथ ही ये भी आश्वस्त करना होगा कि वो मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी कानून और अप्रवासी मजदूरों के अधिकारों के खिलाफ भी नहीं हैं.
मजदूर दिवस एक प्रतीकात्मक रूप है मजदूरों की शक्ति, आत्मसम्मान और अधिकारों की आवाज बुलंद करने का तो साथ ही शोषण के खिलाफ पुरजोर एलान का दस्तावेज भी. लेकिन जिन्होंने मजदूरों और किसानों का संघर्ष नहीं देखा वो सियासत में सत्ता के मुकाम पर बैठकर नीचे की धारा के लोगों का मर्म शायद ही समझ सके. शोषित वर्ग के लिए साल के 365 दिनों में 1 दिन भी सरकार को भारी नहीं पड़ना चाहिए. ये दिन न्यूनतम मजदूरी कानून, अप्रवासी मजदूरों के अधिकार और मजदूर उत्पीड़न को लेकर संघर्ष और आंदोलन का वर्तमान और इतिहास है.
युवा नेता बिप्लब देव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. पीएम मोदी खुद को जनता का सेवक कहते हैं. जबकि बिप्लब देब खुद को मुख्यमंत्री कहते हैं. वो ये भूल रहे हैं कि ये तमगा उसी जनता ने दिया है जिसमें मजदूर भी शामिल हैं तो श्रमिक भी.