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क्या मीडिया सुप्रीम कोर्ट से बड़ा है?

नए किस्म की पत्रकारिता का ताजा शिकार अब ज्यूडिशियरी है

Rakesh Kayasth

सवाल आपको ऊटपटांग लग सकता है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से मेरे जेहन में लगातार कौंध रहा है, क्या इस देश का मीडिया सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ा है? क्या किसी विचाराधीन मुकदमे की सुनवाई के दौरान कोर्ट रूम में जज के आचरण लेकर सवाल खड़े करने का हक मीडिया को है?

क्या ऐसा करना अदालत की विश्सनीयता को कटघरे में खड़ा करने, फैसले को प्रभावित करने और पूरी न्याय व्यवस्था को संदिग्ध बनाने की कोशिश नहीं है?


यह सवाल इसलिए उभरा है क्योंकि देश के कुछ सम्मानित अखबारों ने अति-संवेदनशील तीन तलाक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट रूम में जजों के कार्यकलाप पर टिप्पणी की है.

न्यायिक प्रक्रिया का कवरेज मीडिया के काम का हिस्सा है. लेकिन एक विचाराधीन मुकदमे की सुनवाई के दौरान जिस तरह एक जज विशेष को लेकर टिप्पणी की गई है, उससे गंभीर विवाद खड़े हो सकते हैं.

मीडिया ने उठाये मुस्लिम जज पर सवाल

देश के एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने यह खबर छापी कि तीन तलाक मामले में चली सुनवाई में शामिल एक मुस्लिम जज न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर पूरी कार्यवाही के दौरान एकदम खामोश रहे. अखबार ने लिखा है, छह दिन तक चली सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति नज़ीर ने एक शब्द भी नहीं कहा जबकि बाकी समुदायों से जुड़े जजों ने सभी पक्षों से सवाल पूछे.

अखबार ट्रिपल तलाक की खबर को तथ्य के साथ पेश करें

बेशक अखबार इस खबर को तथ्य के रूप में पेश करे, लेकिन इसे जिस तरह रखा गया, उसका मकसद सिर्फ यही बताना लगता है कि जस्टिस नजीर की चुप्पी की वजह उनका मुसलमान होना था.

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खुद को देश का सबसे विश्वसनीय समाचार संस्थान बताने वाले इस अखबार की खबर को हिंदी-अंग्रेजी की कई वेबसाइट्स ने लपक लिया और जल्द ही ये सोशल मीडिया पर हर जगह नजर आने लगा. ज्यादातर जगहों पर हेडिंग यही है, तीन तलाक मामले की सुनवाई के दौरान मुस्लिम जज चुप.

क्या जज को सार्टिफिकेट पत्रकार देंगे?

मेरा मकसद अखबार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करना नहीं है. हो सकता है कि अखबार के संवाददाता ने लगातार छह दिन तक पलक झपकाये बिना अदालत की कार्यवाही देखी हो और उसके बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हों कि वाकई न्यायमूर्ति नज़ीर ने कुछ नहीं कहा.

लेकिन क्या मीडिया अब कोर्ट रूम में जजों कामकाज का भी पोस्टमार्टम करेगा? क्या कोर्ट में जजों के आचरण पर सार्वजनिक बहस होगी और वो भी किसी पेंडिंग केस के बीचो-बीच? कब सवाल पूछने हैं और कब चुप रहना है, ये सब अब जजों को किसी पत्रकार से सीखना होगा?

बेशक किसी भी अदालती फैसले पर उसके मेरिट के आधार पर टिप्पणी करना हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है और मीडिया की जिम्मेदारी भी. लेकिन किसी ऐसे केस में जिसका फैसला अभी आया नहीं, जज के हाव-भाव पर सवाल उठाने का क्या मतलब है?

ट्रिपल तलाक को सुप्रीम कोर्ट इतना गंभीर मुद्दा मानता है कि बहुत से पुराने पेंडिंग मामलों को दर-किनार करके छुट्टियों के दौरान विशेष बेंच द्वारा इसकी सुनवाई की जा रही है.

ट्रिपल तलाक को सुप्रीम कोर्ट गंभीर मुद्दा मानता है

इस मामले में एक समुदाय विशेष की महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का उस समाज की परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं से सीधा टकराव है. इस मुकदमे के बड़े राजनीतिक असर भी होंगे. केस के फैसले का जिम्मा छह जजों वाली सांवैधानिक पीठ के हवाले है. बहुत से ऐसे मामले में होते हैं, जिनमें खंडपीठ एकमत नहीं होती है और फैसला बहुमत के आधार पर करना पड़ता है.

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जिस तरह अखबार ने मुस्लिम जज की चुप्पी का मुद्दा उठाया है, उसी तरह कल को यह भी सवाल उठा सकता है कि माननीय न्यायमूर्ति की राय बाकी न्यायधीशों से अलग क्यों थी?

फिर इस पर सार्वजनिक चर्चा होगी और सोशल मीडिया के कीचड़ के छींटे देश की सबसे ऊंची अदालत तक भी पहुंचेंगे. जरा सोचिए ये स्थिति हमें कहां ले जाएगी?

ये पत्रकारिता कहां जाकर रुकेगी?

एक इंस्टीट्यूशन के तौर पर मीडिया की साख पर सवाल पहले भी उठते थे. लेकिन यह पतन का एक ऐसा दौर है, जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती. राष्ट्रीय हित के सवालों पर अखबार पहले सतर्क हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है.

खुले आम किसी एक राजनीतिक दल का समर्थन और दूसरे का विरोध एक ट्रेंड बन चुका है. सांप्रादायिक घटनाओं पर खास संवेदनशीलता बरती जाती थी. अब सांप्रादायिक खबरों को बकायदा हिंदू और मुसलमान के नाम से बेचा जाता है.

नए किस्म की पत्रकारिता का शिकार अब ज्यूडिशरी भी है

नये किस्म की पत्रकारिता का ताजा शिकार अब ज्यूडिशियरी है. किसी जज के मजहब के हिसाब से उसके बॉडी लैंग्वेज को डीकोड करके उसपर सार्वजनिक बहस को बढ़ावा गैर-जिम्मेदार पत्रकारिता का नमूना है.

हो सकता है, कुछ कट्टर हिंदूवादी इससे खुश हों. लेकिन उन्हे ध्यान रखना होगा कि इसके नतीजे गंभीर होंगे. इस तरह किसी भी मामले की सुनवाई की कर रहे जज के जाति या धर्म के आधार पर उसके कामकाज पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं.

न्यायपालिका को बख्श दीजिए प्लीज!

हमारा लोकतंत्र जिन खंभों पर टिका है, उनमें सबसे ज्यादा मजबूत न्यायपालिका ही रही है. ज्यूडिशियरी बेदाग और निष्पक्ष होगी, तभी संविधान बचेगा और संविधान बचेगा तभी देश बचेगा. यह सच है कि संस्थानों के अवमूल्यन के दौर में न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल उठे हैं.

इसके बावजूद सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए अब भी यही सबसे बड़ा सहारा है.मीडिया जगत के बचे हुए सजग संपादकों को गंभीरता से सोचना चाहिए कि अदालत से जुड़ी खबरों को कवर करते वक्त उनकी सीमा क्या हो.