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तीन तलाक: मुस्लिम लॉ बोर्ड की बात संविधान ही नहीं कुरान के भी खिलाफ

बोर्ड का कहना है कि तीन तलाक खत्म करने से मुसलमान पाप के भागी होंगे.

Tufail Ahmad

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में तर्क देते हुए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ट्रिपल तलाक पर दो स्थितियों का हवाला दिया.

पहला, उन्होंने सर्वोच्च अदालत से कहा कि अगर ट्रिपल तलाक को अवैध करार दिया जाता है, तो इससे अल्लाह के आदेशों की अवमानना होगी. और तो और इसके चलते कुरान को बदलने की नौबत भी आ सकती है. इतना ही नहीं इससे मुसलमान पाप के भागी होंगे.


दूसरा, उन्होंने तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ प्रोविजन्स जैसे ट्रिपल तलाक को संविधान की धारा 25 के तहत संरक्षण हासिल है. इस धारा के तहत नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने और प्रसारित करने का मूलभूत अधिकार प्राप्त है.

धर्म बड़ा या नागरिक अधिकार?

चलिए दूसरे बिंदू की बात पहले करते हैं. संविधान की धारा 25 भारतीय नागरिकों को 'विवेक का अधिकार और किसी भी धर्म को मानने और प्रचारित करने की आजादी देती है.' लेकिन ये अधिकार दो उपखंडों के अधीन है.

उपखंड 25 (1) के तहत धर्म की आजादी सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और विचार के अधीन है. जबकि उपखंड 25 (2) इस बात को स्पष्ट करता है कि धर्म का अधिकार लोगों के कल्याण के लिए 'किसी राज्य को किसी नए कानून बनाने से' नहीं रोक सकता है.

लिहाजा संविधान की धारा से यह साफ है कि धर्म का अधिकार, जो एक तरह से नागरिकों का हक तो है, लेकिन वो सभी मूलभूत अधिकारों के मुकाबले कमजोर है.

नतीजतन, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान की धारा 25 की आड़ नहीं ले सकते. क्योंकि ट्रिपल तलाक मौजूदा वक्त में सार्वजनिक नैतिकता के खिलाफ है.

इसके अलावा भी धारा 25 में कई और मायने छिपे हैं. अव्वल तो ये कि धर्म की आजादी भारतीय नागरिकों को है, न कि धार्मिक संप्रदायों को. और निश्चित तौर पर ऐसी आजादी एआईएमपीएलबी या जमायत-उलेमा-ए-हिंद या इनके जैसे संगठनों के लिए नहीं है.

दूसरा ये कि धारा 25 किसी नागरिक को उसके विश्वास को पालन और प्रचारित करने का अधिकार तो देती है. लेकिन इसके तहत धार्मिक संप्रदायों के अलग अलग संस्थानात्मक कार्यों को संरक्षण नहीं मिला हुआ है. इसकी वजह ये हो सकती है कि ये किसी धर्म के लिए गैर-जरूरी भी हो सकते हैं.

ऐसे में अगर कोर्ट ट्रिपल तलाक को अवैध करार देती है तो इससे मुसलमानों की धार्मिक आस्था को ठेस नहीं पहुंचेगी और वो किसी पाप के भागी भी नहीं होंगे.

पाकिस्तान समेत करीब एक दर्जन से ज्यादा मुस्लिम देशों में ट्रिपल तलाक पर पहले से ही रोक लगी हुई है.

धारा 25 के तहत धार्मिक परंपराओं को भी संरक्षण प्राप्त नहीं है. इसका सीधा कारण ये है कि इससे नागरिकों की बेहतरी बाधित होती है. गौर करने की बात है कि उत्तराखंड की मुस्लिम औरत शायरा बानो ने सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया है. क्योंकि ट्रिपल तलाक जैसे मनमाने अभ्यास से उनके हितों का नुकसान हो रहा है.

ये साफ है कि संविधान के दायरे में सभी मूलभूत अधिकारों के तहत ही धार्मिक आजादी का भी स्थान है. इसका मतलब ये हुआ कि धारा 14 जो समानता का अधिकार प्रदान करती है, वो धारा 25 को रद्द करती है. इसकी वजह ये है कि ट्रिपल तलाक एक मुस्लिम महिला को कानून के सामने समान हक से वंचित करती है.

इसी प्रकार संविधान की धारा 25 का संबंध धारा 15 (1) से भी है. संविधान की धारा 15 (1) कहती है कि राज्य "किसी भी नागरिक से धर्म, संप्रदाय, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता है". चूंकि ट्रिपल तलाक महिलाओं के खिलाफ है लिहाजा संविधान की धारा 15 (1) का ये सरासर उल्लंघन है.

मुसलमानों का प्रतिनिधि कौन?

अब बारी पहले पॉइंट की व्याख्या की है. एआईएमपीएलबी भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई संस्था नहीं है. न ही इसके सदस्य चुने हुए हैं. इसके साथ ही एआईएमपीएलबी कोई कुरान के खिलाफ काम करने वाली संस्था भी नहीं है.

3 सितंबर 2015 को इसके प्रवक्ता मौलाना अब्दुल रहीम कुरैशी ने कहा, 'कुरान और हदीस के मुताबिक ट्रिपल तलाक जुर्म है. लेकिन एक बार कह दिए जाने भर से प्रक्रिया को पूरा मान लिया जाता है और इसे बदला नहीं जा सकता.'

हदीस पैगंबर मोहम्मद के कर्मों और उनकी बातों का लेखा-जोखा है. चूंकि एआईएमपीएलबी ट्रिपल तलाक को कुरान के दृष्टिकोण से जुर्म मानता है लिहाजा ट्रिपल तलाक को किसी भी तरह से इसे अवैध करार दिए जाने का विरोध नहीं करना चाहिए. हालांकि ये दीगर बात है कि एआईएमपीएलबी और दूसरे इस्लामिक ग्रुप इस मनमानी परंपरा का बचाव कर रहे हैं. जबकि वो जानते हैं कि कुरान के मुताबिक ये जुर्म है.

एआईएमपीएलबी ने सुप्रीम कोर्ट को भी ये कह कर गुमराह करने की कोशिश की है कि 'अगर पवित्र पुस्तक की छंदों की ऐसी आकस्मिक निंदा की अनुमति दी जाती है तो इस्लाम जल्द ही खत्म हो जाएगा. हालांकि इस्लाम में ट्रिपल तलाक एक बार में तलाक देने का सबसे असामान्य तरीका है. बावजूद इसके पवित्र कुरान और अल्लाह के संदेशों की सीधी निंदा के परिपेक्ष्य में इसे खारिज नहीं किया जा सकता है.'

कुरान के मुताबिक नहीं तीन तलाक

मौजूदा कानून के तहत मुसलमानों के सामने तलाक देने का एक ही विकल्प है और वो है ट्रिपल तलाक.

इस विषय पर कुरान के शुरा में एक पूरे अध्याय का जिक्र है. जिसे अल तलाक कहते हैं जिसमें 12 छंद हैं. इन छंदों में तलाक के लिए कुरान एक प्रक्रिया पालन करने की बात कहता है. कुरान कहता है कि तीनों तलाक कहने के लिए एक एक महीने का वक्त लिया जाना चाहिए. कुरान एक बार में तीन तलाक कहने की परंपरा को जायज नहीं मानता है. ये मनमाना है और मुस्लिम पतियों की इच्छा पर निर्भर करता है. और कई बार सिर्फ गुस्से की वजह से बोल दिया जाता है.

कुरान में बताई गई प्रक्रिया के मुताबिक तलाक शब्द हमेशा दो गवाहों के सामने बोला जाना चाहिए. इसलिए कुरान ट्रिपल तलाक के मनमाने अभ्यास पर रोक लगाता है.

अगर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक देने की प्रक्रिया को अवैध करार दिया है तो ये कुरान के नजरिए से भी सही है. इस बात को निश्चितता के साथ कही जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट में एआईएमपीएलबी ने जो स्टैंड लिया है वो गैर संवैधानिक और कुरान की मर्यादा के खिलाफ है.

मौजूदा कानून के तहत एक मुस्लिम महिला अदालत का दरवाजा तलाक लेने के लिए न कि तलाक देने के लिए खटखटा सकती है. या तो वो मौलवी के जरिए तलाक लेने की प्रक्रिया को पूरी कर सकती है. जबकि मुस्लिम मर्द को तलाक देने के लिए कोर्ट नहीं जाना पड़ता है. उनके सामने जो विकल्प मौजूद है वो किसी मौलवी के सामने तलाक कहने का है. या फिर फोन, चिट्ठी और तो और वाट्सऐप मैसेज के जरिए भी तलाक कहने का विकल्प उन्हें है.

नैतिकता के आधुनिक मापदंडों के मुताबिक मौजूदा तलाक की प्रक्रिया किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं की जा सकती है.

सुप्रीम कोर्ट पेश करे नजीर

भारत में समाज के लिए ये खतरा जैसा है. इससे संविधान की धारा 21 जो नागरिकों को जीवन की सुरक्षा और निजी आजादी देती है, उसका भी उल्लंघन होता है. दरअसल मौजूदा वक्त में एआईएमपीएलबी जैसे ग्रुप मुस्लिम महिलाओं की मर्यादा को चुनौती दे रहे हैं. ट्रिपल तलाक के जरिए जिन मुस्लिम महिलाओं को तलाक दिया जा रहा है वो लगातार सुप्रीम कोर्ट पहुंच रही हैं ताकि सर्वोच्च अदालत उनकी मर्यादा और आजादी का हक बरकरार रख सके. और इसका समर्थन हर किसी को करना चाहिए.

हालांकि ट्रिपल तलाक के अभ्यास को ही खत्म कर देने भर से मुस्लिम औरतों की समस्याओं का अंत नहीं हो जाएगा. मुस्लिम महिलाओं को चाहिए कि वो अपनी बेटियों को तालीम के लिए आगे बढ़ाएं, उन्हें काम करने की अनुमति दें.

अगर ट्रिपल तलाक को किसी जज के सामने तीन महीनों के अंतराल पर कुरान की प्रक्रिया मानने के लिए बोल भी दिया जाता है तो इससे स्थितियों में कोई बड़ा सुधार आने वाला नहीं है. ट्रिपल तलाक के मनमाने अभ्यास को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट कम से कम इतना आदेश तो जरूर दे कि कोई भी मुसलमान अगर तलाक देना चाहता है तो वो अदालत में दे न कि भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन, एआईएमपीएलबी, जमात-ए-इस्लामी हिंद और जमायत-उलेमा-ए-हिंद जैसे तमाम मुस्लिम संगठनों द्वारा चलाए जा रहे शरिया कोर्ट में.