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तीन तलाक बिल की इन कमियों पर बात नहीं कर रहा विपक्ष

तीन तलाक कानून पर कुछ जरूरी चर्चाएं छूटती दिख रही हैं

Yogesh Pratap Singh

एक बार में तीन तलाक को गैरकानूनी ठहराने वाले बिल पर राज्यसभा में हंगामा हुआ. सरकार ने विरोध से निपटने के लिए व्हिप जारी करके अपने सांसदों को बुधवार को पूरी ताकत से सदन में रहने को कहा था. मोदी सरकार को उम्मीद है कि वो राज्यसभा से भी इस बिल को पास कराने में कामयाब होगी. ये कानून एक बार में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत को गैरकानूनी और जुर्म ठहरता है. इस बिल के पास होने से मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक के जुल्म से लड़ने का कानूनी सहारा मिलेगा. विपक्ष इस विधेयक को संसदीय समिति को भेजने की मांग कर रहा है. विपक्षी दलों को इस बिल की कुछ बातों पर ऐतराज है.

विरोध के ऐसे ही सुर तब भी सुनने को मिले थे, जब कुछ मुस्लिम महिलाओं ने तलाक-ए-बिद्दत को अदालत में चुनौती दी थी. इन महिलाओँ का कहना था कि ट्रिपल तलाक उनके बराबरी के बुनियादी अधिकार के खिलाफ है. मुस्लिम महिलाओं के इस कदम के विरोधियो ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल नहीं दे सकता. क्योंकि पहली बात तो ये कि मुस्लिम लॉ, संविधान की धारा 13 की परिभाषा के हिसाब से कानून नहीं है. अब जबकि वो संवैधानिक परिभाषा में कानून ही नहीं, तो उसे बराबरी के अधिकार के खिलाफ बताकर कैसे चुनौती दी जा सकती है.


सुप्रीम कोर्ट के दखल पर ऐतराज जताते हुए कुछ लोगों ने ये भी कहा था कि पर्सनल लॉ नीतिगत मसले हैं. इसे विधायिका यानी संसद और राज्यों की विधानसभाएं ही बदल सकती हैं. इन पर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं कर सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने इन ऐतराजों को खारिज कर दिया था. सर्वोच्च अदालत की पांच जजों की बेंच ने 3:2 से एक बार में तीन तलाक को असंवैधानिक, इकतरफा और अतार्किक ठहराया था. अदालत के फैसले को देखते हुए विधायिका ने इसे कानूनी जामा पहनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. अब कुछ इस्लामिक विद्वान और संगठन कानून बनाने के संसद के अधिकार पर ही सवाल उठा रहे हैं. उनका कहना है कि कोर्ट के फैसले के बाद संसद को कानून बनाने की जरूरत ही नहीं. ये दोहरा रवैया ही इस्लामिक विद्वानों और संगठनों की नीयत में खोट को उजागर करता है.

न्यायपालिका और विधायिका दोनों ही कर सकते हैं सुधारों की शुरुआत

मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान की धारा 25 के तहत संरक्षण हासिल है. लेकिन इसकी दो बातें संविधान की धारा 25 के खिलाफ हैं. पहली बात संविधान की धारा 25 (1) से जुड़ी है. इस धारा में कहा गया है कि अगर किसी धर्म के पर्सनल लॉ किसी बुनियादी अधिकार, नैतिकता, सेहत या सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ हैं, तो अदालतें उनकी समीक्षा कर सकती हैं. ऐसे में अगर तलाक-ए-बिद्दत इस्लामिक कानून का हिस्सा है, तो भी अदालत उसकी समीक्षा कर सकती है. अदालतों को संविधान की धारा 25 (1) के तहत ये अधिकार हासिल है. कहने का मतलब ये है कि पर्सनल लॉ में तब तक ही दखल नहीं दिया जा सकता, जब ये नैतिकता, सेहत, सामाजिक बराबरी और दूसरे बुनियादी अधिकारों के खिलाफ नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने तलाक-ए-बिद्दत को अवैध ठहराया था, उसके दो जजों ने ये तो माना था कि तलाक-ए-बिद्दत महिलाओं और मर्दों में भेदभाव करता है. लेकिन उन्होंने अपने फैसले में कहा था कि ये कमी दूर करने की जिम्मेदारी विधायिका की है, न्यायपालिका की नहीं.

अगर हम संविधान की धारा 25 (2) और धारा 246 के साथ देखें तो साफ होता है कि संसद और राज्यों की विधानसभाएं सामाजिक कल्याण और सुधार के कानून बना सकते हैं. इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य को कानून बनाने का अधिकार संविधान की समवर्ती सूची में दर्ज पांचवीं एंट्री से मिलता है. अगर कोई राज्य ऐसा करता है, तो ये तर्क नहीं दिया जा सकता कि सुधार का ये कानून पर्सनल लॉ और अपना मज़हब मानने की आज़ादी में दखल है. ऐसे में संसद के इस मसले पर कानून बनाने के अधिकार को चुनौती देने की बात ही गलत है. संसद को पूरा अधिकार है कि वो तलाक-ए-बिद्दत जैसी कुरीति को रोकने के लिए कानून बनाए.

अदालत के फैसले के बाद कानून बनाने की जरूरत

सवाल ये भी उठाया गया है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत को अवैध ठहरा दिया है, तो कानून बनाने की क्या जरूरत है? लेकिन, अगर कोई मुस्लिम मर्द अदालत के आदेश के बाद भी तलाक-ए-बिद्दत देता है, तो कोई क्या करे? ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं. ऐसी हालात में पीड़ित मुस्लिम महिला के पास क्या कानूनी विकल्प हैं? क्या तलाक-ए-बिद्दत के बाद मुस्लिम महिला सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाए? साफ है कि सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के तलाक-ए-बिद्दत को अवैध ठहराने से काम नहीं चलेगा. अदालत के फैसले को कानूनी जामा पहनाना जरूरी है.

मसलन, संविधान ने छुआ-छूत को असंवैधानिक करार दिया है. फिर भी प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट के तहत इस बारे में कानून है. सूचना के अधिकार को भी सुप्रीम कोर्ट बुनियादी अधिकार घोषित कर चुका है. लेकिन ये तब तक प्रभावी नहीं हुआ, जब तक 2005 में राइट टू इनफॉर्मेशन एक्ट पारित नहीं किया गया.

इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार को भी संविधान की धारा 21 का अटूट हिस्सा बताया था. लेकिन हालात तभी सुधरे जब संसद ने शिक्षा के अधिकार का कानून बनाया. इन मिसालों से साफ है कि कोई भी बदलाव जमीनी स्तर पर हो, इसके लिए कानून बनाना जरूरी है. सरकारों को कानून को सख्ती से लागू भी कराना होगा. वरना, अदालती फैसले बहुत असरदार नहीं होते. विधायिका और अदालतें एक दूसरे की मदद करके ही सामाजिक बदलाव ला सकती हैं.

तलाक-ए-बिद्दत को गैरकानूनी जुर्म बताना और इससे जुड़ी सजा

कुछ इस्लामिक जानकार कहते हैं कि पर्सनल लॉ सिविल कानून हैं. ऐसे में तलाक-ए-बिद्दत को अपराध नहीं कहा जा सकता. ये वाहियात तर्क है. घरेलू हिंसा, सती, हिंदुओं और ईसाईयों में दूसरी शादी करना और दहेज लेना आज अपराध हैं. जबकि ये सारे मामले सिविल हैं. मिसाल के तौर पर दूसरी शादी करना हिंदू मैरिज एक्ट के तहत भी अपराध है और आईपीसी की धारा 494 और 495 के तहत जुर्म भी है.

गुजारे भत्ते को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत लाने का मकसद है कि पीड़ित महिला को फौरी मदद मिल जाए. वरना सिविल अदालतों में ये मामला लंबा खिंच सकता है. ऐसे में किसी वैवाहिक मामले को अपराध बताना कोई नई बात नहीं. इसकी तमाम मिसालें पहले से मौजूद हैं. नया कानून किसी महिला को निकाहनामा रद्द करने के लिए सिविल कोर्ट जाने से नहीं रोकता. बहुत से ऐसे कानून हैं जो सिविल भी हैं और आपराधिक भी.

तलाक-ए-बिद्दत में कितनी सजा हो, इस पर भी विवाद है. हालांकि शादी-ब्याह के कानूनों में ऐसे कानून पहले से हैं. हिंदुओँ और ईसाईयों में दूसरी शादी करने पर सात से लेकर दस साल कैद तक की सजा हो सकती है. जबकि तलाक-ए-बिद्दत देने पर अधिकतम तीन साल कैद की ही सजा का प्रावधान नए बिल में है. ये भी बहुत असामान्य परिस्थिति में ही दिया जाएगा. सजा कितनी दी जाएगी, ये पूरी तरह से जज पर निर्भर करता है.

तलाक-ए-बिद्दत को संज्ञेय अपराध ठहराना असामान्य है, मगर एकदम नयी बात नहीं

आम तौर पर शादी के मामलों में जब तक महिला के साथ हिंसा नहीं होती, तब तक अपराध संज्ञेय नहीं होता. इसका ये मतलब नहीं कि ऐसे अपराध गंभीर नही होते. बल्कि इसका मकसद ये होता है कि मियां-बीवी के झगड़े में कोई तीसरा अपना फायदा न देखने लगे. तलाक-ए-बिद्दत को संज्ञेय अपराध बनाना इस मायने में असामान्य है. अगस्त 2009 में लॉ कमीशन ने अपनी 227वीं रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि दूसरी शादी को भी संज्ञेय अपराध बनाया जाए. क्योंकि सिर्फ पत्नी की इजाजत के बाद किसी अपराध के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया शुरू करना असरदार नहीं होता आंध्र प्रदेश में तो 1992 में कानून में बदलाव करके आईपीसी की धारा 494 को संज्ञेय और गैरजमानती जुर्म बना दिया गया था. अगर ट्रिपल तलाक के मामले बहुत कम हैं, तो इसे लेकर इस्लामिक विद्वानों का शोरगुल मचाना गैरवाजिब लगता है.

हाथ से निकला मौका

कोई भी ऐसा कानून जो किसी काम को अपराध बताता हो, उस पर गंभीर रूप से चर्चा होनी जरूरी है. मगर तलाक-ए-बिद्दत को लेकर विपक्षी दलों ने एक सुनहरा मौका गंवा दिया. इस्लामिक कानून के नाम पर शोर-शराबा करने के बजाय विपक्षी दलों को चाहिए था कि वो ट्रिपल तलाक बिल पर खुलकर चर्चा करते. इसे और बेहतर बनाने के सुझाव देते. जैसे कि सजा के डर से किसी महिला को सिर्फ छोड़ दिए जाने की आशंका है. फिर वो महिला इंसाफ के लिए दर-दर भटकती रहेगी. ट्रिपल तलाक बिल की धारा 5 और 6 को पढ़ने से इस मामले में स्थिति साफ होती नहीं दिखती. इन धाराओं में ट्रिपल तलाक पीड़ित महिला को गुजारे भत्ते और बच्चों का खर्च पाने का हकदार बताया गया है.

अब अगर तलाक ही गलत है, तो भत्ता और बच्चों की जिम्मेदारी का सवाल ही नहीं उठता. ये दोनों बातें तो तलाक के बाद उठती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्यसभा इस बिल की इन खामियों को दूर करेगी.

कोई भी बीवी तब तक आपराधिक कानून का सहारा नहीं लेगी, जब तक खुद उसकी जान और उसके बच्चो का भविष्य खतरे में न हो. ऐसी हालत में कानून को उसकी मदद करनी चाहिए. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ऐसे दूसरे संगठनों को इस बारे में जागरूकता फैलानी चाहिए. इन संगठनों को चाहिए कि वो कोशिश करें कि मियां-बीवी का हर विवाद पुलिस के पास न पहुंचे. क्योंकि सरकारें तो ऐसे हर मौके की तलाश में होंगी, ताकि दखल दे सकें.

पर्सनल लॉ बोर्ड को चाहिए कि निकाह-हलाला और बहुविवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए भी काम करें. वरना सरकारें औरत मर्द की बराबरी और सेक्यूलरिज्म के नाम पर इन मसलों में भी दखल देंगी ही.