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ट्रिपल तलाक से जुड़े ये खोखले मिथक तर्क बनाकर पेश करना बंद कीजिए!

औरतों को इस्लाम की शुरूआत के वक्त बराबरी का हक सौंपा गया था

Avinash Dwivedi

ट्रिपल तलाक से कई ऐतिहासिक और सामाजिक मिथक जुड़े हैं. इनमें से कई तर्क बनाकर हमारे सामने पेश किए जाते हैं कुछ पक्ष में तो कुछ विपक्ष में. लेकिन इन तर्कों में कितनी सच्चाई है इसकी जांच इस लेख में की गई है.इस लेख में हम ट्रिपल तलाक से जुड़े हुए कुछ ऐसे ही मिथकों के बारे में जानकारी जुटाने की कोशिश करेंगे.

मिथक एक: इस्लाम में हमेशा से महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की रही है ये बिल्कुल बेबुनियाद बात है बल्कि इस्लाम की नींव ही बराबरी पर रखी गई है. औरतों को भी इस्लाम की शुरूआत के वक्त बराबरी का हक सौंपा गया था. खुद पैगंबर मोहम्मद साहब की जिंदगी इसकी गवाही देती है. पैगंबर साहब की बीवी एक विधवा व्यापारी थीं और उनसे 15 साल बड़ी थीं.


उनकी सबसे छोटी पत्नी आएशा ने एक युद्ध में सैनिक दस्ते का नेतृत्व तक किया था. ये दो ऐसे तर्क हैं जिनसे साफ पता चलता है कि इस्लाम में लिंग के आधार पर बराबरी का ही व्यवहार होता था. ऐसे में ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ रही संस्था राष्ट्रीय मुस्लिम महिला मंच के तर्क बहुत सही लगते हैं.

संस्था का दावा है कि इस्लाम से पहले के दौर यानि की 'जाहिलियत' के वक्त जो पर्दा और चादर जैसी प्रथाएं प्रचलित थीं उनका प्रचलन इस्लाम के उदय के बाद भी बंद नहीं हुआ. फिर बाद के वक्त में इस्लाम मानने वाले इन कुरीतियों को इस्लामी रीति-रिवाज के भ्रम में निभाते रहे. औरतों की स्थिति के साथ भी ऐसा ही रहा और रूढ़ियों से जकड़ी स्त्री-विरोधी परंपरा बढ़ती रही. ऐसे में औरतों की स्थिति धीरे-धीरे इस बराबरी की नींव पर खड़े धर्म में भी बदतर होती गई.

मिथक दो: तकनीकी विकास ट्रिपल तलाक रोकने में मदद करेगा अक्सर ये तर्क परंपरावादी इस्लामिक सुधारवादी देते हैं. उनका कहना है कि तकनीकी ने कई तरह की सहूलियतें मुस्लिम महिलाओं को दी हैं. आज वो पहले की अपेक्षा अपने अधिकारों के बारे में अच्छे से जानती हैं.तकनीकी की बदौलत कुरान और उसकी व्याख्या को वे अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकती हैं और अपने हकों के बारे में जान सकती हैं. उनका तर्क होता है कि शाहबानो के वक्त से अभी तक पिछले चालीस सालों में तकनीकी के चलते समाज बेहद बदल चुका है.

इन तकनीकों की वजह से इन मुस्लिम औरतों के लिए तीन तलाक जैसे उनके हक छीनने वाले मसलों पर हथियार का काम कर रही है. पर ऐसा मानना पूरी तरह से गलत है क्योंकि जब ट्रिपल तलाक के मसले पर फैसले का अंतिम अधिकार पुरुष धर्मगुरुओं का ही होता है, ऐसे में नहीं लगता कि तकनीक की बदौलत अपने अधिकारों की जानकारी मुस्लिम महिलाओं की कोई खास मदद देगी.

वैसे भी तकनीकी विकास ने औरतों के लिए कोई खास बदलाव इस मामले में लाया हो या नहीं पर आज एसएमएस, वाट्सएप्प, मेल और सोशल मीडिया के जरिए भी ट्रिपल तलाक देने के मामले सुनने में आने लगे हैं.ये साबित करते हैं कि तकनीक तीन तलाक को रोकने का उपाय नहीं है. इसे रोकने का असली उपाय कानून ही है.ये भी पढ़ें:तीन तलाक पर योगी की द्रौपदी वाली टिप्पणी में है मोदी के तेवर

यूनिफॉर्म सिविल कोड संविधान के हिसाब से लागू किए जाने की जरुरत है

मिथक तीन,  यूनिफॉर्म सिविल कोड को हिंदू-लॉ का ही विस्तार होना चाहिएजब बात यूनिफॉर्म सिविल कोड यानि समान नागरिक संहिता की आती है तो हमें समझना होगा कि दोनों मसले काफी अलग हैं. इस बात को वर्तमान सरकार भी स्वीकारती है. जैसा कि तमाम सरकारी वक्तव्यों में कहा गया है वर्तमान सरकार संविधान के हिसाब से पर्सनल-लॉ का नियमन चाहती है.

यहीं पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल-लॉ बोर्ड जैसे संगठनों का विरोध है क्योंकि वो कहते रहे हैं कि उनके पर्सनल-लॉ पर कोर्ट में कोई बहस नहीं होनी चाहिए. जबकि, जब ये संवैधानिक कानून हो जाएंगे तो इन पर कोर्ट में सुनवाई करके ही फैसले होंगे. खैर, यूनिफॉर्म सिविल कोड को अधिकतर लोग हिंदू-लॉ के विस्तार के रूप में ही देखते हैं. जिसकी वजह से हिंदू धर्म से काफी अलग इस्लाम की मान्यताओं के लिए इसमें जगह बनाना काफी कठिन हो जाता है.इसके साथ ही ये इस्लाम मानने वालों के मन में तमाम परंपराओं के अंत का भी डर बैठा देता है.

फिर यूनिफॉर्म सिविल कोड का कोई आदर्श ढांचा भी सामने नहीं है जिससे ये डर भी खत्म नहीं होता कि ये धार्मिकता का पोषक ही रहेगा न कि धार्मिकता का विरोधी. क्योंकि जिन लोगों का धार्मिकता और जातीयता में विश्वास नहीं है देश में उनके लिए अलग से स्पेशल मैरिज एक्ट मौजूद है. ऐसे में ये बात साफ है कि सीधे तौर पर ट्रिपल तलाक का मुद्दा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और समानता के अधिकारों का हनन करता है.

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लेकिन आरएसएस जैसे संगठनों से प्रभावित संस्थाएं अपनी याचिकाओं के जरिए इस पूरे विवाद को 'इस्लाम बनाम अक्लमंदी' की बहस का रूप देना चाहते हैं. ऐसी साजिश का शिकार बनने से मुद्दे को बचाने के लिए इस वक्त मुस्लिम धर्मगुरुओं को चाहिए कि वो अपनी तीन दशक पहले राजीव गांधी को दी मुस्लिम पर्सनल-लॉ में दखलअंदाजी न करने की हेकड़ी को छोड़ें.

जरूरी  ये है कि मुस्लिम धर्मगुरु कानून निर्माण में सरकार का रचनात्मक सहयोग करके एक समतामूलक समाज की ओर कदम बढ़ाएं. वर्तमान सरकार के प्रतिक्रियावादी कदमों से बचने के लिए उनका खुद ट्रिपल तलाक में सुधार के मसले पर सामने आना ही सबसे कारगर कदम हो सकता है. वरना, वो इस्लाम से पहले के तथाकथित जहालियत के दौर में ही रह जाएंगे.