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घंटों देरी से चलने वाली ट्रेनों की सुध लेने वाला कोई है? आखिर किसकी तय होगी जवाबदेही?

देश में भारतीय रेल की चर्चा अमूमन तभी होती है जब या तो कोई रेल दुर्घटनाएं होती हैं या फिर बजट का समय आता है

Ravishankar Singh

देश में भारतीय रेल की चर्चा अमूमन तभी होती है जब या तो कोई रेल दुर्घटनाएं होती हैं या फिर बजट का समय आता है, लेकिन इस समय देश में न तो कोई रेल दुर्घटनाएं हुई हैं और न ही बजट का ही समय है. भारतीय रेल की चर्चा इस समय लेटलतीफी के कारण हो रही है. अमूमन भारत जैसे देशों में मई का महीना ट्रेनों के लेटलतीफी का नहीं होता है. आमतौर पर मई-जून के महीने में पैसेंजर्स ट्रेनों में ज्यादा सफर करते हैं. त्योहार और छुट्टियों का मौसम होने के कारण लोगों को घर पहुंचने की जल्दी होती है, लकिन खुद रेलवे के कारण ही यात्रियों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.

देश में जगह-जगह चल रहे मरम्मत कार्यों की वजह से ट्रेनें घंटों देरी से चल रही हैं. राजधानी-शताब्दी ट्रेन हों या फिर मेल एक्सप्रेस गाड़ियां, रेलवे की तरफ से किसी भी ट्रेन के समय पर पहुंचने की गारंटी नहीं दी जा रही है.


अगर बात भारतीय रेल की समय पर पहुंचने की करें तो वह आंकड़े काफी हैरान करने वाले हैं. आंकड़ों की बात करें तो साल 2016-17 में मेल एक्सप्रेस ट्रेनें का समय पर पहुंचने का औसत लगभग 76 प्रतिशत रहा. लेकिन साल 2017-18 के दौरान मेल एक्सप्रेस ट्रेनों के समय पर पहुंचने का औसत प्रतिशत घटकर 71.38 प्रतिशत रह गया. पिछले साल की तुलना में इस साल ट्रेनों का परिचालन सुधरने के बजाए और बिगड़ने लगा.

यही हाल कमोबेश पैंसेजर ट्रेनों का भी हो रहा है. साल 2016-17 में पैसेंजर ट्रेनों का समय पर पहुंचने की औसत दर 76.53 प्रतिशत था, लेकिन साल 2017-18 यह दर गिर कर 72.66 पर आ गई. जिन राजधानी और शताब्दी जैसे प्रीमियम ट्रेनों पर डायनामिक फेयर लगा कर आम लोगों के जेब पर डाका डाला गया, वे ट्रेनें भी 5 से 6 घंटे लेट चल रही हैं.

देश में इस समय कई रेलवे स्टेशनों पर ट्रेनों की लेटलतीफी के कारण मुसाफिरों का बुरा हाल है. रेलवे स्टेशन से लेकर ट्रेन में सफर करने वाले लोग बुरी तरह से परेशान नजर आ रहे हैं. ट्रेन से यात्रा करने वाले लोग ट्रेन के अंदर जरूरी सुविधा से महरूम हैं.

रेलवे की तरफ से कहा जा रहा है कि देर भले हो जाए पर अब दुर्घटना नहीं होने देंगे. इसी को ध्यान में रखते हुए रेलवे के अधिकांश जोन में इस समय पटरियों की मरम्मत का काम चल रहा है. रेल मंत्रालय का कहना है कि ट्रैक पर मरम्मत का काम जब तक पूरा नहीं हो जाता तब तक ट्रेनें देर से ही चलेंगी.

प्रतीकात्मक तस्वीर

भारतीय रेल ने परिचालन में बोले जाने वाले वाक्य ‘दुर्घटना से देर भली’ को अब अपना तकिया कलाम बना लिया है. रेलवे का यह वाक्य यात्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से काफी अहम कदम है, लेकिन देश में जहां इतने बड़े पैमाने पर लोग रेल से यात्रा करते हैं और यात्रियों की सुविधा का ख्याल नहीं रखा जा रहा है यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है. यात्रियों को अब ट्रेनों की लेटलतीफी काफी अखरने लगी है. खासकर शादी-विवाह और छुट्टियों के मौसम की शुरुआत में ही रेलवे ने लोगों को यात्रा करने के लिए दूसरा विकल्प ढूंढने को मजबूर कर दिया है.

दूसरी तरफ रेलवे ने शायद खुले तौर पर पहली बार स्वीकार किया है कि ट्रेनें लेट हो रही हैं और आगे भी होती रहेंगी. पहले रेल मंत्रालय ट्रेनों के लेट हो जाने पर कोहरा, बाढ़ या फिर देश में हो रहे आंदोलनों को जिम्मेदार ठहराती थी. पूर्व में रेलवे की तरफ से तमाम दूसरी तरह की बातें कही जाती थीं. पहले तो मंत्रालय अपना पल्ला झाड़ लेता था, लेकिन अब इसको सुरक्षा के नाम पर आगे भी जारी रखने की बात कही जा रही है.

रेलवे बोर्ड के डायरेक्टर वेदप्रकाश (इंफॉर्मेशन एंड पब्लिसिटी) के कहते हैं, ‘हमारे पुराने जितने भी एसेट्स हैं उनके मेंटेनेंस के शेड्यूल जो बचे हुए थे, वे सभी अब पूरे किए जा रहे हैं. रेल मंत्रालय इंफ्रास्ट्रक्चर को डेवलप करने में अब अपना पूरा जोर लगा रही है. साल 2009 से लेकर साल 2014 तक रेलवे में 24 हजार 307 करोड़ रुपए इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च किया गया. मोदी सरकार के आने के बाद इंफ्रास्ट्राक्चर पर साल 2014-15 में 58 हजार 718 करोड़ रुपए खर्च किए गए. साल 2015-16 में 93 हजार 520 करोड़ रुपए और साल 2016-17 में यह आंकड़ा 1 लाख के करीब और साल 2018-19 में यह लक्ष्य 1 लाख 46 हजार 500 करोड़ रुपए निर्धारित किया गया है. देश के लगभग हर हिस्से में इस वक्त रेलवे के दोहरीकरण, आधुनिकीकरण और डबलिंग का काम जोरों से चल रहा है. इसी कारण यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.’

वेदप्रकाश आगे कहते हैं, ‘साल 2019 तक रेलवे का डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर काम शुरू कर देगा. इस कॉरिडोर के चालू हो जाने के बाद मालगाड़ियों का दबाव मौजूदा लाइन से हट जाएगा, जिससे ट्रेनें भविष्य में तेजी से और समय से चलने लगेंगी.’

कुलमिलाकर अभी की जो रेलवे की स्थिति है वह काफी दयनीय और सोचनीय है. अधिकांश ट्रेनें लेट चल रही हैं. बिहार से आने वाली और जाने वाली अधिकांश ट्रेनों का बुरा हाल है. बिहार की ट्रेनें 4 घंटे से लेकर 25 घंटे तक देरी से चल रही हैं.

आपको बता दें कि पिछले रेल मंत्री सुरेश प्रभु की कुर्सी जाने पीछे भी ट्रेन हादसों को ही मुख्य वजह बताया गया था. पीयूष गोयल ने रेल मंत्री का कार्यभार संभालने के तुरंत बाद ही कहा था कि उनकी प्राथमिकता रेल यात्रियों की सुरक्षा और सुविधाओं को बढ़ाना है. अब रेल मंत्रालय यह दलील दे रहा है कि खराब ट्रैक और रखरखाव में दिक्कतों की वजह से उसे ट्रेन चलाने में दिक्कत में आ रही है.

रेल मंत्रालय के आंकड़ों की ही मानें तो साल 2016-17 के दौरान रेलवे ने पटरियों पर सुरक्षा के मकसद से एक लाख 59 हजार घंटों का ट्रैफिक ब्लॉक लिया था. वर्ष 2017-18 के दौरान रेलवे ने सेफ्टी और मरम्मत का काम पूरा करने के लिए एक लाख 89 हजार घंटे का ट्रैफिक ब्लॉक लिया था. इस दौरान रेलवे ने दावा किया था पटरियों की दोहरीकरण और विद्युतिकरण और आधुनिकिकऱण पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया.

रेल मंत्रालय एक तरफ साधारण ट्रेनों को बैलगाड़ी की रफ्तार से चलाने की बात कर रहा है तो दूसरी तरफ बुलेट ट्रेन के सपने भी दिखा रही है. देश के प्रधानमंत्री कहते हैं कि बुलेट ट्रेन परियोजना एक ऐसा प्रोजेक्ट है जो तेज गति और तेज प्रगति भारत में लाएगा. प्रधानमंत्री मोदी के इस सपने के सामने कुछ अहम सवाल हैं. जब पिछले कुछ सालों में पटरियों के मरम्मत का काम पूरा नहीं हुआ तो अगले एक साल में यह पूरा हो जाएगा इसकी क्या गारंटी है? अगर ट्रैक पर ही गड़बड़ियों के कारण हादसे होते हैं तो पिछले दिनों ही उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में मानवरहित फाटक पर 7 स्कूली बच्चों की दर्दनाक मौत पर रेलवे अपना पल्ला कैसे छुड़ा सकता है? सुविधा और सुरक्षा के नाम पर रेलवे का किराया तो बढ़ा दिया गया, लेकिन पैसेंजर सुरक्षा का इंतजार चुनावी साल तक क्यों करेगा?

प्रतीकात्मक तस्वीर

रेलवे का यह तर्क कि सुरक्षा के नाम पर ट्रेनों को लेट चलाया जा रहा है लेकिन लोगों को नागवार गुजर रहा है. रेलवे अपनी बदइंतजामी की बात को सरेआम स्वीकार तो कर रहा है, लेकिन इससे समस्या का निदान नहीं निकल रहा है. यात्रियों की असुविधा के लिए कौन जिम्मेदारी लेगा?

जहां विश्व के दूसरे देशों में ट्रेनें 3 मिनट लेट हो जाती हैं तो उसे विलंब माना जाता है वहीं भारत जैसे देशों में ट्रेनों के 25 घंटे लेट होने पर सुरक्षा का हवाला देकर पल्ला झाड़ लिया जाता है. स्विट्जरलैंड जैसे देशों का दावा है कि उसकी ट्रेनें यूरोप में सबसे ज्यादा समय पर चलती हैं. स्विट्जरलैंड में ट्रेन अगर अपने तय सीमा से तीन मिनट लेट हो तो उसे विलंब माना जाता है. आयरलैंड और नीदरलैंड जैसे देशों में भी ट्रेनें अगर 10 मिनट लेट चलती हैं तो वहां पर भी विलंब माना जाता है.

जर्मनी में तो कोई भी ट्रेन 6 मिनट से ज्यादा लेट होती हीं नहीं. जापान में भी ट्रेन तय सीमा से देर नहीं चलती, लेकिन भारत में लोगों को कहा जा रहा है कि आप अगले एक साल तक समय पर चलने का इंतजार करें.

ऐसे में सवाल उठता है कि एशिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क और एकल स्वामित्व वाला विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क अब इतना बेबस और लाचार क्यों नजर आने लगा है. 160 सालों से अधिक समय तक परिवहन का मुख्य साधन होने के बावजूद रेल मंत्रालय अपनी जवाबदेही से क्यों पल्ला झाड़ रहा है?