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कृषि कर्ज वसूलने की खातिर बैंक भी किसानों से कर रहे हैं बुरा सुलूक

किसानों की कर्ज माफी का इंतजार किसान ही नहीं, बैंक अधिकारी भी करते हैं. क्योंकि लोन माफ होते ही इनका अपराध-बोध कम हो जाता है. साथ ही रोज की क्रूरता से उन्हें मुक्ति मिलती है

Jyoti Yadav

1957 में महबूब खान निर्देशित फिल्म मदर इंडिया के आखिरी सीन में नरगिस नहर का उद्घाटन करती हैं, तो लगता है कि देश में किसानों के अच्छे दिन आ गए हैं. इस फिल्म में साहूकार ने नरगिस के परिवार को बहुत तंग किया है. नरगिस का बेटा बिरजू इसका बदला लेता है. उस वक्त तक साहूकार ही किसानों को खेती के लिए धन मुहैया कराते थे. कर्ज वसूली के मामले में साहूकारों की क्रूरता की तमाम कहानियां हैं. 1969 में इंदिरा गांधी की सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर यह संदेश दिया कि अब साहूकारों की जगह पर बैंक किसानों को कर्ज मुहैया करायेंगे. पर अब साहूकारों की जगह बैंकों ने ले ली है, ना सिर्फ कर्ज के मामले में बल्कि क्रूरता के मामले में भी.

पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि बैंक का कर्ज ना लौटा पाने पर हरियाणा के भिवानी के बहल छेत्र के ढाणी केहरा के किसान रणबीर की जेल में हार्ट अटैक से मौत हो गई. किसान रणबीर सिंह ने 1996 में लोन लिया था. इसी मामले में सितंबर 2018 में कर्ज ना चुकाने पाने की वजह से ‘चेक बाउंस’ का केस दिखाकर बैंक ने रणबीर को जेल करवा दिया. रणबीर यह बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सके.


अखबारों ने उनकी गरीबी का चित्रण करते हुए बताया था कि वो इतने गरीब थे कि उनकी पोतियां अभी तक शहर नहीं गई हैं. पोती ने नेशनल और स्टेट लेवल तक वॉलीबाल खेला है. गांव के ही सरकारी स्कूल से पढ़ाई की है. लेकिन अब बारहवीं करने के बाद उसने कुछ सोचा ही नहीं है. उसे ना फौज की भर्ती के बारे में पता है और ना ही किसी सरकारी नौकरी के बारे में. घर पर टीवी भी नहीं है. जिससे खबरों तक उनकी पहुंच हो. शहर ना जाना गरीबी का कोई पैमाना तो नहीं है लेकिन यह जानना बहुत जरूरी है कि जब हर चीज डिजिटल हो गई है तो इस किसान की पोती की पहुंच सरकारी नौकरी की जानकारी तक कैसे नहीं है?

भारत की कुल आबादी में से 60 प्रतिशत से ज्यादा लोग खेती-किसानी के काम से जुड़े हैं

जब प्रधानमंत्री मोदी का वीडियो देश के कोने-कोने तक पहुंच जाता है तो भारत की राजधानी से पास के एरिया में नौकरियों की खबरें कैसे नहीं पहुंच रहीं? यह भी जानना बेहद जरूरी है कि कुछ एकड़ जमीन होने के बावजूद एक किसान को कर्ज ना चुका पाने की वजह से जेल क्यों जाना पड़ गया? क्या वो किसान नीरव मोदी की तरह करोड़ों का फ्रॉड कर के बैठा था? ‘वॉट्सएप से मिली जानकारियों’ के मुताबिक तो सरकारें ज्यादा दामों में फसलें खरीद रही हैं, तो फिर 1996 में लिया गया कर्ज इतना बढ़ कैसे गया? क्या यह सिर्फ कर्ज का मामला है या बैंक की जालसाजी का भी?

कैसे बैंक बना ‘क्रूर सिंह’ और कर्ज बन गया ‘बहुरुपिया अय्यार’

कहानी शुरू होती है 1996 में लिए गए 1.50 लाख रुपए के कर्ज से. जनसंघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉक्टर बलबीर सिंह बताते हैं कि रणबीर ने लैंड मोर्टगेज बैंक, लोहारू के मार्फत 1.50 लाख रुपए का कर्ज ट्रैक्टर खरीदने के लिए लिया. 2003 में कर्ज ना चुकाने के कारण बैंक ने ट्रैक्टर ऋण की ‘कागजी वसूली’ कर इसे रणबीर पर भूमिगत पाइप लाइन (UGPL) के 3 लाख रुपए के कर्ज के रूप में बदल दिया. फिर 2009 में बैंक ने इस UGPL ऋण की कागजी वसूली कर इसे रणबीर पर फूलों की खेती (Floriculture) के 6 लाख रुपए के कर्ज में बदल दिया.

लगातार खेती संकट से जूझ रहे रणबीर अपने पिता खेताराम के नाम से लिए गए बिजली मीटर (खाता संख्या DK1D-005 1997) का भुगतान समय पर नहीं कर पाए. भुगतान ना होने की वजह से 1.79 लाख रुपए के बिल को डिफॉल्ट घोषित कर 13 मार्च, 2009 को रणबीर के घर का बिजली कनेक्शन काट दिया गया था. तब से उनका परिवार बिना बिजली के रह रहा है.

बलबीर सिंह किसानों के मुद्दों पर पिछले 20 साल से काम कर रहे हैं. उन्होंने बैंक पर गंभीर आरोप लगाए हैं. उनका कहना है कि रणबीर के बेटे राजपाल की पत्नी सुनहरी ने 25 जून, 2017 को A/C नंबर B25-617-130 से बिजली मीटर के लिए 1500 रुपए सिक्योरिटी जमा करवाए लेकिन उनके दादा ससुर खेताराम के नाम पर 1.79 लाख रुपए के बकाया बिल के नाम पर उन्हें कनेक्शन नहीं दिया गया. और ना ही उन्हें उनके कनेक्शन सिक्योरिटी के नाम पर लिए गए पैसे लौटाए.

डॉक्टर बलबीर सिंह का कहना है कि जब रणबीर का परिवार बिना घरेलू बिजली और बैरानी खेती (बिना कृषि नलकूप) पर आश्रित है तो इन हालातों में उनकी आय का क्या साधन बचता है. यह किसान के कर्ज ना चुकाने का मामला नहीं बल्कि बैंक के फ्रॉड का है.

किसानों के लिए कर्ई सरकारी घोषणाएं की जाती हैं लेकिन अक्सर उसका फायदा गरीब किसानों तक नहीं पहुंच पाता है

बैंक पर लग रहे हैं जालसाजी करने के आरोप, अनपढ़ किसान इसे कैसे पकड़ेगा

बलबीर सिंह के मुताबिक बैंक ने रणबीर से 30 नवंबर, 2009 को ढाई एकड़ जमीन का रहणनामा 9 वार्षिक किस्तों और 11 प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर भरवाया था. डिफॉल्ट होने पर बैंक 13 प्रतिशत वार्षिक ब्याज दरों पर वसूली करता है. लेकिन 3 दिसंबर, 2009 को बैंक ने रणबीर से इस रहणनामा के बाद भिवानी सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक, शाखा ओबरा में रणबीर के ही नाम पर एक खाता खुलवाया. भिवानी सेंट्रल बैंक ने रणबीर के नाम पर खाता संख्या 2854 और चैक बुक संख्या 24431-24440 जारी कर दी. लैंड मोर्टगेज बैंक, लोहारू ने इन सभी खाली चेकों पर बिना बैंक का नाम, राशि और दिनांक, बिना एग्रीमेंट/रहणनामा का हिस्सा बनाए, गैरकानूनी तरीके से अपने कब्जे में रख लिए.

स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक योगेंद्र यादव ने भी बैंक पर आरोप लगाते हुए हमें बताया कि जब रिजर्व बैंक की गाइडलाइंस के मुताबिक 2013 से पहले के चेक जब चलन में ही नहीं है तो फिर 1996 का ब्लैंक चैक लेकर उस बैंक ने कार्रवाई कैसे की? यह मामला कोर्ट में जाकर कर्ज वसूली का था तो इसे चेक बाउंस में बदलकर आपराधिक क्यों बनाया गया? 1.50 लाख से कर्ज 9 लाख रुपए कैसे पहुंच गया?

चेक बाउंस के कानून का बैंक करते हैं दुरुपयोग

ब्रिटिश राज में आर्थिक लेन-देन को लेकर Negotiable Instruments Act, 1881 बनाया गया. इस एक्ट के Section 138 में चेक बाउंस को लेकर नियम दिए गए हैं. 1989 में तत्कालीन भारत सरकार ने इस एक्ट में बदलाव किए और चेक बाउंस को सिविल से क्रिमिनल लायबिलिटी बना दिया. 2002 की भारत सरकार ने चेक बाउंस के मामले में सजा को 1 साल से बढ़ा कर 2 साल कर दिया और चेक अमाउंट का भुगतान फाइन के तौर पर दोगुना कर दिया.

जनवरी 2018 में भारत सरकार ने इस एक्ट में नया प्रावधान जोड़ने के लिए बिल प्रस्तुत किया जिसके मुताबिक 60 दिन के अंदर अंतरिम राहत के तौर पर अमाउंट का 20 प्रतिशत दिया जा सकता है.

किसान को लोन देते समय बैंक उनके ब्लैंक चेक रखवा लेते हैं. लोन वापसी न होने की स्थिति में बैंक उस चेक को बाउंस करवा लेते हैं. इस प्रकार वो सिविल कोर्ट में जाने की बजाय पुलिस का सहारा लेकर किसान पर क्रिमिनल केस दर्ज करा देते हैं. पैसे की तंगी से जूझ रहा किसान केस लड़ने में अमसर्थ हो जाता है. यह समझ नहीं आता कि बैंक को इससे हासिल क्या होता है? बैंक पैसे वसूली के लिए गुंडे भी भेजते हैं. जबकि बड़े व्यापारी बैंक के सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपए लोन लेते हैं और खुद को दीवालिया घोषित कर देते हैं या फिर देश छोड़ कर भाग जाते हैं. पर बैंक इस स्थिति में कुछ नहीं करते. अगर अखबारों में यह मामला ना आए तो इसे एडजस्ट करने की कोशिशें भी की जाती हैं.

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार हर साल देश भर में हजारों किसान खराब फसल और कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर लेते हैं

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक भारत में होने वाली किसान आत्महत्याओं का 80 फीसदी कारण बैंकों से लिए लोन रहे. सरकारी रिपोर्ट्स के अनुसार 2015 में देश भर में 3,000 किसानों ने आत्महत्याएं की. जिसमें से 2,474 किसानों की मौत का कारण विभिन्न बैंकों से लिए गए कर्ज थे.

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि 1 अप्रैल, 2016 से 25 मई, 2018 तक 2,222 किसानों ने अपनी जान ली. हर रोज कर्ज के जाल में फंसकर 3 किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा.

जब बैंकों ने कर्ज वसूली के लिए अखबारों में जारी कीं किसानों की तस्वीरें

साल 2015 में हरियाणा के कुरुक्षेत्र बेस्ड कुरुक्षेत्र जिला सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक समिति ने 21 किसानों को महज 7.2 लाख से 31.8 लाख के कर्ज की वजह से डिफाल्टर घोषित किया. बैंक ने इन किसानों की तस्वीरें एक स्थानीय अखबार में प्रकाशित कर ‘नेम एन्ड शेम’ के जरिए लोन वसूलने की घटिया चाल बनाई. इतना ही नहीं बैंक ने दूसरे बैंकों से इन 21 किसानों से पैसे का कोई भी लेन-देन ना करने को कहा.

पंजाब में जून 2015 में फरीदकोट को-ऑपरेटिव बैंक ने भी 26 किसानों की सूची जारी की थी. इन किसानों पर 2 से 5 लाख तक का कर्ज न चुकाने के आरोप थे. हालांकि बैंक को आलोचना का सामना करना पड़ा था लेकिन हरियाणा स्टेट कोऑपरेटिव एपैक्स बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर ने इसे सही करार देते हुए कहा था कि ऐसा करने से किसानों पर सोशल प्रेशर बनेगा और वो बैंक का पैसा चुकाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना कर लोन रिकवरी के लिए बैंक भेजते हैं गुंडे

2008 में सुप्रीम कोर्ट ने जजमेंट दिया था कि यह एक सभ्य समाज है, जहां पर बैंकों द्वारा गुंडों को हायर कर लोन रिकवर कराना स्वीकार्य नहीं होगा. 2007 में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों से रिकवरी एजेंटों के किसानों से मारपीट करने के मामले आए थे. कई में तो किसानों की मौत भी हो गई थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह मामले कम तो हो गए पर खत्म नहीं हुए. अब बैंक अपने अधिकारियों को ही भेजकर यह काम कराते हैं.

पंजाब नेशनल बैंक के एक मैनेजर जयंत (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि उनको खुद अच्छा नहीं लगता किसी किसान से छीना-झपटी करते हुए. बैंकों में नौकरी करनेवाले लोग बहुत बड़े घरों के नहीं होते. बहुत तो किसान परिवारों से ही आते हैं. पर कर्ज वसूली के दबाव की वजह से उनको गुंडों की तरह व्यवहार करना पड़ता है. जयंत बताते हैं कि जो किसान संपन्न हैं, उनसे बैंक बदमाशी नहीं करता. वैसे घरों से पिट के आने का भी खतरा रहता है. इसलिए कभी संपन्न और प्रभुत्वशाली किसान के खिलाफ ऐसी कार्रवाई नहीं हो पाती. वैसे किसान लोन वापस भी नहीं करते. लोन माफी का इंतजार करते रहते हैं. पर छोटे किसान फंस जाते हैं. यह बैंक अधिकारियों को धमका नहीं सकते और इन पर कार्रवाई हो जाती है.

कृषि कर्ज लेने वाले किसानों पर बैंकों की ओर से अक्सर उसे चुकाने का दबाव बनाया जाता है

जयंत बताते हैं कि लोन देते समय मालूम ही रहता है कि यह किसान लोन वापस नहीं कर पायेगा. सबको पता है कि किसानी-खेती में इतनी आमदनी ही नहीं है. किसानों के परिवार में भी तो तमाम खर्चे हैं. जीवन-यापन, पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह, त्योहार इत्यादि. वो कहते हैं कि किसानों की स्थिति आज भी प्रेमचंद की कहानियों के किसानों की स्थिति से अलग नहीं है. आज भी होरी और हल्कू दिखाई देते हैं गांवों में. जयंत सरकारी पॉलिसी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं. कहते हैं कि लोन माफ करते समय छोटा किसान, बड़ा किसान, मजदूर सबको सरकार एक बराबर तौलकर माफ कर देती है. पर तंग करते समय वर्गीकरण कर देती है.

रणबीर सिंह के मामले में ही उनकी मौत के बाद सरकार ने उनके परिवार को 25 लाख रुपए की सहायता देने का वादा किया है. इसके साथ ही उनके परिवार में एक सरकारी नौकरी देने का आश्वासन है. पर इससे पहले डेढ़ लाख के लोन को 9 लाख रुपए का बनाने के मामले में कुछ नहीं किया गया था.

क्या कह रहा है रणबीर का परिवार? सारी बातें यहीं छुपी हैं

रणबीर सिंह के दो बेटे हैं. बेटी की शादी 25 साल पहले ही कर दी थी. उसके लिए भी गांव से ही कर्ज लेना पड़ा था. लगभग उसी वक्त उन्होंने ट्रैक्टर के लिए बैंक से कर्ज लिया था. रणबीर को ही बैंक के कागजात के बारे में पता था. उनके बेटों ने पढ़ाई नहीं की है, यह सब चीजें समझ नहीं पाते. रणबीर की एक बहू ने बताया कि उनके परिवार में किसी को नहीं पता था कि बैंक ऐसे कर रहा है. सबको लगता था कि यह तो चलता ही रहता है. उन्होंने यह भी बताया कि सरकार ने जो वादे किए हैं, उनके बारे में नहीं पता कि क्या करना होगा. यह अपने देवर के बेटे की नौकरी के बारे में आशान्वित हैं. कह रही हैं कि मेरी बेटी पढ़ती तो है, पर उसकी शादी कर दूसरे घर भेजना है तो उसकी नौकरी के बारे में क्यों सोचें. लड़का नौकरी करेगा, तो समस्याओं से मुक्ति मिलेगी.

बैंक मैनेजर जयंत बताते हैं कि किसानों की स्थिति तभी सुधरेगी जब हर घर में एक व्यक्ति नौकरीपेशा निकले परंतु वो अपने परिवार को ना छोड़े. वरना खेती डूब जाएगी. क्योंकि खेती की आमदनी से जीवन की कोई भी जरूरत पूरी नहीं हो सकती. अगर हर जिले में फूड प्रोसेसिंग यूनिट, भंडारण की अच्छी व्यवस्था, ट्रांसपोर्ट का इंतजाम और उचित मूल्य की व्यवस्था की जाए तभी खेती कारगर बनेगी. साथ ही नौकरियों का इंतजाम किया जाए ताकि जो मजबूरी में खेती कर रहे हैं, वो अलग व्यवसाय चुन सकें. छोटे-छोटे खेत होने की वजह से पैदावार भी कम होती है और ज्यादा फायदा नहीं होता.

देश के अलग-अलग हिस्से में किसान अपने हक के लिए समय-समय पर आंदोलन करने को मजबूर हो जाते हैं

बैंक पर भी दबाव है, वो कन्फ्यूजन में हैं

बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ता जा रहा है. रिजर्व बैंक समेत कई संस्थानों की रिपोर्ट बताती हैं कि वर्तमान में देश में बैंकों की हालत बहुत खराब है. ऐसे में यह बैंक कॉर्पोरेट लोन के खिलाफ एक्शन नहीं ले पाते. क्योंकि ज्यादातर कॉर्पोरेट नेताओं और मंत्रियों के संपर्क में रहते हैं. तो खुद को ‘एक्शन में दिखाने की खातिर’ यह बैंक किसानों पर ही शिकंजा कसते हैं. अपनी नौकरियां बचाने के लिए बैंक अधिकारी कमजोर लोगों पर सारी फ्रस्ट्रेशन निकाल देते हैं.

किसानों की लोन माफी का इंतजार किसान ही नहीं, यह बैंक अधिकारी भी करते हैं. लोन माफ होते ही इनका अपराध-बोध कम हो जाता है. साथ ही रोज की क्रूरता से मुक्ति मिलती है.

1990 में तत्कालीन वीपी सिंह की सरकार ने देशव्यापी 10 हजार करोड़ रुपए का कृषि कर्ज माफ किया था. इसके बाद 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार ने लगभग 60 हजार करोड़ रुपए का खेती लोन माफ किया था. यह सबसे बड़ी माफी थी. 2009 में मनमोहन सिंह की सरकार के दोबारा चुने जाने की वजहों में से एक वजह यह भी थी. वर्तमान मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का वादा किया था. हालांकि यह कहीं नजर तो नहीं आ रहा. क्योंकि इसके लिए हर साल खेती में 14 प्रतिशत वृद्धि होनी चाहिए. वर्तमान में यह एक प्रतिशत के आस-पास है.

क्या होनेवाला है आगे के वक्त में?

कृषि मंत्रालय में काम करनेवाली निशा (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि ऐसा नहीं कि किसी सरकार या किसी अफसर को किसानों से दुश्मनी है. लोअर लेवल के कर्मचारी और अब तो बहुत सारे अफसर भी खेतिहर पृष्ठभूमिक (बैकग्राउंड) से ही आते हैं. सबको हकीकत पता है. पर किसी को यह नहीं पता कि खेती को बचाने के लिए क्या करना चाहिए. तो जो मिल जाता है, वो कर दिया जाता है. फिर सबको महान भी बनना है, इतिहास में नाम दर्ज कराना है तो सबसे आसान रास्ता चुना जाता है- घोषणाओं का.

सामाजिक अध्ययन करने वाले लोग बताते हैं कि यह शुरुआत है. धीरे-धीरे बैंकों की हालत साहूकारों की तरह हो जाएगी और फिर किसानों की तरफ से भी प्रतिकार होने की संभावना है. कई जगहों पर ऐसा पाया गया है कि किसान इन अधिकारियों को लट्ठ लेकर दौड़ा लेते हैं. जो संस्था किसानों की मदद के लिए तैयार की गई थी, वो अब मार-पीट में उलझने जा रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्ष 2022 तक देश के किसानों की आय दोगुना करने की बात कहते है

बैंक पहले से ही नोटबंदी, एनपीए, इंश्योरेंस सहित डिजिटलाइजेशन की समस्याओं से निपट रहे हैं. आम जनता तो फॉर्म भी नहीं भर पाती, डिजिटल चीजें तो अभी बहुत दूर हैं. ऐसे में बैंक अधिकारी 24 घंटे फ्रस्ट्रेट (परेशान) रहते हैं. उन्हें भी तो नहीं पता कि क्या करना चाहिए. वो तो बस अपनी नौकरी बचा रहे हैं.