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377 पर SC का फैसला: LGBT समुदाय को सतरंगी उड़ान तो मिली, क्या हम उन्हें आसमान देंगे?

किसी के लिये सतरंगी आसमान में आजाद उड़ान भरने का मौका है तो किसी के लिये संस्कृति और धर्म पर पश्चिम के प्रभाव का पहरा है जिससे समाज में विकृति बढ़ने का अंदेशा है

Kinshuk Praval

समलैंगिकता अब अपराध नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 के कुछ प्रावधानों को खत्म करते हुए कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है. साथ ही कोर्ट ने कहा कि देश में सभी को समानता का अधिकार है और समाज को अपनी सोच बदलने की जरूरत है. वाकई, सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला ऐतिहासिक है. लेकिन सवाल ये भी उठता है कि आखिर समाज की सोच कैसे बदलेगी जो सदियों से रूढ़ियों में कैद है.

एक सोच इसे आजादी और ऑक्सीजन मान रही है तो एक नजरिया इसे मानसिक विकृति, बीमारी और अप्राकृतिक कृत्य मानता है. यही वजह है कि इस मामले की नज़ाकत को देखते हुए ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को अपने विवेक से फैसला लेने के लिये कहा था. सरकार इस बहस में उलझना नहीं चाहती थी.


अब कोर्ट का कहना है कि दो बालिगों के बीच आपसी सहमति से बने निजी संबंध अगर किसी के लिये नुकसानदायक न हों तो वो समलैंगिकता अब अपराध नहीं है. गे या फिर लेस्बियन संबंध अब समलैंगिक अपराध की श्रेणी में नहीं आएंगे और उन्हें अप्राकृतिक नहीं माना जाएगा.  LGBTQ समुदाय के लोगों को भी दूसरे लोगों की तरह ही सामान्य और समान अधिकार हैं.

लेकिन ये सवाल भी है कि फिर पारसी विवाह और तलाक कानून में अप्राकृतिक यौनाचार तलाक का आधार क्यों हैं? सवाल ये भी उठेगा कि धर्म और समाजिक संस्कृति में समलैंगिक संबंध व्याभिचार क्यों है?

सवाल समलैंगिक संबंधों को लेकर दोहरे मानदंडों को लेकर है तो साथ ही सवाल प्राकृतिक और अप्राकृतिक होने को लेकर भी है. इस मामले की सुनवाई के वक्त जस्टिस रोहिंग्नटन ने कहा था कि प्रकृति का नियम क्या है? क्या प्रकृति का नियम यही है कि सेक्स प्रजनन के लिये किया जाए? साथ ही उन्होंने कहा था कि अगर इससे अलग सेक्स किया जाए तो क्या वो प्रकृति के खिलाफ है?

LGBTQ यानी लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर अपने हक की लंबी लड़ाई लड़ रहे थे. साल 1994 में पहली बार कोर्ट में धारा 377 को चुनौती दी गई थी. दरअसल, साल 1861 में लॉर्ड मैकाले ने इंडियन पैनल कोड ड्राफ्ट करते समय धारा 377 के तहत समलैंगिक रिश्तों को अपराध की कैटेगरी में रखा था. LGBT समुदाय के लिये आईपीसी की धारा 377 गैर जमानती अपराध थी. इस धारा के तहत 10 साल या फिर जिंदगीभर जेल की सजा का प्रावधान था. लेकिन 1960 में ब्रिटेन ने समलैंगिकता वाले विक्टोरियन कानून को रद्द कर दिया. वहीं अमेरिका में भी कई राज्यों में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाल कर इनके विवाह को कई प्रांतों में कानूनी मान्यता दी गई. जहां दुनिया के 26 देशों में समलैंगिक सेक्स को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया तो वहीं ईरान-इराक, सऊदी अरब, सूडान, सोमालिया, नाइजीरिया और यमन जैसे देशों में समलैंगिक रिश्तों पर आज भी मौत की सजा का प्रावधान है.

महाभारत की कथा में शिखंडी का भी वृत्तांत हैं तो अर्जुन के बृहन्नला बनने का भी वर्णन है. प्राचीनकाल के समाज में किन्नर-गंधर्व की पहचान और मौजूदगी के अध्याय दर्ज हैं. खुजराहो के मंदिरों में उकेरी गईं मूर्तियों में भी समलैंगिक संबंधों पर खुली सोच झांकती है. इन सबके बावजूद समाज में समलैंगिकता को सार्वजनिक तौर पर मान्यता कभी नहीं मिली.

आज समलैंगिक संबंधों को समानता का अधिकार देकर समाज से एक बड़ी अपेक्षा की जा रही है.लेकिन समाज के साथ जटिलता ये है कि वो आधुनिक और उदारवादी होने के बावजूद एक अलग व्यवहार को  इतनी आसानी से आत्मसात नहीं कर सकता है.

समलैंगिकों के यौन संबंधों के खिलाफ ये दलील दी जाती  रही है कि तेजी से फैलते एड्स के पीछे इसी मनोविकृति का बड़ा हाथ है जिसने भोग के लिये नए-नए प्रयोग और संबंधों को गढ़ा और फिर आजाद शारीरिक संबंधों के उन्माद में प्रकृति के निर्धारित हर नियम को तोड़ा. इसे स्त्री या पुरुष का अप्राकृतिक बर्ताव माना गया जो कि शारीरिक सुख के लिये समान लिंग के प्रति आकर्षित होकर अपनी काम वासनाओं की पूर्ति करने लगा और फिर उसके लिये समानता का अधिकार भी मानने लगा.

बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी मानते हैं कि समलैंगिक संबंधों को मान्यता देने से एड्स जैसी गंभीर बीमारियों के फैलने में तेजी आएगी. वहीं आरएसएस का कहना था कि ‘समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है, लेकिन हमारे समाज में ये सामाजिक रूप से अनैतिक काम है.’

जिस देश में आज भी धर्म या जाति से बाहर शादी करने पर ऑनर किलिंग हो जाती हो उस समाज में स्थापित रूढ़ीवादी मान्यताएं समलैंगिक यौन संबंधों को लेकर आधुनिकता का लिबास कैसे ओढ़ सकती हैं?

वर्तमान में गे और लेस्बियन जैसे शब्दों को खुलेआम स्वीकार करने वाली सोच आसानी से दिखाई नहीं देती है. यहां तक कि इन शब्दों को नेगेटिव सेंस में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है. ऐसे में समलैंगिक यौन संबंधों को अप्राकृतिक मानने वाले समाज में कानून क्या करेगा?

बहरहाल, एलजीबीटी समुदाय के साथ भेदभाव आम बात है. मुखौटे लगा कर ये अपने भीतर के भावों को छुपाने की कोशिश करते हैं क्योंकि ये जानते हैं कि इनकी ज़िंदगी का रास्ता आम रास्ते से नहीं गुजरता है.

समाज का मनोभाव तब बदलेगा जबकि परिवार का बदलेगा. परिवार के लोगों को जब किसी सदस्य के व्यवहार का पता चलता है तो वो उसे बीमारी और शर्मिंदगी की तरह महसूस करते हैं. यहीं से शुरू होता है कि एलजीबीटीक्यू के व्यक्ति का इस समाज में अकेलेपन का सफर और फिर बाद में खुद के लिये प्रेम और समान भाव रखने वाले साथी की तलाश का दौर.

अगर ईश्वर है तो आम मनुष्यों की तरह एलजीबीटीक्यू के लोग भी उसकी संतान हैं. उनके प्रति घृणा, भद्दे मजाक या फिर अपमानजनक व्यवहार एक सभ्य समाज में कतई स्वीकार नहीं किये जा सकते हैं. अगर इनके प्रति नजरिये में फर्क लाया जाए तो एक दिन जरूर समाज में ये अपनी अंधेरी दुनिया से बाहर निकलने की कोशिश कर सकेंगे. फिलहाल, इन्हें  समान व्यवहार के साथ जीने की सुरक्षा और वजह भी चाहिये.

ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या भारतीय समाज में समलैंगिकता को लेकर सोच वाकई बदल सकेगी? ये सवाल हमेशा सवालों की शक्ल में जिंदा रहेंगे क्योंकि किसी के लिये सतरंगी आसमान में आजाद उड़ान भरने का मौका है तो किसी के लिये संस्कृति और धर्म पर पश्चिम के प्रभाव का पहरा है जिससे समाज में विकृति बढ़ने का अंदेशा है.