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बैंकों के बढ़ते एनपीए के लिए यूपीए और एनडीए दोनों जिम्मेदार

इस मामले में यूपीए को राजनीतिक हस्तक्षेप और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में दुस्साहस दिखाने का दोषी ठहराया जा सकता है वहीं एनडीए को भी इस मसले में पाक साफ करार नहीं दिया जा सकता.

Madhavan Narayanan

(एडिटर्स नोट: हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक पार्लियामेंट्री कमिटी के सामने ये खुलासा किया था कि बैंकों में बढ़ते एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) की शुरुआत कैसे हुई थी. भारत के बैंकों का 90 फीसदी एनपीए सरकारी बैंकों से ही है. इस सिलसिले में फ़र्स्टपोस्ट एक समस्या से जुड़े तथ्यों पर लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहा है.)

इस महीने के शुरू में जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच बैंकों के डूबे हुए कर्जों को लेकर जब जुबानी जंग शुरू हुई तो देश के अधिकांश सामान्य नागरिकों को इस मुद्दे को ठीक से समझने में उलझन हुई. दरअसल रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक संसदीय समिति को बैंको को उन बुरे कर्जों के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी जो या तो वापस नहीं किए गए या फिर उन पर से बैंकों को ब्याज मिलना बंद हो गया था. इस जानकारी के बाद ही सत्ता पक्ष और विपक्ष इस मुद्दे पर आमने सामने आ गए और जनता इस मुद्दे पर उलझ कर रह गई.


इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए 1 और यूपीए 2 सरकार के शासन के बीच साल 2004 से 2014 तक पब्लिक सेक्टर बैंकों की ओर से आंख बंद करके राजनीतिक आधार पर कर्जों की रेवड़ियां बांटी गई थीं. इसी वजह से बैंकों के ऊपर एनपीए का बोझ इतना बढ़ता चला गया जिससे कि उनकी स्थिति हाथ से बाहर निकल गई. लेकिन सरकारी बैंकों की मदद से साधे गए राजनीतिक हितों के अलावा भी इस कहानी में बहुत कुछ है. अगर हम धैर्य से इस मामले की पड़ताल करेंगे तो हमें और भी बहुत कुछ पता चलेगा.

संसदीय समिति के सामने राजन ने इस तथ्य को भली-भांति समझाया कि जरूरी नहीं है बैंकों के द्वारा बड़े उद्योगपतियों और बड़े बिजनेस घरानों को दिए गए बड़े कर्ज ही डूबते रहे हैं. छोटे-छोटे व्यापार (जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी ‘मुद्रा’ योजना) के लिए दिए गए कर्ज भी बैड लोन में तब्दील होते हैं. ऐसे में कर्जों के पैटर्न को देखते हुए इस मामले में सचेत होने की जरूरत है.

1969 और 1978 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने निश्चित रूप से देश में लोगों को आसान तरीके से मिलने वाले कर्जों की राह खोली. इससे किसानों, व्यापारियों और आम लोगों को बैंकों से कर्ज मिलना आसान हो गया लेकिन इस आसान व्यवस्था से नुकसान ये हुआ कि कर्ज बांटने में विवेक और बुद्धिमता का सहारा नहीं लिया गया और रही सही कसर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष राजनीतिक हस्तक्षेप ने पूरी कर दी. चाहे कांग्रेस सरकार के द्वारा 1980 के दशक में आयोजित किए गए ‘लोन मेला’ का मामला हो या फिर यूपीए के शासन काल में बैंकों के द्वारा चेक बुक लहरा कर कर्जों का ऑफर देने का समय हो, अधिकतर सरकारी बैंकों ने जमकर लोन बांटे.

लेकिन यहां ये याद रखना चाहिए कि सभी आरोप केवल पब्लिक सेक्टर के बैंकों पर नहीं लगाए जाएं क्योंकि अब आईसीआईसीआई बैंक और एक्सिस बैंक जैसे प्राइवेट बैंकों के सामने भी एनपीए की समस्या मुंह बाए खड़ी हो चुकी है.

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की पूर्व चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्या इस बात की ओर ध्यान दिलाती हैं कि किस तरह से 2008 में लेहमैन ब्रदर्स के धराशायी होने के बाद लंबे समय तक चले आर्थिक संकट ने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया था. देश की अर्थनीति की जानकार लोगों में से एक, अरुंधति का कहना है कि भारत में भी इस आर्थिक मंदी का असर देखा गया था और देश में बढ़ते एनपीए में इसकी भूमिका भी अहम रही है. इसके लिए आप केवल यूपीए सरकार को जिम्मेदार नहीं बता सकते हैं लेकिन बैंको में बढ़ती इस अव्यवस्था के लिए देश में कर्जों की संस्कृति को जरूर कसूरवार ठहरा सकते है जहां पर ऊंची विकास दर को हासिल करने की कोशिश में इस तरह का जुआ खेला जाता है.

अरुंधति का कहना है कि भारतीय बैंक वैश्विक मंदी के दौर में इस बात से आत्म संतुष्ट हो गए थे कि उनके यहां पर संकट के दौर में भी बैंको के पास जमा किया हुआ रुपया सुरक्षित है. इसके बाद उन्होंने महसूस किया कि सरकार ने देश में इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने के लिए जबरदस्त अभियान छेड़ दिया है और भारत ने अब पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के नाम से बड़े स्तर पर नया प्रयोग शुरू कर दिया है. उस समय देश में इस बात को लेकर भी ज्यादा खुशी थी कि उन्होंने वैश्विक अर्थव्यवस्था के इस इस बड़े संकट से अपना पिंड छुड़ा लिया है. इन दोनों वजहों से व्यापार और व्यापारियों में भरोसा उत्पन्न हुआ जिससे कि बड़े स्तर पर क्षमता का विस्तार संभव हो सका.

अरुंधति भट्टाचार्य

वैसे बैंकों में एनपीए की समस्या 2008 के ग्लोबल क्राइसिस से पहले भी रही है. इंफ्रस्ट्रक्चर के मोर्चे पर मार्च 2009 तक बैंकों का एनपीए 4.66 फीसदी था जो कि प्रबंधनीय था. लेकिन अगले चार सालों में यानि मार्च 2013 तक ये बढ़ कर 17.4 फीसदी तक पहुंच गया और रकम बढ़ कर 1.36 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गई.

यूपीए सरकार की निश्चित रूप से इस बात को लेकर आलोचना की जा सकती है कि उसने बैंकों के रकम का इस्तेमाल निजी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए किया जबकि इससे पहले इस तरह से कार्य पब्लिक सेक्टर क्षेत्रों के द्वारा संपन्न किए जाते थे. ये तथ्य है कि 2G टेलीकाम स्पेक्ट्रम और पावर प्रॉजेक्ट्स को कोल लिंकेज दिए जाने जैसे दोनों मामलों में लोक संसाधनों को निजी क्षेत्रों को सौंपे जाने की नीति पर सवाल उठते रहे. आसानी से लोन देने और सवालों के घेरे में रहे कैश फ्लो के लिए नीति निर्माताओं और बैंकरों दोनों को जिम्मेदार ठराया जाना चाहिए

सुर्खियों में जगह पाने की ख्वाहिश के चलते कांग्रेस ने राजन की उस बात को तुरंत लपक लिया जिसमें उन्होंने मोदी के नेतृत्व वाले प्रधानमंत्री कार्यालय में 2016 में धोखाधड़ी की चेतावनी दी थी जिसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई. निश्चित रूप से ये आकर्षक राजनीतिक चाल है लेकिन इस तरह की जालसाजी और धोखाधड़ी पूरे एनपीए का महज एक छोटा सा हिस्सा भर ही है.

लेकिन इसके बाद भी मोदी सरकार से इस संबंध में जरूर सवाल किए जाने चाहिए कि उन्होंने 2014 में सरकार बनाने के बाद विरासत में मिले एनपीए से निपटने के लिए किस तरह की रणनीति बनाई? कांग्रेस का कहना है कि अब देश में वर्तमान एनपीए 12 लाख करोड़ का है और ये एनडीए को यूपीए से विरासत में मिले 2.83 लाख करोड़ रुपए से लगभग चार गुना ज्यादा है. ऐसे में इसके लिए जिम्मेदार यूपीए नहीं बल्कि ‘मोदीनॉमिक्स’ है.

तीन वजहें हैं जिसके कारण एनडीए सरकार से इस समस्या के बढ़ने के लिए सवाल पूछे जा सकते हैं या आलोचना की जा सकती है. पहला, देश में प्रचलित बड़े करेंसी नोटों के साथ 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के साथ किया गया प्रयोग. इससे लोगों के पास जमा करके रखे गए काले धन को निकालने की मुहिम न केवल असफल हो गई बल्कि इसने आर्थिक विकास और देश में निवेश के माहौल को भी बुरी तरह से प्रभावित किया.

दूसरा, मोदी सरकार एनपीए से निपटने के लिए इंसोल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) बिल लाने के लिए अपनी पीठ खुद ही थपथपा रही है, लेकिन इसे बहुत बुद्धिमानी वाला कदम नहीं कहा माना जा सकता है क्योंकि इसके नए फ्रेमवर्क के मुताबिक इसमें मूलरूप से जिम्मेदारी ब्यूरोक्रेटिक और जुडिशियल मैकेनिज्म पर चली जाती है जिससे की डुबे हुए कर्जों की समस्या से निपटने की पूरी प्रक्रिया धीमी हो जा जाती है. हालांकि इसके लिए समयबद्ध फ्रेमवर्क तैयार किया गया है लेकिन ये नाकाफी है.

राजन भी इसी बात की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि प्रमोटर्स कोर्ट में इस प्रक्रिया के तहत फर्जी अपील दाखिल करते है और शायद हमारी न्यायिक व्यवस्था सभी बैड लोन्स से जुड़े मामलों को सही तरह से निपटाने के लिए पूर्ण रुप से सज्जित नहीं है. इसलिए वो बच जाते हैं. बैड लोन्स तीन बोझिल स्तरों से होकर गुजरती है. इनसोल्वेंसी प्रोफेशनल्स,नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल और कोर्ट. तीनों मिलकर इस पूरी प्रक्रिया को और जटिल बना देते हैं.

तीसरा, बैंकिंग सिस्टम में किसी खास सुधार की व्यवस्था नहीं करना. इसे एनडीए सरकार की एक भूल मानी जा सकती है. हाल ही जारी किए गए दिशानिर्देश के मुताबिक मुश्किल कर्जों को शुरु में ही लाल झंडी दिखाने की व्यवस्था की गयी है लेकिन इसे सुधार की जगह बचाव कहना ज्यादा सही है. कहावत है कि ‘दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है’ ऐसे में बैंकर्स को कर्ज देने में सावधानी बरतने के साथ साथ अपनी बैलेंस शीट को उठाने के लिए पूंजी की भी व्यवस्था भी करनी पड़ेगी. लेकिन स्थिति ऐसी है कि पब्लिक सेक्टर बैंकों के कामकाज की संस्कृति में शायद ही बदलाव हो सके.

राजन के बयान ने ये साफ बता दिया है कि वर्तमान सरकार और ज्यादा कर सकती थी, पुनर्गठन करके और कुछ भी किया जा सकता था. वो सरकार जो कि हमेशा कहती है कि वो नेहरू-गांधी के दौर में किए गए गलत निर्णयों से देश को छुटकारा दिलाना चाहती है, उस एनडीए सरकार के लिए ये मौका चूकने जैसा है.

इस मामले में यूपीए को राजनीतिक हस्तक्षेप और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में दुस्साहस दिखाने का दोषी ठहराया जा सकता है वहीं एनडीए को भी इस मसले में पाक साफ करार नहीं दिया जा सकता. एनपीए के बढ़ने में एनडीए पर भी आरोप लगाया जा सकता है हालांकि यूपीए के मुकाबले थोड़ा कम. लेकिन जिम्मेदार दोनों रहे हैं.