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SC के दरवाजों के पीछे हो रहा 'अफसरशाही गैंगवार' ब्यूरोक्रेसी की सड़ांध है

जिस गालाहद सिंड्रोम का शिकार अस्सी के दशक में प्रेस हुआ करता था, उसने आज भारतीय अफसरशाही को बुरी तरह से जकड़ लिया है

Ajay Singh

1988 में जब, मीडिया में रोज हो रहे खुलासों की वजह से राजीव गांधी और वीपी सिंह के बीच भयंकर सियासी जंग छिड़ी हुई थी, तो उस दौर के सबसे सम्मानित संपादकों में से एक गिरिलाल जैन ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में एक संपादकीय टिप्पणी लिखी थी. इसकी हेडलाइन थी, The Galahad of the Press. ये उन दुर्लभ संपादकीय टिप्पणियों में से एक थी, जो पहले पन्ने पर छपी. इस संपादकीय के निशाने पर उस वक्त इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे अरुण शौरी थे.

गिरिलाल जैन ने अपने लेख में लिखा कि अरुण शौरी जो कर रहे हैं, वो पत्रकारिता नहीं, बल्कि सियासत है. वित्त मंत्रालय में इस वक्त जो झड़प चल रही है, उसकी समीक्षा के लिए उस संपादकीय टिप्पणी को इस वक्त याद करना और उसके शीर्षक को वित्त मंत्रालय के हालात पर लागू करना गलत नहीं होगा. इस वक्त मंत्रालय में जो हो रहा है, वो भारत की ब्यूरोक्रेसी के बेहद परेशान करने वाले ट्रेंड की तरफ इशारा करता है.


हम वित्त मंत्रालय के विवाद पर नजर डालें, उससे पहले हमें टाइम्स ऑफ इंडिया की उस हेडलाइन का मतलब समझना जरूरी है. उस वक्त मैं टाइम्स ऑफ इंडिया में नया-नया रिपोर्टर बना था. हेडलाइन देखकर मेरे मन में सवाल उठा कि आखिर इसका मतलब क्या है? मैंने डिक्शनरी में देखा तो उसमें Galahad का मतलब लिखा था, 'वो जो पवित्र है, ऊंचे कुल का है और खुदगर्ज नहीं है'.

ये शब्द मध्यकालीन इंग्लैंड के पौराणिक राजा ऑर्थर के सामंत सर गालाहद के नाम से निकला है. किंग ऑर्थर से जुड़ी लोककथाओं में लिखा है कि सर गालाहद ईसा के जादुई प्याले यानी Holy Grail को खोज कर लाने वाले शख्स थे. जादुई प्याला यानी एक ऐसा आदर्श जिसे हासिल करना कमोबेश नामुमकिन था. इसीलिए सर गालाहद प्राचीन काल के ब्रिटेन की लोककथाओं के अहम किरदार हैं, जो पवित्र और निस्वार्थ भाव से काम करने के लिए मशहूर हैं.

वक्त हमारी यादों का संग्रह है.

अपनी 'कुलीनता' में जकड़ी हुई है अफसरशाही

जिस गालाहद सिंड्रोम का शिकार अस्सी के दशक में प्रेस हुआ करता था, उसने आज भारतीय अफसरशाही को बुरी तरह से जकड़ लिया है. सत्ता के गलियारों से लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत के दरवाजों के पीछे चल रहे अफसरशाही के भयंकर गैंगवार का मंजर हमें बुधवार को देखने को मिला. ये उस सड़ांध का संकेत है, जो ब्यूरोक्रेसी से आ रही है. और अफसोस की बात ये है कि ये सब ईमानदारी और शराफत के नाम पर हो रहा है.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

चूंकि इस मामले में व्यक्ति अहम नहीं हैं, तो मैं किसी का नाम लेने से बच रहा हूं. लेकिन जिस तरह से एक राज्य सिविल सेवा के अधिकारी को प्रवर्तन निदेशालय का हिस्सा बनाया गया और फिर अदालत से ये आदेश भी हासिल कर लिया गया कि उसके ऊपर लगे आरोपों की न तो जांच हो सकती है और न ही कोई कार्रवाई. अब सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने निचली अदालत के इस फैसले पर रोक लगाते हुए कहा कि ये अधिकारी भी दूसरे अफसरों की तरह जांच के दायरे में आएगा. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एक सीलबंद लिफाफे का हवाला देते हुए कहा कि इसमें बंद सबूत इस बात की पर्याप्त वजह हैं कि सरकार इस अधिकारी के कामकाज की पड़ताल करे.

क्या अदालत के इस आदेश में कुछ भी गलत था? ऐसा लगता है कि ये पूरी तरह से निष्पक्ष आदेश है जो एक अधिकारी को नियमित जांच के दायरे में लाने को कहता है. उसे जांच से पूरी तरह से छूट नहीं देता. लेकिन जब आप इस आदेश के असर को देखते हैं, तो यूं लगता है कि बहुत बड़ा पाप कर दिया गया है.

प्रवर्तन निदेशालय ने जांच के दायरे में लाए गए उस अधिकारी के पक्ष में एक बयान जारी किया और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए बंद लिफाफे के अंदर के दस्तावेजों या सबूतों को लेकर भी आशंका जाहिर की. प्रवर्तन निदेशालय के बयान का ये मतलब था कि सरकार सीलबंद लिफाफे में सबूत देकर सुप्रीम कोर्ट की बेंच को भटका रही है. जबकि इस लिफाफे में बंद सबूतों और अधिकारी पर लगे आरोपों में कोई दम ही नहीं.

ब्यूरोक्रेसी लगातार सरकार को पलीता लगा रही है

अब सही हो या गलत, इस बात में कोई शक नहीं कि अफसरशाही के एक तबके ने ये मान लिया है कि वो ही सत्य के साधक हैं, भ्रष्टाचार के विनाशक हैं और लोकतंत्र के संरक्षक हैं. और सत्य की तलाश में वो लगातार सिस्टम को पलीता लगा रहे हैं. भले ही उनकी ये करतूत सरकार के एजेंडे के खिलाफ क्यों न हो. जिस तरह से प्रवर्तन निदेशालय राजस्व सचिव जैसे बेहद ईमानदार आईएएस अफसर पर निशाना साध रहा है, वो ये दिखाता है कि सरकार के तमाम विभागों में किस तरह टकराव चल रहा है.

अचरज की बात ये है कि ये कोई इकलौती मिसाल नहीं है. सीबीआई इस कदर अंदरूनी झगड़ों की शिकार है, उसे गैंगवार ही कहा जा सकता है. खुद को सर गालाहाद समझने वाले ये सरकारी अधिकारी अपने आप को पवित्र, कुलीन और निस्वार्थ मानते हैं. जबकि ये अंडरवर्ल्ड गैंग की तरह का बर्ताव कर रहे हैं. वो मुहिम चलाने वाले वकीलों से गठजोड़ करके आधी झूठी-आधी सच्ची जानकारियों को लीक करते हैं ताकि जनहित याचिकाएं दायर करके सिस्टम को कोर्ट की दखलंदाजी के जरिए नीचा दिखाया जा सके. ईमानदारी और निष्पक्षता के नाम पर दिल्ली में ऐसे तमाम गैंग सक्रिय हैं. ये गैंग अक्सर अपने उन साथी अधिकारियों को चरित्र प्रमाण पत्र जारी करते हैं, जो अब तक उनके गैंग का हिस्सा नहीं बने हैं. जो उनकी बातों, सिद्धांतों को नहीं मानते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

इस तरह बरबाद होती है व्यवस्था

उत्तर प्रदेश में तो कुछ आईएएस अफसरों ने अपने बीच के सबसे भ्रष्ट अधिकारियों की पहचान करने का जिम्मा उठा लिया था. वहीं हरियाणा में एक आईएएस अफसर ने खुद को जनहित का इकलौता जिम्मेदार शख्स घोषित कर लिया. फिर जिसने भी उसकी बातों पर सवाल उठाए, उस पर भ्रष्ट होने का आरोप लगा दिया. अपने स्वघोषित मिशन के नाम पर वो खुद को किसी भी तरह की पड़ताल से बचाते हैं. इसकी आड़ में अपनी अक्षमता और नकारेपन को छुपाते हैं.

ऐसे ज्यादातर अधिकारी अपनी जिंदगी और करियर का बड़ा हिस्सा एक समानांतर व्यवस्था बनाने में लगाते हैं, ताकि असल सिस्टम को पलीता लगा सकें. शुरुआत में तो ये सब बहुत आकर्षक लगता है, लेकिन आगे चलकर ये भ्रष्टाचार से भयानक चुनौती और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बन जाता है. ऐसे तथाकथित संतों के साथ दिक्कत ये है कि ये लोग आजादी के बाद से हजारों सरकारी अधिकारियों की प्रतिबद्धता, बलिदान और उनकी ईमानदारी की अनदेखी कर देते हैं.

इस वक्त इस संदर्भ में उन अधिकारियों का जिक्र करना बेमानी है, जिन्हें आरोप लगने पर अपनी ईमानदारी के बारे में दावे नहीं करने पड़े, क्योंकि उनके हक में तमाम लोग अपने आप खड़े हो गए. मैंने वादा किया था कि मैं किसी का नाम नहीं लूंगा. लेकिन यहां अपवाद के तौर पर मैं एक अधिकारी हरीश चंद्र गुप्ता का नाम लूंगा. वो इस नियम को साबित करने वाले अपवाद हैं.