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मैं राष्ट्रगान के लिए खड़ा नहीं हो सकता, क्या करूं?

क्या सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के पहले विकलांग लोगों के बारे में सोचा?

Salil Chaturvedi

मेरा नाम सलिल चतुर्वेदी है. मैं एक लेखक हूं. मैंने अभी सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुना कि सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजाना और लोगों का खड़ा होना जरूरी है.

इस बात पर अब कई लोग कई तरह की बातें करेंगे. मैं एक विकलांग की हैसियत से अपनी बात सुप्रीम कोर्ट से कहना चाहता हूँ. मैंने पूरा आदेश पढ़ा नहीं लेकिन मैं सोच रहा हूं कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को देने के पहले विकलांग लोगों के बारे में सोचा?


ऐसा नहीं है कि मैं देशभक्त नहीं या राष्ट्रगान में मेरी किसी और से कम आस्था है. पर मेरी एक मजबूरी है. मैं विकलांग हूँ. मेरी तरह इस देश में पांच से दस फीसदी लोग विकलांग हैं. पिछली जनगणना में सरकार जाति के हिसाब से लोगों को गिनने के लिए तो तैयार हो गई लेकिन उनकी शारीरिक अक्षमता के हिसाब से जनगणना से इनकार कर दिया. कोई व्यवस्थित सर्वे नहीं हुआ. वरना आपको यहां ठीक-ठाक संख्या भी दे पाता.

लागू कराने वालों से खतरा

ऐसे कई लोग होंगे जो इस फैसले का स्वागत करेंगे और इसे लागू करने और करवाने में एकदम शिद्दत से भिड़ जाएंगे लेकिन पता नहीं इनमे से कितने लोग मेरी तरह सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के दौरान ना खड़े होने के लिए पीटे गए होंगे.

अभी जुलाई की बात है. मैं अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हॉल गया था. हमेशा की तरह और लोगों को असुविधा से बचाने के लिए मैं हॉल में फिल्म शुरू करने से पहले दाखिल हुआ. हॉल में काम करने वालों ने मुझे उठा कर मेरी सीट पर बैठा दिया.

फिल्म शुरू होने के पहले सब कुछ ठीक था. राष्ट्रगान शुरू हुआ सब खड़े हुए, मैं खड़ा हो ही नहीं सकता था इसलिए नहीं हुआ.

अचानक मुझे मेरे पीछे खड़े हुए आदमी ने मारा और ना खड़े होने के लिए डांटा.

मैंने उसे कहा कि भाई हाथ-पांव चलाने के पहले पूछ तो लो कि अगला खड़ा क्यों नहीं हुआ. मेरी पत्नी मुझ पर हुए इस हमले से स्तब्ध रह गई. खैर, काफी बहस और बदतमीजी के बाद उस आदमी को अपनी गलती समझ में आई और उसने माफी मांगी और सिनेमा हॉल से चला गया.

तस्वीर: सलील चतुर्वेदी

मेरे साथ घटी इस घटना पर मीडिया में काफी बहस हुई. हालांकि, ऐसा हमेशा नहीं होता. मेरे एक दोस्त के बुजुर्ग रिश्तेदार पर भी सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के चलते हमला हुआ. उनके घुटनों की सर्जरी हुई थी. वो 52 सेकंड तक तन कर खड़े रहने के काबिल नहीं हैं. वो भी पीटे गए.

मैं उस दिन के बाद से आज तक सिनेमा हॉल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया हूँ.

पीटने के पहले पूछेगा कोई?

भारत में एक डिसएबिलिटी एक्ट है. ये एक्ट कहता है कि सभी जगहों को विकलांगों के लायक बनाया जाएगा, पर मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से असर उलटा ही होगा.

क्या लोग गाली बकने या सीधे देशद्रोही करार दे कर टूट पड़ने के पहले सोचेंगे? क्या कोर्ट कोई निर्देश देगा कि राष्ट्रगान के पहले कोई स्लाइड दिखाएं कि पीटने के पहले पूछें?

अजीब बात है सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर फरमान सुना दिया. ये मुल्क फरमान से चलता है या संविधान से?

एक और बात समझ नहीं आ रही कि ये एक एक्जीक्यूटिव या कार्यपालिका के द्वारा निकाला जाने वाला आदेश है या अदालत का?

सरकार इस तरह का आदेश निकालती तो हम सुप्रीम कोर्ट जाते और अपनी बात रखते. हम अब भी कोशिश करेंगे. सिवाय इसके कर ही क्या सकते हैं.

अभी खूब तर्कों का तूफान उठेगा. कोई ना कोई जरूर कहेगा कि देश अगर अधिकार देता है तो कर्तव्य भी तय करता है. राष्ट्रगान भी ऐसा ही एक कर्तव्य है. तो बताइए भला अकेले राष्ट्रगान में ही कर्तव्य क्यों जांचा जाए.

इस बात के अलावा एक और बात समझ नहीं आती कि राष्ट्रगान से राष्ट्रभक्ति को इस तरह जोड़ कर देखना ही क्यों?

राष्ट्रभक्ति के और पैमाने क्यों नहीं?

परिवार के साथ मनोरंजन की खातिर सिनेमा गए एक आदमी की राष्ट्रभक्ति को परखना क्या सही है? इस तर्क से अगर कोई आदमी एटीएम से पैसा निकालने गया है तो क्या वहां ये जांचना जरूरी नहीं है कि वो आदमी पैसा निकलते वक्त देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है कि नहीं? फिर तो एटीएम में रकम निकालने के पहले भी राष्ट्रगान गाना होगा.

रेस्त्रां में खाना खाने गए आदमी की राष्ट्रभक्ति जांचना भी जरूरी है वरना देश का अन्न कोई देशद्रोही खा गया तो?

ये कैसा मापदंड बनाया जा रहा है देशभक्ती का? क्या जो लोग काला धन जमा कर रहे हैं वो राष्ट्रगान में तन कर नहीं खड़े होते?

पिछले इतने सालों में क्या देशभक्ति की कमी इस शिद्दत से महसूस की गई कि सुप्रीम कोर्ट को सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान जरूरी करार देना पड़ा. क्या वो भारत के लेखक, खिलाड़ी, सेना के जवान जो पूरी दुनिया में देश के नाम से जाने जाते हैं उनकी देशभक्ति नाकाफी है?