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क्यों फेक न्यूज और मॉब लिंचिंग रोकने में फेल हो रही हैं तेलंगाना पुलिस की कोशिशें!

डिजिटल तकनीक में तेलंगाना पुलिस देश में सबसे आगे मानी जाती है. लेकिन व्हाट्सऐप के बड़े जाल ने इन होशियार पुलिस वालों को नाकों चने चबवा दिए

T S Sudhir

हैदराबाद के बाहरी इलाके बीबीनगर की उस भयंकर घटना के बाद तेलंगाना के सारे बड़े पुलिस अफसरों में हड़कंप मच गया था. बीबीनगर में एक ऑटो ड्राइवर बालकृष्णा को गांव वालों ने, बच्चा-चोर समझ कर पीट-पीट कर मार डाला था.

हालांकि पुलिस अफसरों के लिए राहत की बात ये थी कि वारदात के दो दिन के भीतर ही उन्होंने हत्यारी भीड़ का हिस्सा रहे 6 लोगों को पकड़ लिया था. लेकिन परेशान करने वाली बात ये थी कि वे ये पता लगाने में असफल रहे थे कि ‘बच्चा-चोर गैंग’ वाली अफवाह आखिर शुरू कहां से हुई.


आपको बता दें कि तेलंगाना पुलिस, डिजिटल तकनीक में देश की सबसे सक्षम पुलिस मानी जाती है. पहले भी यहां की पुलिस काउंटर इंटेलिजेंस के काम में काफी नाम कमा चुकी है. चाहे वह आतंकवाद हो, सोशल साइट्स पर होने वाली संदेहास्पद सीक्रेट चैट देखनी और सुननी हो, आईएसआईएस से जुड़े लोगों की जासूसी करनी हो या फिर अतिवाद फैलाने वालों पर निगाह रखनी हो, तेलंगाना पुलिस देश में सबसे आगे मानी जाती है. लेकिन व्हाट्सऐप के बड़े जाल ने इन होशियार पुलिस वालों को नाकों चने चबवा दिए.

अफवाहों के जाल से परेशान पुलिस

व्हाट्सऐप के ज़रिए ही लोगों के बीच अफवाह फैलाई जाती है कि बच्चों को अगवा करने वाला गैंग उनके आस-पास कहीं घूम रहा है. इस मैसेज का लोगों पर इतना असर पड़ता है कि वे किसी को भी बच्चों से बात करते देखते हैं, तो उसे घेर कर मार डालते हैं.

काउंटर इंटेलीजेंस सेल के एक बड़े आईपीएस अफसर का कहना है- 'व्हाट्सऐप एक एनस्क्रिप्टेड यानी कूट भाषा वाला माध्यम है. इसका सर्वर भारत में नहीं है. इसलिए हमें इसका डेटा उपलब्ध नहीं हो पाता. हमें टेलीकॉम सेवा देने वालों से भी कोई डेटा नहीं मिल पाता. इसीलिए ऐसे मामलों में तह तक पहुंचने में काफी दिक्कतें पेश आती हैं.'

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सच पूछें तो, लिंचिंग के इतने मामलों के बाद भी अगर देश ठंडा पड़ा हुआ है, तो इस बेपरवाही को खतरे की घंटी मानने का वक्त आ गया है. पिछले कुछ सालों में भीड़तंत्र ने लिंचिंग जैसे अपराध को एक खास तरह की वैधता का जामा पहना दिया है और इसका पूरा श्रेय दक्षिणपंथी ताकतों को जाता है. गौ-रक्षक गैंग की ओर से की गई लिंचिंग एक खास मंसूबे के तहत होती है. लेकिन बच्चा-चोर गैंग की अफवाह के चलते लिंचिंग, पहली निगाह में किसी राजनीतिक या सामुदायिक साज़िश का हिस्सा नहीं लगती. निशाने पर कोई जाति,धर्म या समुदाय नहीं होता. लेकिन इन घटनाओं ने भारत की तस्वीर खून के प्यासे एक देश की बना दी है, जहां लोग बिना पूछताछ किए खुद ही तुरंत और सीधे सज़ा देने लगे हैं.

बढ़ रही है देश में भीड़-तंत्र की प्रवृति

देश भर में इस साल अप्रैल से लेकर अब तक लिंचिंग के 29 मामले सामने आए हैं और इनमें से ज़्यादातर तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश,महाराष्ट्र, तेलंगाना, त्रिपुरा, बंगाल, कर्नाटक, गुजरात और असम से हैं. भीड़-तंत्र के न्याय के इस तरीके के चलते काफी संख्या में लोग घायल भी हुए हैं.

सबसे डरावनी घटना महाराष्ट्र के धुले में बीते रविवार को हुई, जहां पांच लोगों को भीड़ ने बच्चा अगवा करने वाला गैंग समझ कर मार डाला. मामला व्हाट्सऐप के एक मैसेज से जुड़ा था, जो पिछले कुछ दिनों से यहां के लोगों के मोबाइल पर चल रहा था. लोगों ने यहां के बाज़ार में पांच लोगों को किसी बच्चे से बात करते हुए देखा और उन्हें बच्चा अगवा करने वाला गैंग समझ कर उन पर टूट पड़े.

पुलिस के मुताबिक जो वीडियो व्हाट्सऐप पर चल रहे हैं, वे दरअसल दक्षिण अमेरिका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के वीडियो हैं. लेकिन इन वीडियोज़ के साथ जो मैसेज चल रहा है, उसके मुताबिक भारत के उस खास इलाके में इसी तरह के बच्चों को अगवा करने वाला गैंग घूम रहा है और लोग इससे सतर्क रहें.

चेन्नई मेट्रो के लिए काम करने वाले ओडिशा के दो मजदूरों की जान बीते रविवार को खतरे में पड़ गई. लोगों ने देखा कि ये दो मजदूर एक 4 बरस के बच्चे से बात कर रहे हैं और उसके साथ खेल रहे हैं. बच्चे के परिवार ने समझा कि ये दोनों बच्चा चुराने वाले गैंग के ही लोग हैं. बस फिर क्या था, उन्होंने शोर मचा दिया और आसपास के लोगों ने उन दोनों मजदूरों के ऊपर हमला बोल दिया. भला हो स्थानीय पुलिस का, जिन्होंने मौके पर तुरंत पहुंच कर दोनों मजदूरों को बचा लिया, जो फिलहाल अस्पताल में भर्ती हैं.

इसी तरह मालेगांव में भी पांच लोगों को भीड़ ने जम कर पीटा. लोगों ने उन्हें किसी किशोर से बात करते देख लिया था. ये लोग भी दिहाड़ी मजदूर थे और पुलिस के आ जाने से उस रोज़ बच गए.

हर जिले में है सोशल मीडिया लैब, फिर भी निगाह रखना है मुश्किल

इन अफवाहों से निपटने के लिए देश में सबसे पहले तेलंगाना में पुलिस ने हर ज़िले में एक सोशल मीडिया लैब खोला, जहां सोशल मीडिया की तकनीक में पारंगत पुलिस वाले रखे गए, जिससे वे पूरे ज़िले पर निगाह रख सकें. लेकिन सोशल मीडिया पर निगाह रखना इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि हमारे देश में डेटा का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है.

जून 2016 तक 2000 लाख जीबी डेटा रोज़ इस्तेमाल करने वाला देश, सितंबर 2017 तक 15 हज़ार लाख जीबी डेटा रोज़ इस्तेमाल करने लगा था. ये आंकड़ा फिलहाल 20 हज़ार लाख जीबी रोज़ का हो गया है. ज़ाहिर है पुलिस के लिए भी हर ओर निगाह रखना बहुत कठिन है.

तेलंगाना पुलिस के एडिशनल डीजी जितेंद्र का कहना है- 'हमारी सोशल मीडिया की टीमों के लगातार निगाह रखने के बावजूद अक्सर हमें सूचना काफी देर से मिलती है. हम अपनी रणनीति इस मामले में और बेहतर करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन डिजिटल मामलों में हमारी सीमाएं हैं.'

कस्बाई इलाकों में रहने वाले लोग अब ‘शेयरचैट’ नाम के एक ऐप का इस्तेमाल करने लगे हैं, जिससे स्थानीय भाषा में चैट होती है. ये ऐप तेलुगू भाषी इलाकों और तमिलनाडु मे खासा लोकप्रिय है. इसके ज़रिये ऐसी बातें फैलाई जाती हैं जो समाज को बांटने वाली होती हैं. चूंकि पुलिस का ध्यान फिलहाल व्हाट्सऐप और फेसबुक पर है, इसलिए शेयरचैट पर की गई बातें जांच के दायरे में आ ही नहीं पातीं.

तो क्या इस तरह की चैट और ऐप एक सोची-समझी साज़िश का नतीजा हैं, जिसके ज़रिए शायद ये देखा जा रहा हो कि लोगों के दिमाग से खेलने के लिए व्हाट्सऐप कितना बड़ा हथियार साबित हो सकता है?

तेलंगाना पुलिस के एक सीनियर खुफिया अधिकारी का मानना है- 'ये मुमकिन है कि कोई शख्स या कोई ग्रुप अभी ये सब करके सिर्फ अंदाजा लगा रहा हो कि इससे कितनी दूर तक मार की जा सकती है. ये भी हो सकता है कि सिस्टम में ये इतना रच-बस गया हो कि अब हमारे नियंत्रण के बाहर जा चुका हो. और यही देश की पुलिस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है.'

एएलटी न्यूज़ के प्रतीक सिन्हा ने इस बात पर रोशनी डाली कि कैसे अलग-अलग राज्यों में स्थानीय भाषाओं में अफवाह फैलाई गई. मिसाल के तौर पर, अगर कोई अफवाह सूरत में फैलाई गई तो गुजराती में होगी और अगर वह औरंगाबाद में फैलाई गई तो मराठी में होगी. इसका मतलब बिल्कुल साफ है कि कोई साज़िश के तहत अनुवाद कर इलाकों में भेज रहा है जिससे अफवाह भड़का कर समस्या और बढ़ाई जाए.

मकसद साफ नहीं पर सब योजनाबद्ध

प्रतीक सिन्हा का कहना है - 'हालांकि इसका मकसद साफ नहीं हो पा रहा, लेकिन ये हो बहुत योजनाबद्ध तरीके से रहा है. फेक न्यूज़ के मामलों में जो कंटेंट या कथ्य होता है, उसे बदला नहीं जाता और सीधे ही फॉरवर्ड कर दिया जाता है. लेकिन इस मामले में न सिर्फ इसका अनुवाद कर इसे फॉरवर्ड किया जा रहा है, बल्कि इसे कई बार किसी एक कस्बे में कई जगहों पर केंद्रित कर रखा जा रहा है. जैसे, इन अफवाहों में जिस जगह का ज़िक्र होता है, वह उस जगह के आसपास की ही होती है, जहां वह मैसेज रिलीज़ किया जाता है. कौन कर सकता है ये?'

फिलहाल अब, जबकि पुलिस के पास ‘डिजिटल ट्रेल’ को खोज निकालने की क्षमता आ गई है, फोकस इस बात पर है कि ऐसी घटनाओं को होने से पहले ही कैसे रोका जाए. उदाहरण के तौर पर तेलंगाना के ज़िले जोगुलांबा गडवल में, हर पुलिस स्टेशन के एसएचओ ने हर गांव के व्हाट्सऐप ग्रुप में अपने थाने को जोड़ लिया है. इस ज़िले की एसपी रीमा राजेश्वरी ने बताया- 'हमने सरपंचों की बैठक कर के उन्हें भी सतर्क रहने को कहा है और बताया है कि वे हमेशा अपने गांव के व्हाट्सऐप ग्रुप में आ रही चीज़ों को देखते रहें और अगर कोई मैसेज संदेहास्पद लगे तो तुरंत अपने नज़दीकी पुलिस थाने पर जा कर बताएं. ये भी एक तरीका है , जिसके ज़रिेए हम ऐसी घटनाओं को होने देने से पहले रोकने की कोशिश कर रहे हैं.'

कस्बाई इलाकों में भी स्मार्टफोन के ज़रिए भीड़ का उन्माद रोकने की कोशिश इसी तरीके से हो रही है. रचकोंडा के पुलिस कमिश्नर महेश भागवत का कहना है - 'हमने यहां हर ऑटोरिक्शा के पीछे स्टिकर्स लगाए हैं, जिन पर साफ संदेश लिखा गया है कि इस इलाके में बच्चा अगवा करने वाला कोई गैंग नहीं घूम रहा. तेलुगू में ऐसे गीत रिकॉर्ड कर लोगों में बांटे जा रहे हैं जिनमें ये संदेश है कि लोग अफवाहों पर कान न दें.'

ध्यान से देखें तो आप पाएंगे कि एक ओर ट्विटर पर अनजाने ट्रोल्स के ज़रिए भारत के शहरी इलाकों में लोग हत्या और रेप की धमकियों से जूझ रहे हैं और दूसरी ओर असल भारत मौत का इतने करीब से सामना कर रहा है.