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सर्जिकल स्ट्राइक से बदल गई है भारतीय सेना की सोच: नितिन ए गोखले

तीन सालों में देश ने जो रोमांचक सफर पूरा किया है उसके बारे में अपनी नई किताब ‘सेक्युरिंग इंडिया द मोदी वे: पठानकोट, सर्जिकल स्ट्राइक एंड मोर’ के लोकार्पण से पहले नितिन गोखले ने फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत की थी

Kangkan Acharyya

दक्षिण एशियाई के रणनीतिक मामलों के शीर्ष पांत के विशेषज्ञों में शामिल नितिन ए गोखले की नई किताब ‘सेक्युरिंग इंडिया द मोदी वे: पठानकोट, सर्जिकल स्ट्राइक एंड मोर’ का लोकार्पण हो गया है. इस किताब के एक अहम हिस्से में जिक्र आता है कि भारत से दोस्ती या फिर वैर भाव रखने वाले मुल्कों के साथ मोदी सरकार ने बीते तीन सालों में कैसा बर्ताव किया है.

तीन सालों में देश ने जो रोमांचक सफर पूरा किया है उसके बारे में किताब के लोकार्पण से पहले नितिन गोखले ने फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत की थी. यहां पढ़िए उस बातचीत के चुनिंदा हिस्से:


सवाल: आपकी किताब का नाम 'सेक्युरिंग इंडिया द मोदी वे: पठानकोट, सर्जिकल स्ट्राइक एंड मोर’ से ऐसा जान पड़ता है कि इसे देश के सुरक्षा मामलों पर लिखा गया है और खास जोर इस बात पर है कि इन मामलों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख क्या रहा है? आखिर पहले की सरकारों की तुलना में मोदी सरकार का रुख सुरक्षा मामलों को लेकर किस तरह अलग रहा है?

जवाब: बीते 40 महीनों में भारत ने अपनी विदेश नीति और सुरक्षा के मामलों पर पहले की तुलना में कहीं ज्यादा मजबूती दिखाई है. चीन और पाकिस्तान से निपटने के मामले में भारत का रुख जमीनी तौर पर अडिग और कूटनीतिक रूप से बड़ा संतुलित और सधा हुआ साबित हुआ. अपने कार्यकाल के शुरुआती दिनों में प्रधानमंत्री ने दोनों ही मुल्कों की तरफ स्वागत भाव से हाथ बढ़ाया. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह में शरीक हुए. लेकिन इसके बाद जो हुआ उससे हम सब वाकिफ ही हैं- विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द हो गई.

इसी तरह प्रधानमंत्री ने चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और चीन ने गर्मजोशी दिखाई. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के चार महीने के भीतर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दिल्ली आए. इसके पहले वे अहमदाबाद भी गए. लेकिन इसी वक्त तकरीबन 1000 चीनी सैनिक चुमार इलाके में घुस आए थे. बीते 15 सालों से भारत का रुख ज्यादातर ऐसे हालात में यही रहा है कि तनाव और ज्यादा ना बढ़े. भारत की कोशिश रहती थी कि मामला कूटनीतिक स्तर पर सुलझा लें. लेकिन इस बार मोदी सरकार ने अलग ही रुख अपनाया, फैसला हुआ कि चीन से एकदम जमीनी तौर पर निपटना है.

घुसपैठ करने वाले चीनी सैनिकों से निपटने के लिए दो सालों के भीतर भारत ने लगभग 9000 फौजियों का सैन्य-दल खड़ा कर लिया. इस सैन्य दल ने चीनी सैनिकों को यथास्थिति बदलने और सड़क-निर्माण करने से रोका. भारत के प्रधानमंत्री ने शी जिनपिंग से यह भी कहा कि हम दोस्ती करना चाहते हैं और इस किस्म की घटनाएं हमें कतई मंजूर नहीं. डोकालाम मामले में भी भारत ने ऐसी ही मजबूती दिखाई. ध्यान रहे कि मुंबई हमले के बाद भी भारत पाकिस्तान पर हमलावर नहीं हुआ था.

विदेश नीति के मामले में भी भारत ने सक्रियता दिखाई है और मुल्कों का गठबंधन तैयार करने की कोशिश की है. हमें यह भी देखना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य-पूर्व के मसले पर क्या रुख अपनाया. मेरी किताब में एक अध्याय इस बात पर भी है कि मौजूदा सरकार ने मध्य-पूर्व के देशों के साथ कैसे रिश्ते बनाए. तकरीबन 70 लाख हिंदुस्तानी मध्य-पूर्व के देशों में बतौर अप्रवासी रहते हैं और इनकी सुरक्षा और कल्याण को सुनिश्चित करना होता है. लिहाजा प्रधानमंत्री ने इलाके के मुल्कों से रिश्ते बनाए हैं.

जहां तक पूर्वी मोर्चे की बात है तो लुक ईस्ट पॉलिसी अब बदलकर एक्ट ईस्ट हो गई और पूरी तरह अपने रफ्तार में है. मुझे विदेश नीति और रणनीतिक मुद्दों पर पिछली सरकारों की तुलना में मोदी सरकार का रुख बहुत अलग दिख रहा है. सेना को हाथ खोल दिए गए हैं, सुरक्षित भारत बनाने के लिहाज से मोदी सरकार की एक अहम पहचान वामपंथी अतिवाद पर लगाम कसना है.

जान पड़ता है प्रधानमंत्री प्राथमिकता बदलने की कोशिश कर रहे हैं, उनका जोर इंडिया फर्स्ट (भारत सबसे पहले) पर है यानी कि सबसे पहले राष्ट्रीय हित हैं बाकी सारा कुछ बाद में. रणनीतिक फैसले लेने में यह फिक्र नहीं की जा रही कि सियासी नतीजे क्या होंगे. यह फिलॉसफी मुझे दिलचस्प लग रही है.

सवाल: पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक का खूब हल्ला मचा लेकिन इससे भारत को किस तरह फायदा हुआ है?

जवाब: इससे भारत को दो तरह से फायदा हुआ. एक तो यह कि पिछली सरकारों ने सेना के मन में यह बात डाल दी थी कि हमलोग पाकिस्तान के खिलाफ कुछ खास नहीं कर सकते क्योंकि तनाव बढ़ जाएगा, खुलेआम जंग लड़ना मुमकिन नहीं है. यह सोचकर कि तनाव कहीं बढ़ ना जाए, सेना हवाई हमले नहीं करती थी और ना ही जवाबी कार्रवाई के तौर पर ही कुछ खास कर पाती थी.

कहा जाता था कि सतर्कता जरुरी है क्योंकि दोनों मुल्कों के पास एटमी हथियार हैं. यह बात सेना के शीर्ष नेतृत्व के मन में भी पड़ी हुई थी और जमीन पर मोर्चा संभालने वाले सैनिकों के मन में भी. नतीजतन हिंदुस्तानी सेना बीते डेढ़ दशक से इस मानसिकता के साथ मोर्चा संभाल रही थी कि डटे रहना है लेकिन हमलावर नहीं होना है.

जोर अपनी सैन्य चौकियों और अड्डों को बचाए रखने पर था भले ही हमले लगातार होते रहें. अब आप चाहे जितने चाक-चौबंद हों लेकिन जो लोग खुद को मारने पर उतारु हैं वे अगर आप पर हमलावर होते हैं तो फिर कहीं ना कहीं आप उनकी हमलों की चपेट में आएंगे ही. सेना अब ऐसी सोच से उबर गई है.

दूसरे, सर्जिकल स्ट्राइक के कारण पाकिस्तानी सेना के शीर्ष नेतृत्व के मन में असमंजस पैदा हुआ है. अब वे लगातार यह सोचेंगे कि हम हद से आगे बढ़े तो पता नहीं हिंदुस्तानी सेना क्या रुख अपना ले. पहले के वक्त में हमारी सेना का जवाब उन्हें पहले से पता होता था.

वे आठ-दस भारतीय जवानों को मार गिराएं तो भारत उनकी कार्रवाई की निंदा में बयान जारी करता था और फिर डोसियर भेजे जाते थे या फिर हद से हद सीमा पर कुछ गोलीबारी कर दी जाती थी. पाकिस्तानी भांप लेते थे कि भारत की प्रतिक्रिया क्या रहने वाली है. कोई भी सेना नहीं चाहती कि दुश्मन उसकी प्रतिक्रिया पहले से जान ले. भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक करके पाकिस्तानी सेना के मन में अनिश्चितता पैदा की है. इससे पाकिस्तान के खिलाफ जाने का भारत के लिए रास्ता खुला है.

सवाल: लेकिन हमें समझना होगा कि पाकिस्तानी कब्जे वाली कश्मीर पर सर्जिकल स्ट्राइक जवाबी हमले के तौर पर हुआ था. भारत की फौज पर पाकिस्तानियों के हमले रूके नहीं हैं अबतक.

जवाब: हमले की जवाबी कार्रवाई के रुप में प्रचार बेशक किया गया लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक का मकसद घुसपैठ रोकना या पाकिस्तान की ओर से होने वाले हमलों में कमी लाना नहीं था. सर्जिकल स्ट्राइक का मकसद था पाकिस्तानी फौज के मन में शंका पैदा करना. भारत यह दिखाना चाहता था की वह चली आ रही रीत से आगे बढ़कर भी कुछ कर सकता है, अपनी फौज के मनोबल को ऊंचा उठा सकता है और जो पार्टी सत्ता में होगी वह ऐसे फैसलों का अपने सियासी फायदे में भी इस्तेमाल कर सकती है.

सवाल: क्या पाकिस्तान से निपटने का एकमात्र तरीका यही बचा है कि आक्रामक रवैया अपनाए रखा जाए या फिर अमन की आस लिए ट्रैक-टू डिप्लोमेसी का भी रास्ता अख्तियार किया गया है?

जवाब: ट्रैक टू डिप्लोमेसी जैसी कोई पहल हुई है तो समझिए कि यह मेरी जानकारी में नहीं है. बेशक दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बीच कोई ना कोई समझ बनी ही होगी. जम्मू-कश्मीर तथा पाकिस्तान से लगती सीमा पर आक्रामक रुख बनाए रखना मौजूदा सरकार का मुख्य सरोकार रहा है. बाकी सारे उपाय तो करके देख लिए गए, त्रिस्तरीय वार्ता भी हुई, हुर्रियत के साथ बातचीत की गई थी लेकिन बात बनती नजर नहीं आ रही थी.

सवाल: डोकलाम में चली तनातनी के भारत-चीन संबंधों के लिहाज से क्या मायने निकलते हैं? क्या कुछ बदलेगा या ऐसा ही चलता रहेगा?

जवाब: देखिए, चीन और भारत के बीच कुछ मामलों में तो असमानता है ही और रिश्तों में कायम यह असमानता नहीं बदलने वाली. चीन कहीं ज्यादा बड़ी सैन्य-शक्ति है, उसकी आर्थिक ताकत भी हमसे ज्यादा बढ़ी-चढ़ी है तो ऐसी बातों में बदलाव नहीं आने वाला क्योंकि भारत ऐसे मामलों में चीन के बराबर नहीं. जो चीज बदली नजर आ रही है वह है चीन से निपटने की हमारी मानसिकता.

डोकलाम के मसले से साबित हुआ कि भारत को इस तनातनी में कामयाबी मिली है. चीन के आस-पास के छोटे देशों ने भी देखा कि भारत ने मसले पर क्या रुख अपनाया, कैसे निपटारा किया. तो डोकलाम का मसला चीन के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, भारत के लिए नहीं. मैं डोकलाम को भारत-चीन संबंधों के लिहाज से मील का पत्थर मानकर चल रहा हूं.

सवाल: पूर्वोत्तर के राज्यों में मौजूद अलगाववादी भावनाओं को भड़काने में चीन की कोई ना कोई भूमिका रही है- यह मानने में हमें संकोच होता रहा है. क्या आपको लगता है कि मौजूदा सरकार के रहते ऐसी सोच में बदलाव आया है?

जवाब: ना, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है. मुझे तो यह भी लग रहा है कि चीन पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी गतिविधियां बढ़ाएगा क्योंकि भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर आक्रामक रवैया अपनाया है. यह एक खतरा तो हमेशा से मौजूद रहा है. उग्रवादी समूहों का एकजुट होना और उनसे चीनियों का मेल-जोल जारी रहता है. असम में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम के मुखिया परेश बरुआ रुईली से यूनान चले जाते हैं. लेकिन पूर्वोत्तर में चीन की धमक उतनी ज्यादा नहीं है जितनी कि कश्मीर में पाकिस्तान की.

एक बात यह भी है कि पूर्वोत्तर के सूबों मे चीन की दखल को साबित कर पाना बहुत मुश्किल है. लेकिन फिर इस बात का प्रचार क्यों करना, आखिर हम सच्चाई से वाकिफ है और बेहतर ढंग से निपटारा कर रहे हैं. डोकलाम और चुमार में चीन के सामने अडिग रहकर और एनएसजी की सदस्यता के मसले पर चीन के रुख के दोहरेपन को सबके सामने उजागर करके भारत ने जता दिया है कि वह पीछे हटने वालों में से नहीं है.

भारत बस चीन को इतना बताना चाहता है कि चीन फिलीपिंस, वियतनाम, ब्रूनेई और ताइवान जैसे छोटे देशों के साथ करता है वैसा ही भारत के साथ नहीं कर सकता. भारत चीन की धमकियों की परवाह नहीं करता अब. पूर्वोत्तर में चीन की धमक की बात का ज्यादा प्रचार करने की कोई जरूरत नहीं है.

सवाल: आपने किताब में लिखा है कि डोकलाम विवाद 26 जून से पहले ही शुरु हो गया था. क्या आप इस बात पर कुछ और प्रकाश डालना चाहेंगे?

जवाब: दरअसल परेशानी की शुरुआत 21 मई को ही हो गई थी. मैंने किताब में एक तस्वीर शामिल की है जो 24 मई की है. इसमें भारत और चीन के फौजी एकदम आमने-सामने खड़े नजर आ रहे हैं. चीन ने इस तनातनी का प्रचार 26 जून के दिन किया. मंशा यह थी कि मामला किसी तरह से प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से जुड़ा नजर आए. मामला एकदम सुनियोजित था लेकिन भारत ने चुप्पी बनाए रखी और चार दिन बाद एक बयान जारी हुआ जिसका समर्थन भूटान ने किया. सीमा पर भारत चीन के सामने अविचल खड़ा रहा.

भारत ने कूटनीति का रास्ता भी अख्तियार किया. ऐसे में आरोप मढ़ने वाला पहला बयान चीन की ओर से जारी हुआ, चीन को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और उसे कूटनीति का रास्ता अपनाना पड़ा. चीन को कहना पड़ा कि वह सीमा पर यथास्थिति से छेड़छाड़ नहीं करेगा. हिंदुस्तानी फौज फिर तैनाती की जगह से वापस लौटी. हमारी फौज कोई हमेशा के लिए वहां डटे रहने के मकसद से तो गई नहीं थी. चीन मान गया तो फौज लौट आई.

सवाल: डोकलाम में जारी तनातनी पर आखिर सुलह हुई कैसे?

जवाब: मेरी किताब में जिक्र आया है कि जर्मनी में हुए जी 20 के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तरफ से पहल की, वे राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ओर बढ़े और इस बात का संकेत किया कि दोनों देशों के बीच एक नामालूम से मुद्दे पर तकरार बढ़ रही है जबकि हमारे रणनीतिक रिश्ते कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. इसके बाद से मामला राजनयिक स्तर पर चला आया.

मैंने अपनी किताब मे जिक्र किया है कि दोनों देशों के बीच मसले के समाधान के लिए कम से कम 38 दफे बातचीत हुई. बातचीत में बेशक चीन हावी होने की कोशिश कर रहा था लेकिन भारत के कदम डगमगाए नहीं, भारत चीन के दबाव में नहीं आया. चीन ने बार-बार धमकी दी लेकिन भारत ने अपना मिजाज ठंढा रखा. यह रुख आगे के वक्त के लिए एक नजीर जैसा साबित हो सकता है.

सवाल: क्या भारत को अपने पड़ोसियों के खिलाफ पहली बार ऐसी कामयाबी मिली है?

जवाब: ना, भारत को ऐसी कामयाबी कोई पहली बार नहीं मिली. बीते 75 सालों में भारत को ऐसे मौके कई बार मिले हैं. 1975 में तो भारत ने राजनीतिक और फौजी कार्रवाई के जरिए एक अलग राष्ट्र ही बनवा दिया था. 1987 में अरुणाचल के समदोरोंग चू में ऐसा ही वाकया पेश आया था तब भी भारत चीन के सामने अडिग खड़ा रहा.

भारत ने चीन के साथ 2003 में सीजफायर के एक समझौते पर दस्तखत किए. यह समझौता 2013 में खत्म हुआ लेकिन भारत लगातार कहता रहा कि समझौता अब भी जारी है. लेकिन स्थिति बदल चुकी थी क्योंकि सीजफायर के उल्लंघन की घटनाएं लगातार बढ़ रही थी.

सवाल: ओबीओआर चीन के लिए महत्वपूर्ण है. क्या चीन भारत के दबाव में इस परियोजना को छोड़ देगा?

जवाब : देखिए, मैं ऐसा नहीं कह रहा कि भारत चाहता है कि चीन ओबीओआर की परियोजना छोड़ दे. भारत बस इतना कह रहा है कि वह इस परियोजना का हिस्सा नहीं बनेगा. चाइना पाकिस्तान इकॉनॉमिक कॉरिडोर भारत की संप्रभुता वाले इलाके से होकर बन रहा है और भारत ने इस पर अपनी आपत्ति बिल्कुल साफ शब्दों में जता दी है.