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तीन तलाक: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्यों याद आईं शाह बानो!

कुछ इसी तरह का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में शाहबानो के मामले में भी सुनाया था

FP Staff

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा तलाक-ए-बिद्दत यानी एक बार में तीन बार तलाक-तलाक कहकर तलाक देने की प्रथा को असंवैधानिक और अवैध कहा गया है. इस फैसले के बाद सभी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है और इसे महिला अधिकारों की लड़ाई की एक बड़ी जीत कहा है.

सुप्रीम कोर्ट में इस केस को सायरा बानो और उनकी जैसी चार महिलाओं ने उठाया था. कुछ इसी तरह का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में शाहबानो के मामले में भी सुनाया था. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पति को कानूनी तरीके से गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था.


यह शाह बानो केस ही था, जहां से तीन तलाक जैसी प्रथा को खत्म करने की मांग उठी थी. हालांकि राजीव गांधी ने एक अधिनियम लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था और शाह बानो को इस फैसले का लाभ नहीं मिला.

क्या था शाहबानो केस?

ट्रिपल तलाक की इस बहस ने जोर पकड़ा था अब से 30 साल पहले, शाह बानो केस के मसले पर. इंदौर में रहने वाली 62 साल की शाह बानो को उसके पति ने 1978 में तलाक दे दिया था. शाह बानो के 5 बच्चे थे. शाह बानो ने पति से कानूनी तलाक भत्ते की मांग की पर पति इस्लामिक कानून के हिसाब से ही गुजारा भत्ता देना चाहता था. इस पर देश भर में बहुत बहस चल रही थी.

1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो को पति से कानूनी भत्ता दिलवाने का आदेश भी दे दिया. पर 1973 में स्थापित ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मिलकर इस फैसले को मुस्लिम समुदाय के पारिवारिक और धार्मिक मामलों में अदालत का दखल बताते हुए पुरजोर विरोध किया.

इसके बाद राजीव गांधी सरकार ने एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया. और मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरुओं को ही गुजारा भत्ता तय करने का अधिकार मिल गया.

इस वजह से केस जीतने पर भी शाह बानो को गुजारा भत्ता नहीं मिल पाया. इस अधिनियम के तहत शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था.