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सुकमा हमलाः CRPF की इन गलतियों की वजह से हमने खोए 25 जवान

इसी जिले में एक महीने पूरे होने के कुछ ही दिन बाद यह दूसरा नक्सली हमला है

Debobrat Ghose

सोमवार की दोपहर को छत्तीसगढ़ में सुकमा के बुर्कापाल में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के कम से कम 25 जवान शहीद हुए हैं.

इसी जिले में एक महीने पूरे होने के कुछ दिन बाद यह दूसरा नक्सली हमला है. पिछला हमला 11 मार्च को हुआ था, उस वक्त 12 जवान शहीद हुए थे.


माओवादियों के गढ़ बस्तर में काम कर रहे सुरक्षा बलों के लिए नक्सली हमले इतने घातक क्यों हो गए हैं? आखिर क्यों हर बार माओवादी तकरीबन हर बार इतनी बड़ी संख्या में हमारे जवानों को मारने में सफल हो जाते हैं?

सोमवार की मुठभेड़ एक बार फिर हमें इसकी वजहों को सोचने के लिए मजबूर करती है. अत्याधुनिक हथियारों और गुरिल्ला युद्ध से निपटने की तकनीक की ट्रेनिंग पाए हमारे जवान आखिर वाम-चरमपंथियों के आगे असहाय क्यों नजर आते हैं?

बस्तर में मौजूद सूत्रों के मुताबिक, सोमवार के हमले की योजना हिडमा ने बनाई थी. हिडमा माओवादियों की मिलिटरी बटालियन का कमांडर है. माना जा रहा है कि हिडमा ने एस-शेप वाले मुठभेड़ के तरीके का इस्तेमाल कर सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन पर जीत हासिल की. दिनदहाड़े हुए इस हमले में माओवादी सीआरपीएफ जवानों के अत्याधुनिक हथियार भी लूटकर ले गए.

इस हमले से हमारे सुरक्षा बलों के कामकाज के तरीकों की असफलता और खामियों का पता चलता है. इस हमले से यह भी पता चलता है कि माओवादियों के गढ़ में राज्य पुलिस पूरी तरह नाकाम रही है.

एक आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ के मुताबिक, ‘इस नरसंहार के पीछे कई फैक्टर हैं. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. छत्तीसगढ़ की आदिवासी बेल्ट में ऐसी घटनाएं साल-दर-साल होती आ रही हैं. पिछले 6 सालों में इतने बड़े पैमाने पर हुआ यह चौथा हमला है.’

सीआरपीएफ जवानों पर हुए पिछले हमले

- 6 अप्रैल 2010: माओवादियों ने ताडमेतला में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या की.

- 29 जून 2010: नारायणपुर के धुरई में 26 जवान मारे गए.

- 25 मई 2013: दर्बा घाटी में 27 लोग मारे गए जिनमें सीआरपीएफ जवान और राजनेता शामिल थे. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की टॉप लीडरशिप का पूरी तरह खात्मा हो गया.

इन हमलों के अलावा इसी साल 11 मार्च को भी हमला हुआ जिसमें एक आईईडी ब्लास्ट में 12 जवान मारे गए, लेकिन इसे मीडिया में ज्यादा तवज्जो नहीं मिली क्योंकि इसी दिन पांच राज्यों में हुए असेंबली इलेक्शंस के नतीजे आ रहे थे.

बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) के पूर्व डायरेक्टर जनरल और लेफ्ट-विंग एक्स्ट्रीमिज्म के विशेषज्ञ, प्रकाश सिंह के मुताबिक, ‘लीडरशिप फेल्योर से लेकर सिक्योरिटी फोर्सेज के कामकाज में खामियों जैसे कई फैक्टर्स के चलते 25 सीआरपीएफ जवानों की शहादत हुई है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि बार-बार ऐसी घटनाओं के बावजूद हम कोई सबक नहीं सीख रहे हैं.’

[तस्वीर पीटीआई]जवानों पर हो रहे बार-बार हमलों के पीछे कारण

एसओपी का पालन न करना: स्थानीय सूत्रों के मुताबिक, जिस वक्त ये हमला हुआ उस वक्त दो ग्रुप्स में बंटी सीआरपीएफ की एक रोड ओपनिंग पार्टी (आरओपी) लंच कर रही थी. स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स (एसओपी) के मुताबिक, एक बड़े ग्रुप में एक जगह बैठने की बजाय जवानों को खुद को चार-पांच जवानों के छोटे ग्रुप्स में बांट लेना चाहिए.

काउंटर-टेररिज्म एनालिस्ट अनिल कंबोज के मुताबिक, ‘यह बेसिक एसओपी के खिलाफ है. शुरुआती तौर पर संकेत मिल रहा है कि एसओपी का पालन नहीं हुआ. अगर एक जवान लंच कर रहा है तो अन्य को सुरक्षा करनी चाहिए. यहां तक कि जब जवान मार्च करते हैं तो भी एक दूरी कायम रखी जाती है.'

सीआरपीएफ जवानों पर लगातार हमलों और उनकी हत्याओं से संकेत मिलता है कि एसओपी के पालन में कोताही बरती जा रही है. दूसरा, क्या वहां एक क्विक रेस्पॉन्स टीम (क्यूआरटी) थी, जो कि रोड ओपनिंग पार्टी को मदद दे सके.

लीडरशिप का अभाव: एक्सपर्ट्स ने सीआरपीएफ की लीडरशिप पर सवाल उठाए हैं. टॉप से लेकर प्लाटून कमांडेंट लेवल तक लीडरशिप में खामी की ओर एक्सपर्ट संकेत कर रहे हैं. सीआरपीएफ में डायरेक्टर जनरल का पद 50 दिन से ज्यादा से खाली पड़ा रहा और इससे हर लेवल पर बल का मनोबल कमजोर पड़ा है.

सुकमा हमले में नक्सलियों द्वारा इस्तेमाल किए गए गोला-बारूद

कोर्डिनेशन का अभाव: राज्य पुलिस और सेंट्रल फोर्सेस के बीच तालमेल का अभाव माओवादियों को सीआरपीएफ और पुलिस के खिलाफ बढ़ोतरी देता है.

नक्सलवाद को खत्म करने के लिए केंद्रीय बलों को मुख्य भूमिका देने की बजाय यह काम राज्य पुलिस को करना चाहिए. नक्सलवाद से निपटने को केंद्र और माओवादी काडर के बीच जंग के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. सिंह कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ पुलिस को इसमें एक्टिव भूमिका निभानी चाहिए.’

पर्याप्त ट्रेनिंग का अभावः सिक्योरिटी एक्सपर्ट्स सवाल उठा रहे हैं कि क्या सीआरपीएफ जवानों के पास बस्तर जैसे जटिल इलाके में माओवादियों से लड़ने के लिए गुरिल्ला युद्ध के तौर-तरीकों की पूरी ट्रेनिंग है भी या नहीं?

सीआरपीएफ की एलीट फोर्स कोबरा बटालियन इस मकसद के लिए बेहतर तरीके से ट्रेन्ड है. इसकी केवल आठ बटालियनें बस्तर में तैनात हैं. आंध्र प्रदेश की ग्रे-हाउंड की तर्ज पर छत्तीसगढ़ सरकार क्यों एक प्रभावी एंटी-नक्सल स्क्वॉड नहीं कर सकी?

खराब इंफ्रास्ट्रक्चर और मैनपावर: सूत्रों के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में मंजूर 425 पुलिस स्टेशनों में से केवल 403 ही मौजूद हैं. इनमें से भी 161 स्टेशनों में कोई गाड़ी नहीं है. इन बेहद संवेदनशील इलाकों में कई पुलिस स्टेशनों में आधा स्टाफ है क्योंकि ज्यादातर पुलिसवाले इन स्टेशनों में पोस्टिंग नहीं चाहते हैं. छत्तीसगढ़ पुलिस में करीब 10,000 पद अभी तक रिक्त हैं.

खुफिया तंत्र की नाकामी: यूपी पुलिस के डीजीपी रह चुके सिंह कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर बड़ी संख्या में हमला करने वाले माओवादी एक दिन में आसमान से तो नहीं आए होंगे. आखिर सीआरपीएफ को क्यों इनके मूवमेंट और इकट्ठा होने की जानकारी नहीं हो पाई?’

इलाके पर कब्जाः आईडीएसए के फॉर्मर सीनियर फैलो कंबोज कहते हैं, ‘सीआरपीएफ जवान वहां रोड कंस्ट्रक्शन वर्क और वर्कर्स की सुरक्षा के लिए तैनात हैं. अगर वे खुद माओवादियों के हमलों से खुद को नहीं बचा पा रहे हैं तो हम उनसे इस इलाके की सुरक्षा की कैसे उम्मीद कर सकते हैं?

माओवादी इलाकों में सबसे पहली जरूरत इलाके पर अपना कब्जा करना है. बार-बार हमलों से साबित हो रहा है कि सिक्योरिटी फोर्सेस इसमें नाकाम हो रही हैं.