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सुकमा: विस्फोटक लगे तीर नक्सलियों के विकसित होते युद्ध-कौशल की निशानी हैं

पुलिस भी इस जांच में लगी है कि दो साल के अंतराल के बाद माओवादी अचानक कैसे सक्रिय हो गए

Debobrat Ghose

( मार्च 2017 में सुकमा में नक्सलियों ने हमला बोला था. ये लेख उसी वक्त का लिखा है. सुकमा के हालात पर फ़र्स्टपोस्ट संवाददाता देवब्रत घोष की खोजी रिपोर्ट )

जिस दिन भाजपा ने उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व जीत दर्ज की ठीक उसी दिन हुई एक भीषण घटना ने बस्तर के जंगलों को हिला दिया.


सुकमा के भेज्जी इलाके में, जो कि देश में नक्सलियों के सबसे बदनाम ठिकानों में से एक है, नक्सलियों के हमले में सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के बारह जवान मारे गए. लेकिन इस घटना की चीखें चुनावी जीत के कानफोड़ू जश्न की आवाजों में कहीं खो गईं.

हॉलीवुड की रेम्बो सीरीज वाली ब्लॉकबस्टर फिल्म की मिसाल लेते हैं. ये फिल्म थी फर्स्ट ब्लड पार्ट II (1985), जिसका नायक सिल्वेस्टर स्टेलॉन अपने दुश्मनों का अकेले ही सामना करता है. उन पर विस्फोटक लगे हुए तीरों से हमला करता है. ठीक ऐसे ही नक्सलियों ने भी लैंडमाइन का हमला करते समय विस्फोटक लगे तीरों का इस्तेमाल करके सुरक्षाबलों का ध्यान भटकाने की कोशिश की.

यह कोई आम नक्सली हमला नहीं था जिसमें सीआरपीएफ के जवानों की जान गई. 11 मार्च के हमले की छुपी हुई वजह, इस इलाके का 'विकास' है. यही है वो मुद्दा जिसका नक्सली काफी समय से विरोध कर रहे हैं. इस हमले का समय भी उसी दौरान ही तय किया गया है जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विकास का एजेंडा लोगों को पसंद आ रहा है. जो कि विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत की बड़ी वजह रही.

विकास का रास्ता या मौत की सड़क?

स्थानीय लोगों के मुताबिक, हालिया नक्सली हमले कोट्टा से सुकमा को जोड़ने वाली सड़क की वजह से हुए हैं. नक्सलियों द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन होने के बावजूद पिछले डेढ़ साल से सड़क बनाई जा रही है.

जगदलपुर के पत्रकार ऋषि भटनागर ने कहा, 'माओवादी कॉन्टा से सुकमा तक राजमार्ग के निर्माण और भेज्जी से हो कर जा रही सड़क का भी विरोध कर रहे हैं. दरअसल ये लोग विकास के विरोधी हैं.' राजमार्ग पूरा होने के बाद दूरदराज के नक्सली इलाकों में सीआरपीएफ के लोगों की पहुंच आसान हो जाएगी.

11 मार्च को भी यही हुआ था जब सीआरपीएफ की सड़क खोलने वाली पार्टी (आरओपी) पर  सुबह सड़क की सफाई करते वक्त हमला किया गया था. आज भी आप यहां आएं, तो हमले वाली जगह की हवा में  बारूद की गंध और जमीन पर खून के धब्बे दिख जाएंगे आपको.'

फर्स्टपॉस्ट द्वारा प्राप्त तस्वीर: सुकमा के भेज्जी इलाके में कोट्टाचेरू के हमले वाली जगह से बेहतर किस्म के देशी मोर्टार और तीर बरामद हुए.

सीआरपीएफ की सेना कैसे फंस गई?

एक वरिष्ठ सीआरपीएफ अधिकारी ने फर्स्टपोस्ट को बताया, 'रोजाना वाले अभ्यास के तौर पर सीआरपीएफ के 219 बटालियन के 110 जवानों वाली एक आरओपी 11 मार्च को सुबह 7.30 बजे कैम्प से बाहर निकली थी. तब उसके दो मकसद थे - इलाके पर अपना वर्चस्व की परेड और सड़क की सफाई.

वो काफी अहम दिन था क्योंकि वो भेज्जी के लोकल बाजार (हाट) का दिन था. इस दिन वहां बहुत लोगों की आवाजाही होने वाली थी. पार्टी ने खुद को दो समूहों में बांट दिया था.

एक समूह हाइवे के रास्ते निकला और दूसरा जंगल की तरफ से चला. जंगल की तरफ से जाने वाली सैनिक टुकड़ी जब थोड़ा अंदर पहुंची जहां पेड़ों से घिरे होने की वजह से थोड़ा अंधेरा सा हो गया था, उस समय करीब 9 बजे उन पर आधुनिक विस्फोटक उपकरणों (आईईडी) से घात लगा कर हमला किया गया.

'ए / ई 219 बटालियन की सैनिक टुकड़ियां रोड साफ करने वाले दल का हिस्सा थीं जो कि भेज्जी और कोट्टाचेरू के बीच बन रही एक सड़क की सुरक्षा कर रहा था. नक्सलियों ने जमीन पर कई छिपी आईईडी लगा कर जवानों पर गोलियों से हमला किया था. जवानों ने जवाबी कार्रवाई तो जोरदार तरीके से की पर इस हमले में हमने अपने 12 बहादुर जवान खो दिए.

ऐसे किसी हमले के बारे में हमारे पास कोई गुप्तचर जानकारी नहीं थी. ये इलाका हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती रहा है, क्योंकि हमने पहले ही दिन से यहां दुश्मनी महसूस कर ली थी.

नक्सलियों द्वारा अपनाई गई रणनीति

सुरक्षा बलों और मैदानी सूत्रों के मुताबिक, माओवादियों ने कोट्टेचेरू में सड़क के दोनों किनारों पर आईईडी लगाकर जवानों की टुकड़ी को फंसाने की कोशिश की.

लैंडमाइन लगा कर हमले की शुरुआत की गई और उसके बाद ए के-47 से जवानों पर गोलीबारी की गई. माओवादियों के साथ आई लोकल लोगों की फौज ने लड़ रहे  जवानों को भटकाने के लिए विस्फोटक तीरों की बौछार की. इस इलाके में हमला दो साल बाद हुआ था.

सीआरपीएफ के एक अधिकारी ने कहा, 'वे हार रहे थे लेकिन हार नहीं मान रहे थे. माओवादियों ने, जो  गुरिल्ला शैली के युद्ध में कुशल थे. उन्होंने इस बड़े हमले के लिए दो साल का लंबा इन्तजार किया था.

सुकमा में पुलिस और स्थानीय स्रोतों के अनुसार, ये हमला माओवादियों की सैनिक बटालियन नंबर 1 द्वारा किया गया था, जिसके तहत तीन इकाइयां काम करती हैं.

सूत्रों ने कहा, 'तीन इकाइयों में से एक जिसने हमला किया था, का नेतृत्व सोनू ने किया था. इनको पीछे से सैनिक बटालियन के कमांडर हिडमा ने बैकअप दिया था.'

एक पुलिस सूत्र ने बताया, 'बस्तर में माओवादी कैडर की दो फौजी बटालियन हैं. एक हिडमा के तहत सुकमा से चलाई जा रही है. दूसरी मार-कांकेर गरियाबंद में काम कर रही है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

वामपंथी अतिवाद (एलडब्ल्यूई) के इस कट्टरपंथी इलाके में माओवादियों के बीच गुरिल्ला युद्ध में नकली नाम से काम करने वाले हिडमा को 'सर्वश्रेष्ठ सेनानी और रणनीतिकार' माना जाता है. कई मामलों में उसका हाथ रहा है और उनमें से एक कसल्पद का हमला भी है.

इस बार के हमले में सीआरपीएफ जवानों पर हमले का नेतृत्व करने वाला 'सोनू' एक नया नाम है जो कि अभी सामने आया है. यूनिट का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों की जानें लेना था. चूंकि जवानों की तरफ से जोरदार जवाब मिला तो माओवादियों को  पीछे हटना पड़ा.'

इस्तेमाल किये गए हथियार

आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक नक्सलियों ने जवानों को उड़ाने के लिए लैंडमाइन का इस्तेमाल किया. इसके अलावा, उन्होंने रॉकेट लांचर का उपयोग गोलाबारी करने के लिए किया था. स्टील टिफिन बॉक्सेज में आईईडी लगाया और सुरक्षा बलों पर दागने के लिए मोर्टारों और एके-47 का इस्तेमाल  किया.

एक चीज जिसने सुरक्षा बलों और मीडिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा वो था छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा हमले की जगह पर पाए गए विस्फोटक लगे (मिनी ग्रेनेड जैसा दिखने वाले) तीरों का गुच्छा.

हालांकि पुलिस इसे 'आईईडी एरो' या 'एरोड आईईडी' कहना पसंद करेगी. लेकिन ये अभी तक सिद्ध नहीं हुआ है कि ये तीर विस्फोटक उपकरणों (आईईडी) की तरह काम करते हैं या नहीं. छोटे ग्रेनेड के अंदर कोई विद्युत सर्किट है या नहीं.

सुंदर राज पी, छत्तीसगढ़ पुलिस महानिरीक्षक (बस्तर सीमा), ने फर्स्टपोस्ट को बताया, 'हम इन आईईडी तीरों की जांच करके जानकारी लेने की कोशिश कर रहे हैं. पहली नजर में तो ये कहा जा सकता है कि ये तीर निशाने से टकरा कर विस्फोट करते हैं. ऐसा लगता है जैसे वे एक दबाव तंत्र पर काम करते हैं. निशाने से टकराने के बाद छोटे ग्रेनेड की नोक पर लगी सुई जो कि स्विच की भूमिका में है, विस्फोट करती है.

विस्फोट के बाद ये तीर डेसिबल के ऊंचे स्तर वाला शोर करते हैं लेकिन इनसे नुकसान कम होता है. इनका मकसद सुरक्षा बलों का ध्यान भटकाना है, उनको उलझन में डालना है और उसके बाद उन पर एके-47 से उन पर हमला करना है. पहले भी एक-दो मौकों पर इस तरह के तीरों का इस्तेमाल किया गया था.'

हमले की जगह से मिले देशी रॉकेट शेल्स और मोर्टार भी आधुनिक किस्म के हैं. एक वरिष्ठ सीआरपीएफ अधिकारी ने फर्स्टपोस्ट को बताया, 'तीरों का प्रयोग साबित करता है कि माओवादियों के मिलिटरी कैडर के अलावा यहां के लोकल लोगों का इस्तेमाल भी हमारे जवानों पर हमले के लिए किया जाता था. बिना इस्तेमाल हुए रॉकेट शेल्स और मोर्टारों को देख कर समझ में आता है कि ये आधुनिक ढंग के बने हैं.

रॉकेट शेल्स नए ढंग के हैं. हम गहराई से अध्ययन करके बरामद हुए इन गोला-बारूद का आकलन करने की कोशिश कर रहे हैं.

सूत्रों ने दावा किया कि हमले के बाद माओवादियों ने सीआरपीएफ का एक अंडर बैरल ग्रेनेड लॉन्चर (यूबीजीएल) उड़ा लिया और राइफल्स के अलावा सुरक्षाबलों के गुप्त भण्डार से बहुत सा गोला-बारूद भी साथ ले गए. अब बस्तर में नक्सलियों के पास 10 यूबीजीएल हैं, जो बहुत खतरनाक हैं. एक यूबीजीएल से एक मिनट में पांच से सात ग्रेनेड छोड़े जा सकते जिनमें से हर ग्रेनेड लंबी दूरी की मार करता है जो भारी तबाही और कई मौतों की वजह बन सकता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

हमलों के मौसम

हमले तब  होते हैं जब नक्सली अपना सालाना टेक्टिकल काउंटर-ऑपरेशन कैम्पेन (टीसीओसी) शुरू करते हैं. टीसीओसी वो मिलिट्री का शब्द है जिसे नक्सली अपनी सबसे हिंसक कार्रवाई के समय इस्तेमाल करते हैं. और उनके ये हमले आमतौर पर फरवरी और जून के बीच गर्मियों में देखे जाते हैं. इस दौरान सुरक्षा बल सबसे ज्यादा सतर्क रहते हैं क्योंकि उन्हें माओवादियों की तरफ से इस तरह के  दुस्साहसी हमलों की पूरी उम्मीद होती है.

माओवादी हर साल अप्रैल से बारिश की शुरुआत तक सुरक्षा बलों पर हमला करने के लिए गुरिल्ला दस्ते भेजते हैं. बरसात या सर्दियों के मुकाबले गर्मियों में न केवल चलना आसान हो जाता है बल्कि गर्मी से झाड़ियां और लंबी घास मुरझा जाती हैं जिससे छिपकर हमला करने वाले दल को सेना की आवाजाही पर नजर रखना आसान हो जाता है.

छत्तीसगढ़ में लगभग सभी बड़े हमले गर्मियों में ही हुए हैं. याद कीजिये, मई 2013 में दरभा घाटी के हमले ने कांग्रेस नेतृत्व वाले राज्य के एक पूरे हिस्से को ही साफ कर दिया था.

सूत्रों ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) पर माओवादियों ने इकट्ठे हो कर सुकमा-बीजापुर सीमा पर रैली निकाली.

इस पर क्या कहना है विशेषज्ञों का?

काउंटर-टेररिज़्म के विशेषज्ञ अनिल काम्बोज कहते हैं, 'इस बार माओवादी कैडर द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियार बेहद आधुनिक हैं. जहां तक मेरा अनुमान है, विस्फोटक लगे तीर पटाखों (हथगोलों) की तरह काम करते हैं, जो कि टकराने पर फटते हैं. जब एलटीटीई  के लोगों ने बस्तर के जंगलों में शरण ली थी उस समय उन्होंने नक्सलियों को आईडी, लैंडमाइंस और आधुनिक उपकरणों का प्रशिक्षण दिया था. नक्सलियों ने उनको इसी शर्त पर शरण दी थी कि वे उनको प्रशिक्षण देंगे.'

कांबोज ने आगे कहा, 'हमले के ढंग और उसके तय किए गए समय को ध्यान में रखते हुए पक्का यकीन है कि आरओपी से कहीं न कहीं मानक ऑपरेटिंग प्रक्रियाओं के पालन में गलती हो गई है. जवानों का जरा भी ध्यान हटते ही माओइस्ट हमला कर देते हैं. वैसे भी ये टीसीओसी का वक्त है जब माओइस्ट बड़े हमले करते हैं.

मुझे तो ये बात समझ ही नहीं आ रही कि बस्तर में बार-बार होने वाली घटनाओं के बावजूद हमारे जासूस कोट्टाचेरु में आराम करते नक्सलियों को ट्रैक करने में नाकाम कैसे हो गए. काम्बोज देश के बड़े विद्रोही क्षेत्रों में सेवाएं देने के अलावा माओवाद के इस गढ़ की गहरी जानकारी रखते हैं.

सीआरपीएफ की तरह ही छत्तीसगढ़ पुलिस भी इस जांच में लगी है कि दो साल के अंतराल के बाद माओवादी अचानक कैसे सक्रिय हो गए और इस तरह के एक सुनियोजित हमले को अंजाम दे दिया.