साइकोलॉजिकल ऑपरेशंस यानी साई-ऑप्स को आप सच तो नहीं, लेकिन अविश्वसनीय सच जरूर कह सकते हैं, जहां आभासी दुनिया में एक खास तरह की सामग्री, प्रचार या प्रोपेगैंडे के जरिए लोगों की सोच और रवैये को तब्दील किया जाता है.
लेकिन जुनूनी माओवादियों से मुकाबला करने के लिए जमीन पर उतरना होगा. उन्हें मुंहतोड़ जवाब देना होगा. लड़ाई असली होगी. खूनखराबा होगा. लेकिन भारतीय सुरक्षा एजेंसी के ‘छाती ठोंकने वाले नेतृत्व ने असल दुनिया से ज्यादा काल्पनिक दुनिया में रहना सीख लिया है.
छत्तीसगढ़ के सुकमा में सुरक्षाबलों की लगातार नाकाम इसी कड़वे सच को दिखाती है. यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि सुकमा हाल के सालों में माओवादियों का सबसे मजबूत गढ़ बन कर उभरा है.
यूपीए शासन के दौरान इस इलाके में माओवादियों के साथ कई मुठभेड़ें हुईं और हर बार उन्होंने सुरक्षा बलों को नाको चने चबाए. यह लड़ाई बराबरी वाली दिखती ही नहीं है.
6 अप्रैल 2010 को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवान मारे गए. तब से ऐसे बहुत से मामले देखने को मिले हैं जब सुरक्षा बलों को ही नुकसान उठाना पड़ा है.
सब हवा हवाई है
सुकमा में हुई मौतों से फिर इस बात को बल मिलता है कि भारत की आतंरिक सुरक्षा नीति ‘सब चलता है’ के ढर्रे पर ही चल रही है. दूसरी तरफ उन्होंने ‘सीना ठोंकने’ की कला में महारथ हासिल कर ली है और बात जब आभासी दुनिया में प्रचार और प्रोपेगैंडे की आती हैं तो वे एक-दूसरे की पीठ ठोंकने में पीछे नहीं रहते.
जरा याद कीजिए जब मणिपुर के चंदेल जिले में भारतीय सेना के 16 जवान मारे गए थे तो सशस्त्र बलों ने नागा उग्रवादियों (खापलांग गुट) को सबक सिखाने के लिए सीमा पार कर म्यांमार में उनके खिलाफ कार्रवाई करने का दावा किया था. उसके बाद चंदेल में ही एक और हमला हुआ जिसमें असम राइफल के छह जवान मारे गए.
दुश्मन के खिलाफ सीधे सीधे कार्रवाई करने की बजाय असम राइफल ने साई-ऑप्स चलाया और व्हाट्सएप के जरिए सीमापार सर्जिकल स्ट्राइक का झूठा दावा किया.
इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भी इसमें घसीटा गया और कहा गया कि उन्हीं के आदेश पर यह कार्रवाई की गई है. इस पर गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय ने नाराजगी जताई.
लेकिन, यह इस तरह का अकेला मामला नहीं है. उड़ी हमले के तुरंत बाद सेना के ब्रिगेड मुख्यालय ने सीमा पार कर 10 कट्टर आतंकवादियों को मारने का दावा किया. इसके बाद हुई छानबीन में एक बार फिर यह दावा साई-ऑप्स का हिस्सा साबित हुआ. जमीनी सच्चाई से इसका कोई लेना देना नहीं था.
खतरे से बेपरवाह
पूर्वोत्तर और कश्मीर में जारी समस्या को तो विदेशी एजेंसियां हवा दे रही हैं. लेकिन वाम चरमपंथी तो देश के भीतर ही पैदा हुए हैं और देश के एक बड़े हिस्से में उन्होंने अपनी जड़ें जमाई हैं.
बिहार और उत्तर प्रदेश में वह फिलहाल निष्क्रिय दिख रहे हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से और बिहार के कुछ मध्य इलाकों में उनकी पकड़ छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से कम नहीं है.
केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के गृह जिले चंदौली में वाम चरमपंथियों ने अपना एक मजबूत ठिकाना कायम किया है. ये इलाके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से लगते हैं. इस इलाके में अकसर पुलिस प्रशासन की नहीं, बल्कि माओवादियों की चलती है.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिल्कुल सही कहा था कि वाम चरमपंथ देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन उसके बाद क्या हुआ. उनकी सरकार के गृहमंत्री पी चिदंबरम भी 'सीना ठोंकने वालों' में ही निकले. उन्होंने ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ का एलान किया. (हालांकि, बाद में उन्होंने ऐसी कोई टर्म इस्तेमाल करने से इनकार किया था.)
इस अभियान का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला क्योंकि इसमें समस्या से पूरी तरह निटपने की रणनीति की कमी थी. चिदंबरम की नादानियों को मोदी सरकार ने भी अपना लिया, बल्कि वह इस मामले में और कई कदम आगे निकल गई.
सुकमा के सबक
सुकमा में हुई मौतें कई सवाल उठाती हैं:
सुकमा में हुई मौतें कोई ऐसी चुनौती नहीं है जिसका मुकालबा हम आभासी दुनिया में प्रचार मुहिम चलाकर कर सकते हैं. पूरे तालमेल के साथ एक ऐसी संपूर्ण रणनीति तैयार करनी होगी जिसमें आतंरिक सुरक्षा के लिए सुरक्षा बलों की ट्रेनिंग, उत्साहवर्धन और तैनाती से जुड़े कामों को सलीके से अंजाम दिया जाए.
इस बात को सुर्खियां बटोरने के शौकीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से बेहतर भला कौन समझ सकता है. अभी तो ऐसा दिखाई देता है कि जैसे देश की आतंरिक सुरक्षा को गृह मंत्रालय और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अलग अलग दिशाओं में खीच रहे हैं. इससे हालात खराब ही होंगे.
ऐसे में, अगर सुरक्षा बलों का नेतृत्व अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए आभासी दुनिया में प्रचार मुहिम का इस्तेमाल करने लगे तो फिर रोग गंभीर होता चला जाए जिसकी दवा ढूंढनी मुश्किल होगी.