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कीटनाशकों से जा रही हैं हजारों जानें, फिर क्यों फैसले लेने से हिचक रही है सरकार?

केंद्र सरकार जानलेवा केमिकल्स पर रोक लगाने के फैसला लेने के बजाय लगातार उससे अपने पांव खींच रही है

Karthikeyan Hemalatha

भारत अगर चाहे तो श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों से भी बहुत कुछ सीख सकता है, जैसे कि कीटनाशकों के कारण होने वाली आत्महत्याओं को किस तरह से रोका जाए. ये बातें ब्रिटेन की एक रिसर्च संस्था लगातार भारत की केंद्र सरकार को कह रही है, वो सरकार जो जानलेवा केमिकल्स पर रोक लगाने के फैसला लेने के बजाय लगातार उससे अपने पांव खींच रही है.

साल 2014 में भारत में कम से कम 14,341 लोगों ने जहरीली कीटनाशक पीकर अपनी जान दे दी थी. इसके ठीक अगले साल इस आंकड़े में 70% की बढ़त आई और ये संख्या बढ़कर 23,930 तक पहुंच गया. साल 2014 में जहां कीटनाशक पदार्थ आत्महत्या करने वालों की संख्या जहां 10.9% थी, वही प्रतिशत साल 2015 में बढ़कर 18% तक पहुंच गया था. ये आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो से लिया गया है. हालांकि, आधिकारिक आंकड़ों में सच्चाई ढूंढ पाना बहुत ही मुश्किल है. एक शोध के मुताबिक भारत में आत्महत्या के कारण होने वाली मौतों के दर में लगभग 50% मौतें कीटनाशकों के सेवन से होने की बात कही गई है.


कीटनाशकों से हर साल होती हैं हजारों मौतें

इस शोधपत्र में लिखे निष्कर्ष के अनुसार, ‘पेस्टिसाइड्स पॉइजनिंग यानी कीटनाशक विषाक्तता के ज्यादातर मामलों में ये पाया गया है कि कीटनाशक में मौजूद जिस पदार्थ से ये मौतें हुई हैं वो मुख्य रूप से ऑर्गेनोफॉस्फेट्स है, जो खेती के कामों में इस्तेमाल किया जाता है. इस शोध पत्र में ये साफ तौर पर कहा गया या साबित हुआ कि पुरुष हो या स्त्री, दोनों की आत्महत्या के तरीकों में ये समानता पाया गया कि- आत्महत्या को अंजाम देने में कीटनाशकों का ख़ासतौर से इस्तेमाल किया गया है, जिस कारण हर साल देश भर में 15 साल और उससे ज्यादा की उम्र में मरने वाले लोगों की संख्या 92 हज़ार तक पहुंच जाती है.’ ये भारत में हर दिन होने वाली 250 आत्महत्याओं के आंकड़ों से भी ज्यादा है.

पूरी दुनिया में हर 40वें सेकेंड में एक व्यक्ति की मौत कीटनाशक पीकर होती है, ये जानकारी सेंटर फॉर पेस्टिसाइड सुसाइड प्रिवेंशन (सीपीएसपी), नाम की एक लोकउपकारी स्वयंसेवी संस्था के द्वारा फंड किए गए रिसर्च और पॉलिसी इनिशिएटिव नाम के कार्यक्रम में बताया गया है. ये संस्था ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के अंतर्गत आती है. इन आत्महत्याओं को होने से बचाने का पेससबसे अच्छा तरीका ये है कि खेती बाड़ी में कीटनाशकों के इस्तेमाल को ही पूरी तरह से बंद कर दिया जाए क्योंकि ये काफी नुकसानदायक होते हैं, ये सीपीएसपी की केंद्र को 30 मई को लिखी गई चिट्ठी में दी गई सलाह है.

पत्र में लिखा है, ‘जो भी व्यक्ति कीटनाशक पीकर मौत को गले लगाता है, वो मरना नहीं चाहता है, उसके लिए आत्महत्या महज़ सामाजिक-मानसिक दबाव या तनाव को दिया गया सिर्फ एक जवाब या प्रतिक्रिया भर होती है.’ पेस्टीसाइड या कीटनाशक पीकर की गई आत्महत्याओं में ज़्यादातर आवेग की चपेट में आकर उठाया गया कदम होता है, ये उस व्यक्ति के मन में आत्महत्या करने के ख्य़ाल आने के दस मिनट के बाद ही अंजाम दे दिया जाता है. अगर किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए या खुद को तकलीफ़ पहुंचाने के किसी बेहद खतरनाक या जानलेवा तरीके के इस्तेमाल से रोक दिया जाता है या रोकने की कोशिश होती है तब वो ऐसे आसान तरीकों का इस्तेमाल करता है जो कम घातक होता है और जिसमें बचने की संभावना ज्यादा होती है, या फिर जिसके इस्तेमाल के बाद आत्महत्या का ख़्याल मन से निकल जाता है,’ ये इस शोध के नतीजों या यूं कहें कि निष्कर्ष में कहा गया है.

ये रिपोर्ट डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर एंड फैमिली वेलफेयर के एग्रीकल्चर कमिश्नर डॉ एसके मल्होत्रा को दिया गया है, जो सरकार के फैमिली वेलफेयर मिनिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर एंड फैमिली वेलफेयर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के तहत आता है.

कमिटियों के सुझावों पर नहीं हुआ है अमल

डॉ एसके मल्होत्रा एक ऐसी कमिटी की अगुवाई कर रहे हैं जिसका गठन अक्तूबर 2017 में किया गया था और जिसकी अवधि 2 महीने की थी. इस कमिटी का काम उन सलाह और मशविरों और आपत्तियों का आकलन करना था, जिसे एक गैज़ेट नोटिफिकेशन के ज़रिए प्रेषित किया गया था. इन नोटिफिकेशन में कुछ ख़ास और नियत कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात कही गई थी. ये नोटिफिकेशन दिसंबर 2016 में जारी किया गया था. ये गैज़ेट नोटिफिकेशन भी अनुपम वर्मा कमिटी की सिफ़ारिशों के बाद लाया गया था, जिसका बाद में उस रजिस्ट्रेशन कमिटी के द्वारा भी निरीक्षण किया गया जिसका नेतृत्व इस समय डॉ मल्होत्रा कर रहे हैं.

दिसंबर 2016 के नोटिफिकेशन के जवाब में कई तरह की टिप्पणी और आलोचना आई, इस नोटिफिकेशन में इन कुछेक कीटनाशकों को पूरी तरह से बंद करने की बात कही गई थी. सरकार ने तो मार्च 2017 में डॉ जे एस संधु के नेतृत्व में, जो उस समय इंडियन काउंसिल ऑफ क्रॉप साइंस (आईसीएआर) के उप-डायरेक्टर जनरल थे, एक कमिटी का गठन भी कर दिया था. इस कमिटी से कहा गया था कि वे एक महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट जमा कराए. लेकिन, संधु रिपोर्ट जमा नहीं कर पाए और जुलाई 2017 में रिटायर हो गए. उनके रिटायर होने के तीन महीने बाद अक्तूबर 2017 में एसके मल्होत्रा ने ये फाइल अपने हाथ में ले ली.

अनुपम वर्मा कमिटी का गठन साल 213 में हुआ था. इसका काम देशभर में इस्तेमाल हो रहे उन 66 कीटनाशकों के प्रभाव का आकलन करना था जिसे अन्य जगहों पर बैन कर दिया गया था. ये तय करने के लिए कि क्या हमें भी इसके इस्तेमाल पर अपने देश में भी पूरी तरह रोक लगा देना चाहिए. साल 2015 में वर्मा कमिटी ने सुझाव दिया कि इनमें से 12 ऐसे बहुत ही घातक कीटनाशकों के इस्तेमाल पर 1 जनवरी 2018 से पूरी तरह से रोक लगा दिया जाना चाहिए और 6 अन्य को 2021 तक धीरे-धीरे हटा लिया जाना चाहिए.

मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी कर साफ़तौर पर ताक़ीद दी कि जून 19, 2018 तक हर हाल में ये जांच पूरी हो जानी चाहिए और साथ ही साथ इसी तारीख़ तक मिनिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर्स कमिटी को जिसे (गलत तरीके से डॉ जेस संधु कमिटी के नाम से भी जाना जाता है, जबकि वे तब तक रिटायर हो चुके थे) इस पर एक फैसला भी ले लेना है. कोर्ट ने आगे ये भी आदेश दिया कि फैसला आने के बाद उसे अगले 15 दिनों के भीतर लागू भी कर लिया जाना चाहिए.

एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) की संयोजक कविता कुरूगंती कहती हैं कि, 'ऐसे मामलों पर कमिटी पर कमिटी का गठन करना सरकार के द्वारा देरी करने के लिए आज़माई गई एक रणनीति है. मुझे ये समझ में नहीं आता है कि आख़िर सरकार अपने द्वारा ही तीन साल पहले यानी साल 2015 में लिए गए फैसले को लागू करने में इतनी देरी क्यों कर रही है, वो इस मामले पर घिसट-घिसट कर क्यों चल रही है.'

किसान आंदोलनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में दिया था आवेदन

वर्ष 2017 में कीटनाशक पीने के कारण करीब देशभर में 40 किसानों की मौत हो चुकी थी जिसके बाद कुरूगंती और अन्य किसान आंदोलनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक आवेदन देकर अदालत का ध्यान इस ओर खींचने की कोशिश की. उन्होंने अपने आवेदन में सुप्रीम कोर्ट को ये बताया कि कैसे इन घातक 99 कीटनाशकों पर पूरी तरह से रोक लगाने में बेवजह देरी की जा रही है, जिसे एक से ज्यादा देशों में पूरी तरह से बैन किया जा चुका है. इसके अलावा 104 कीटनाशक ऐसे भी हैं जिनपर कम से कम एक अन्य देश में पाबंदी तो लगाई ही जा चुकी है.

'ऐसा लगता है कि सरकार इस समस्या की भयावहता को देख-समझ ही नहीं पा रही है. देश में हर दिन सैकड़ों किसान अपनी जान दे रहे हैं, ऐसे में सरकार इसे लेकर इतनी लापरवाह नहीं हो सकती है. ऐसा लगता है कि इसकी वजह सरकार का कीटनाशक बनाने वाले व्यापारियों के दबाव में आ जाना है.' ये कहना है कुरूगंती का.

सेंटर फॉर पेस्टीसाइड सुसाइड प्रिवेंशन के अनुसार, श्रीलंका, बांग्लादेश और दक्षिणी कोरिया जैसे देशों में जहां आमतौर पर लघु किसानी की जाती है वहां कानून लागू कर के इन घातक कीटनाश्कों के इस्तेमाल पर सफलतापूर्वक रोक लगाई जा चुकी है. ऐसा करने के बाद वहां आत्महत्याओं के मामलों में भी काफी कमी आई है. ऐसे कई कीटनाशकों पर रोक लगाने के बाद श्रीलंका में पिछले 20 सालों में, किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के मामलों में 70% तक की कमी आयी है. उनके विशेषज्ञों द्वारा जमा किए गए रिपोर्ट में कहा गया है कि 'गांव-देहात में होने वाली लघु किसानी में 1960 के बाद, कुछ बेहद ही खतरनाक और नुकसानदायक कीटनाशकों का इस्तेमाल शुरू किया गया जिसे (एचएचपी) भी कहा जाता था, जिसके बाद ये पाया कि वहां आत्महत्या के दर में वृद्धि पायी गई. पहले जहां प्रति 100,000 की आबादी में 5 लोगों द्वारा आत्महत्या हो रही थी और जिनकी उम्र में भी 8 साल का फर्क देखा गया, वो संख्या साल 1995 में बढ़कर 100,000 की आबादी में 57 पहुंच गई थी.’

पिछले दशकों में कई कीटनाशकों पर लगा है बैन

आत्महत्या के बढ़ते मामलों का संज्ञान लेते हुए, इस उपमहाद्वीपिय देश के पेस्टिसाइड रजिस्ट्राट ने 1984 में पैराथियॉन और मेथिपैराथियॉन के इस्तेमाल पर रोक लगा दी. इसके 11 सालों के बाद, 1995 में सभी डब्लूएचओ क्लास वन की श्रेणी में आने वाले घातक कीटनाशकों पर भी रोक लगा दी गई. रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा करने के बाद, 'आत्महत्याओं के मामलों में अचानक बहुत तेज़ी से गिरावट दर्ज की जाने लगी. उसके बाद 1998 में डब्लूएचओ टॉक्सिटी क्लास-2 पेस्टिसाइड एंडोसल्फैन और 2008-2011 के बीच डाइमेथोआट, फेंथियॉन और पैराक्वॉट पर लगे बैन ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या करने वाले मामलों में हुई मौतों की संख्या में बहुत कमी लाई है.'

पिछले साल के अंत में उस समय कीटनाशक के कारण होने वाली मौत का मुद्दा तब बहुत गरमाया और राष्ट्रीय स्तर पर इसपर बहस छिड़ गई जब दुर्घटनावश कीटनाशक सूंघने के कारण करीब 40 लोगों की मौत हो गई थी. इस पर लंबी-लंबी बहसें हुईं कि आखिर ऐसी घटना साल 2017 में ही क्यों हुई है- इसके अलावा इसी समय पर अच्छी बारिश होने के कारण लंबी लतों और पौधों वाले अनाज जैसे मकई और रुई की फसल पर ऊपर की दिशा में कीटनाशक का छिड़काव किया गया. हालांकि, जिन 40 लोगों की मौत हुई उसमें से 12 की मृत्यु मोनोक्रोटोफॉस सूंघने के कारण हुआ.

साल 2013 में, इसी कीटनाशक के कारण बिहार में 23 बच्चों की तब दर्दनाक मौत हो गई थी जब कीटनाशक रखने के लिए इस्तेमाल किए गए एक बड़े बर्तन या देगची का इस्तेमाल खाना पकाने के लिए कर लिया गया था. ये बहुत ही घातक कीटनाशक है, जिसके इस्तेमाल पर संयुक्त राष्ट्र ने साल 2009 में रोक लगाने को कहा था. लेकिन ये अभी भी पूरे देश में न सिर्फ धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है बल्कि बड़ी आसानी से उपलब्ध है. जबकि, दुनिया के 46 देशों में इसे काफी पहले बैन कर दिया गया है. हालांकि, अनुपम वर्मा को लगता है कि ज़िम्मेदारी बड़ी किसानों पर है न कि सरकार पर. वे कहते हैं, 'मैंने अपनी आंखों से किसानों को बड़ी ही लापरवाह तरीके से इसका इस्तेमाल करते हुए देखा है. वे अपने ट्रैक्टर के पीछे बैठ जाते हैं और बगैर किसी हिफ़ाज़त या बचाव के इन जानलेवा कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं.'

लेकिन, जिस बड़े पैमाने पर यहां मौतें हो रहीं हैं, वैसे में ये तय है कि इसके लिए सिर्फ़ कीटनाशकों का छिड़काव ही ज़िम्मेदार नहीं हो सकता है, कुछ न कुछ और ज़रूर हो रहा होगा जिसे जानने समझने या पता लगाने की ज़रूरत है. सिर्फ़, छिड़काव के कारण लोगों की मौत नहीं हो सकती है क्योंकि बाज़ार में एंटीडोट यानी कि ज़हरनाशक दवाइयां भी मौजूद हैं. उन्होंने ये बातें फ़र्स्टपोस्ट को दिए गए अपने एक पहले के साक्षात्कार में कहा था. लेकिन, इसके बावजूद मोनोक्रोटोफॉस उन 12 कीटनाशकों की लिस्ट में शामिल है जिस पर इसी साल के जनवरी महीने में पूरी तरह से रोक लगा दी जानी चाहिए थी. साल के छह महीने गुज़रने के बाद भी वो बाज़ार में आसानी से उपलब्ध हैं.

फ़र्स्टपोस्ट ने बहुत कोशिश की लेकिन डॉ मल्होत्रा से संपर्क साधा नहीं जा सका, न ही इस मुद्दे पर उनकी कोई प्रतिक्रिया ही मिल पाई है.