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नवरात्र स्पेशल: सुहासिनी ने सब्जी बेचकर बनाया गरीबों के लिए अस्पताल

ठेले पर सब्जी बेचने वाली ने बनाया गरीबों के मुफ्त इलाज के लिए अस्पताल

Kinshuk Praval

( नवरात्र के मौके पर नवरात्र की पूजा विधि बताने या देवी की प्रार्थना के बजाय आपको मिला रहे हैं कुछ जागृत देवियों से, इन महिलाओं ने ऐसा कुछ किया है कि जो जीवन में शक्ति की मिसाल बनी हैं )

सब्जी बेचने वाली एक महिला क्या किसी अस्पताल की मालकिन हो सकती है? ये सवाल नामुमकिन की तरफ इशारा करता है, लेकिन पश्चिम बंगाल की सुहासिनी मिस्त्री ने ऐसे नामुमकिन को सच कर दिखाया है.


आज वो ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल की मालकिन हैं और खास बात ये है कि यहां गरीबों का पांच रुपए में इलाज होता है. वाकई कर्म ही इंसान को महान बनाता है और सुहासिनी मिस्त्री इसकी मिसाल हैं.

सुहासिनी का जन्म कोलकाता के छोटे से गांव कुलवा में एक किसान परिवार में हुआ था. सुहासिनी के 14 भाई बहन थे, लेकिन गरीबी के चलते परिवार के लिए दो वक्त की रोटी पर भी गहरा संकट था. ऊपर से बीमारी ने रही सही कमर तोड़ दी. सुहासिनी का परिवार बीमारी की चपेट में आ कर इलाज न करा पाने से आधा रह गया.

12 साल की छोटी सी उम्र में सुहासिनी की शादी कर दी गई. 20 साल की उम्र में सुहासिनी चार बच्चों की मां बन चुकी थी, लेकिन उसके 3 साल बाद सुहासिनी की जिंदगी में बड़ा तूफान आया.

पाई-पाई जोड़कर अस्पताल बनवाया

सुहासिनी के पति गंभीर रूप से बीमार हो गए. गरीबी की वजह से सुहासिनी अपने पति का ठीक से इलाज नहीं करा सकीं और पति का निधन हो गया. पति की मौत ने सुहासिनी को भीतर तक तोड़ दिया. एक तरफ चार बच्चों की जिम्मेदारी तो दूसरी तरफ अकेलेपन की गुर्बत के दौर की जिंदगी.

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सुहासिनी किसी तरह सब्जी बेचकर घर चलाती थीं. एक दिन उन्होंने तय किया कि वो पैसा जोड़ कर जमीन खरीदेंगी और उस पर एक अस्पताल बनवाएंगी. उन्होंने सोचा कि उनकी ही तरह कई गरीब परिवार होते हैं जो पैसे की तंगी के चलते इलाज नहीं करा पाते हैं. ऐसे लोगों के लिए उनके सपनों का अस्पताल में मुफ्त इलाज करेगा.

बस यही उनकी कामना को वक्त ने पूरा करने में साथ दिया. कोलकाता में निर्माणाधीन मकानों में वो दिन में मजदूरी करतीं तो शाम के बाद ठेले पर सब्जी बेचा करती थीं.

चैरिटेबल अस्पताल खोलने का सपना देखने वाली सुहासिनी ने जी तोड़ मेहनत की. 20 साल तक बिना हारे थके काम किया और पाई-पाई जोड़ी. फिर साल 1993 में पति के गांव आईं.

गांव में उन्होंने जमींदार से एक एकड़ जमीन खरीदी. साल 1996 में पश्चिम बंगाल में हंसपुकुर गांव में गांववालों की मदद से जमीन पर एक कच्चा अस्पताल बनाया. अस्पताल का नाम रखा – ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल.

वाकई ऐसा जज्बा और हौसला किसी को भी सुहासिनी मिस्त्री को सलाम करने पर मजबूर कर देगा. सुहासिनी मिस्त्री ने अपनी खून पसीने की मेहनत की कमाई को एक निस्वार्थ सेवा में लगा दिया.

सुहासिनी को अपने अस्पताल में डॉक्टरों की जरुरत पड़ी. जमीन पर 20 बाई 20 का कच्चा अस्पताल तो बन गया था लेकिन मरीजों के इलाज के लिए डॉक्टरों की दरकार थी.

गरीबों के लिए अस्पताल किसी मंदिर से कम नहीं

डॉक्टर रघुपति चटर्जी ने सुहासिनी के चैरिटेबल हॉस्पिटल के लिए हामी भर दी. उनकी वजह से कई और डॉक्टर भी मरीजों का इलाज करने सुहासिनी के अस्पताल आने लगे. लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत बारिश के मौसम में आई.

तेजू तूफान और बारिश के चलते कच्चे मकान में बने अस्पताल में मरीजों का इलाज करना मुश्किल हो चला था. इसके बाद सुहासिनी ने पक्के अस्पताल के लिए सरकारी मदद की कोशिश की. सुहासिनी की मेहनत रंग लगाई और उन्हें 1999 में पक्का अस्पताल बनाने की सरकारी मदद मिल गई.

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आज सुहासिनी मिस्त्री के अस्पताल को 18 साल हो गए हैं. यहां गरीबों का पांच रुपए से पांच हजार रुपए तक में पूरा इलाज किया जाता है. इस दो मंजिला अस्पताल में कुल 252 बिस्तर हैं.  ह्यूमिनिटी हॉस्पिटल में वक्त के साथ वो सारी सुविधाएं भी जुड़ती जा रही हैं जो एक अच्छे हॉस्पिटल में मौजूद होती हैं.

सुहासिनी मिस्त्री ने अपने बेटे अजय को डॉक्टर बनाया है. 72 साल की उम्र की सुहासिनी मिस्त्री के अतीत के कठिन दौर को ये अस्पताल शांति देता है.

सुहासिनी मिस्त्री किसी परी कथा की मानिंद सुनाई पड़ती हैं जिसकी कहानी में समर्पण, त्याग, संघर्ष, अथक परिश्रम, महत्वाकांक्षा और दूरदर्शिता है. आज सुहासिनी के अस्पताल में हजारों मरीजों का मुफ्त में इलाज होता है. देश भर की अलग-अलग जगहों से लोग यहां इलाज कराने के लिए आते हैं.

सुहासिनी के अस्पताल का मूलमंत्र है कि हर किसी को इलाज का अधिकार हो भले ही उसके पास पैसे न हों.