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मुंबई में बाढ़: मायानगरी डूब रही है लेकिन बाढ़ तो बिहार में भी आई है!

क्या बाढ़ में उत्तरी मैदानों के लोगों की तकलीफ मुंबईकरों की मुसीबत से कम है?

Prabhakar Thakur

मंगलवार की भारी बारिश ने मायानगरी मुंबई को घुटनों पर ला दिया. चारों तरफ अफरातफरी का आलम था और सामान्य जनजीवन पूरी तरह अस्तव्यस्त हो चुका था.

पूरे शहर की रेल लाइनें बंद हो गईं और लोकल ट्रेनों को रोकन पड़ गया. सड़कों पर लंबा जाम लग गया और कई फ्लाइट्स रद्द कर दिए गए या उन्हें डाइवर्ट करना पड़ा. सैकड़ों लोग ट्रेनों से लेकर सड़कों तक जहां तहां-फंस गए. बहुत तो ऐसे थे जो दिन में फंसे और उनको 12 घंटे बाद रात-रात तक आपदा प्रबंधन वालों ने बाहर निकाला.


पर क्या आपको ध्यान है कि भारी बारिश और बाढ़ के हालात सिर्फ मुंबई में ही नहीं, बिहार उत्तर प्रदेश और असम में भी हैं, और कहीं ज्यादा भयावह हैं. बिहार के 19 जिलों में में बाढ़ से 1 करोड़ से भी ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं. सिर्फ बिहार में 500 लोगों की मौत हो गई. पड़ोस में उत्तर प्रदेश में में भी 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.

फिर ऐसा क्यों है कि मुंबई की बाढ़ राष्ट्रीय मुद्दा बन गया लेकिन बिहार की बाढ़ को हर साल का मुद्दा मान लिया गया और इसे 'इतने मरे' और 'इतने प्रभावित' से ज्यादा तवज्जो नहीं मिल पाई. आंकड़े बताते हैं कि बिहार और यूपी की बाढ़ मुंबई में भारी बारिश से हुई तबाही से कहीं ज्यादा वीभत्स और भयावह थी.

बाढ़ से बिहार में सैकड़ों ने गंवाई जान, फसल तबाह

अगर बाढ़ के कारण हुई घटनाओं में जान गंवाने वाले लोगों की तादाद को देखें तो पता चलता है कि दरअसल मैदानी इलाकों में स्थिकी कितनी खराब है.

बिहार में लोगों को खाने के लाले पड़े हुए हैं. डेढ़ लाख से भी ज्यादा लोग राहत शिविरों में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. पर वो भी राहत शिविरों में रह कर अपना गुजारा नहीं कर सकते.

जब इस तरह के हालात होते हैं तो सिर्फ मौतें नहीं होती, घर भी उजड़ जाते हैं. अनेक ग्रामीणों के आय का जरिया उनके मवेशी होते हैं.  लोगों की जो जानें गईं उसके अलावा किसानों के मवेशी मारे गए और खेत के खेत डूब गए हैं और फसलें तबाह हो चुकी हैं. इन सब से हुए नुकसान का आंकड़ा आना अभी बाकी है.

इतने बड़े नुकसान के बाद भी किसी ने इसके लिए नीतीश कुमार या योगी आदित्यनाथ से सवाल नहीं किया या उनका इस्तीफा नहीं मांगा. दूसरी ओर एक दिन की बारिश के बाद ही बीएमसी चौतरफा निशाना बनने लगी.

ऐसे में यह साफ है कि बिहार में बाढ़ ने जिस तरह कहर बरपाया है उसके मुताबिक उसपर किसी का ध्यान नहीं गया. जब आर्थिक राजधानी मुंबई में हाई टाइड की खबरें आईं तो सारा प्रशासन चौकन्ना हो कर एक्शन में जुट गया. मीडिया पहले से ही इंतजाम कर बैठा था कि बारिश के दौरान किस तरह भारी कवरेज भी करनी है. हालांकि यह ओर बात है कि देश का सबसे अमीर नगर निगम बीएमसी मुंबई को जलमग्न होने से नहीं रोक पाया.

तकलीफ की कीमत ना लगे पैसे से

यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या सिर्फ वही बाढ़ मुद्दा बनता है जो बड़े शहरों में आता है. क्या छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में में 500 लोगों की मौत मामूली मुद्दा है. और क्या ऐसा सिर्फ इसलिए है कि बड़े शहरों में पैसे वाले लोग रहते हैं और गांवों में गरीब?

कहीं ऐसा तो नहीं कि मान लिया जा चुका है कि उत्तरी मैदानों में तो ऐसा हर साल ही होता है. नेता और सरकारें बस मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं. गरीबों के लिए राहत शिविर में प्लास्टिक की छत, चूड़ा और चावल ही काफी है? इस बात में किसी को संदेह नहीं हैं कि अगले मानसून में फिर यही मंजर दोहराया जाएगा और किसी को फर्क नहीं.

इन सबके बीच पिसेगा तो बस आम आदमी. पर उस आदमी के लिए कम से कम इतना तो किया ही जाना चाहिए कि उनके जान की कीमत उनकी संपत्ति और हैसियत के मुताबिक ना लगाई जाए.