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SBI प्राइवेट बैंकों से मुकाबला करे लेकिन हाथ बांधकर क्यों?

बैंकिंग क्षेत्र की बेहतरी के लिए जरूरी है कि निजी और सरकारी बैंकों को बराबरी के मौके मिलें

Dinesh Unnikrishnan

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक कदम पर इस वक्त जोरदार हंगामा मच रहा है. एसबीआई ने खातों में जमा न्यूनतम रकम एक हजार से बढ़ाकर पांच हजार कर दी है. साथ ही, खातों में न्यूनतम रकम न होने पर जुर्माने को भी बढ़ा दिया है. पांच हजार रुपए का मिनिमम एकाउंट बैलेंस, 6 मेट्रो यानी बड़े शहरों में रखना अनिवार्य होगा.

ग्रामीण इलाकों, कस्बों और छोटे शहरों के लिए खातों में न्यूनतम रकम एक हजार, दो हजार और तीन हजार रुपए कर दी गई है. अगर कोई खातेदार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अपने खातों में इतना पैसा नहीं रखता, तो, बैंक उस पर 20 से लेकर 100 रुपए तक का जुर्माना लगाएगा.


स्टेट बैंक के ये नए नियम एक अप्रैल से लागू होंगे. स्टेट बैंक देश का सबसे बड़ा बैंक है. देश के सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों का प्रतीक है. ऐसे में बैंक के इस कदम पर हल्ला मचना वाजिब भी है.

तमाम कदम बेकार साबित होंगे

जो लोग इस फैसले का विरोध कर रहे हैं उनका दावा है कि इससे ग्राहक, बैंक में अपना पैसा रखने से बचेंगे. बैंकों में पैसा नहीं आएगा तो काले धन को सफेद करने और अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के मोदी सरकार के तमाम कदम बेकार साबित होंगे. इसीलिए मोदी सरकार पर ये दबाव है कि वो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर करे. सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ा भी दिया है.

इस बात की पूरी संभावना है कि एसबीआई आखिरकार सरकार के आगे झुकेगा. क्योंकि कोई भी सरकारी बैंक, वित्त मंत्रालय की अनदेखी नहीं कर सकता.

ज्यादातर सरकारी बैंक, पूंजी के लिए सरकार पर निर्भर हैं. ऐसे में वो सरकार की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकते. लेकिन हम स्टेट बैंक को विलेन बनाएं, उससे पहले हमें इस फैसले की ईमानदारी से समीक्षा करनी चाहिए.

हमें ये भी देखना चाहिए कि कारोबार में एसबीआई से मुकाबला करने वाले दूसरे बैंक क्या कर रहे हैं. जब हम ऐसा करते हैं, तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि न्यूतनम बैलेंस की रकम बढ़ाने और जुर्माना बढ़ाने का एसबीआई का फैसला गलत नहीं है.

हमें ये लगता है कि सरकार को स्टेट बैंक पर फैसला वापस लेने का दबाव बनाने के बजाय, उसे इस पर आगे बढ़ने देना चाहिए. या फिर सरकार को बाकी बैंकों पर ही एक जैसे नियम रखने का दबाव बनाना चाहिए. ताकि बाजार में मुकाबले की होड़ बराबरी की हो.

इन मुद्दों पर गौर करें...

पहली बात तो ये कि खातों में न्यूनतम रकम रखने और न रखने पर जुर्माने का फैसला बुनियादी बचत खातों पर लागू नहीं होता. यानी प्रधानमंत्री जनधन योजना के खातों पर ये फैसला लागू नहीं होगा. तो स्टेट बैंक के इस फैसले से गरीबों पर असर पड़ने का दावा गलत है. या फिर उन लोगों पर भी असर नहीं होगा, जो अभी-अभी बैंकिंग सिस्टम से जुड़े हैं. इसलिए ये तर्क कि बहुत से लोग बैंक में पैसा रखने से बचेंगे, बिल्कुल ही गलत है. बाकी ग्राहकों के लिए भी जुर्माने की बढ़ी रकम भी, बाकी बैंकों के मुकाबले सबसे कम है.

दूसरी बात ये कि स्टेट बैंक को इस बात का पूरा अधिकार है कि दूसरे बैंकों के मुकाबले उसे कारोबार में बराबरी का मौका मिले. खास तौर से निजी क्षेत्र के और विदेशी बैंकों के मुकाबले. लंबे वक्त से सरकारी बैंक, सरकारी संस्थाओं की तरह काम करते रहे हैं. इनसे स्वयंसेवी संस्थाओं जैसा काम लिया जाता रहा है.

सब पर एक ही नियम लागू हो

सरकारी बैंकों के पेशेवर तरीके से काम करने की राह में अक्सर रोड़े डाले जाते हैं. वहीं निजी क्षेत्र के बैंक पूरे प्रोफेशनल तरीके से काम करने का मौका पाते हैं. बैंकिंग क्षेत्र की बेहतरी के लिए जरूरी है कि निजी और सरकारी बैंकों को बराबरी के मौके मिलें. सब पर एक ही नियम लागू हों.

स्टेट बैंक के मुकाबले निजी क्षेत्र की आईसीआईसीआई बैंक और एचडीएफसी बैंक में मिनिमम बैलेंस और पेनाल्टी काफी ज्यादा है. आईसीआईसीआई बैंक की वेबसाइट पर जो जानकारी है उसके मुताबिक शहरी शाखाओं में खातों में कम से कम दस हजार रुपए रखना अनिवार्य है. वहीं छोटे शहरों में ये रकम पांच हजार और ग्रामीण इलाकों के खातों में दो हजार है. अगर कोई ग्राहक ऐसा नहीं करता, तो, बैंक उस पर साढ़े सात सौ रुपए सालाना जुर्माना लगाता है.

इसी तरह एचडीएफसी बैंक के मेट्रो सिटी के खातों में न्यूनतम दस हजार, छोटे शहरों के खातों में पांच हजार और ग्रामीण इलाकों में ढाई हजार रखने जरूरी हैं. साथ ही इन बैंकों में न्यूनतम दस हजार रुपए का फिक्स डिपॉजिट ही कराया जा सकता है. मिनिमम बैलेंस न रखने पर जुर्माने की रकम डेढ़ सौ से छह सौ रुपए तक हो सकती है.

अब विदेशी बैंकों के नियमों पर भी नजर डाल लेते हैं...

एचएसबीसी बैंक की वेबसाइट के मुताबिक न्यूनतम तिमाही रकम डेढ़ लाख रुपए होनी चाहिए. ऐसा न होने पर 0.7 फीसद की दर से जुर्माना वसूला जाएगा. सिटी बैंक का नियम कहता है कि जो सैलरी अकाउंट नहीं हैं, उनमें कम से कम एक लाख रुपए होने चाहिए.

किसी भी बैंक की तरह स्टेट बैंक को भी खातों का हिसाब रखने में काफी खर्च उठाना पड़ता है. ये रकम उसे ग्राहकों से वसूलने का पूरा हक है. वो अपनी जरूरत और खर्च के हिसाब से ये रकम वसूलने के नियम बना सकता है.

सरकार की जनधन योजना के लिए स्टेट बैंक ने सबसे ज्यादा खाते खोले हैं. इन खातों पर बैंक बुनियादी खर्च की रकम भी नहीं वसूल सकता है. क्योंकि जनधन के खातेदार नए-नए बैंकिंग सिस्टम से जुड़े हैं. वो ज्यादातर गरीब तबके के लोग हैं. अगर उन्हें जुर्माना देना पड़ा तो वो बैंकिंग सिस्टम से फिर से दूरी बना लेंगे, ऐसा डर जताया जाता रहा है.

लेकिन बैंकों को भी तो अपना खर्च निकालने की जरूरत होती है. सवाल ये है कि क्या न्यूनतम अकाउंट बैलेंस और जुर्माना, खर्च से ज्यादा है? बहस इस बात पर हो तो बेहतर है. फिलहाल तो दूसरे बैंकों के मुकाबले स्टेट बैंक का मिनिमम बैलेंस और जुर्माना दोनों ही कम है.

डिजिटाइजेशन के फैसले के हक में

चौथी बात ये है कि हाल ही में बैंकों ने कुछ लेन-देन और तय रकम के बाद ट्रांजेक्शन चार्ज वसूलने का फैसला किया है. ये मोदी सरकार के डिजिटाइजेशन के फैसले के हक में ही है. इससे लोग कैशलेस लेन-देन करने के लिए प्रोत्साहित होंगे. लेकिन यहां बैंकों का होम ब्रांच और नॉन होम ब्रांच में फर्क करना गलत और हास्यास्पद है.

इस लेख का मकसद स्टेट बैंक के नियमों को सही साबित करना नहीं है. बल्कि हम ये समझाना चाहते हैं कि स्टेट बैंक को भी अपने प्रतिद्वंदियों से मुकाबले के लिए हर वाजिब कदम उठाने का अख्तियार है. स्टेट बैंक अच्छे से कारोबार करता रहे, इसके लिए ये कदम जरूरी हैं.

अगर बैंक के लगाए चार्ज सही नहीं हैं, तो दो चीजें हो सकती हैं. या तो ग्राहक कोई बेहतर बैंक चुन लेगा, जहां उसे बेहतर और सस्ती सुविधाएं मिलेंगी. या फिर अगर सरकार के दबाव में बैंक अपने फैसले से पीछे हटता है, तो सरकार को दूसरे बैंको पर भी यही नियम लागू कराना चाहिए. क्योंकि वो तो बहुत ज्यादा वसूली कर रहे हैं. सभी बैंकों को कारोबार के लिए एक जैसे नियम और बराबरी के मौके मिलने चाहिए.