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दक्षिण का सूखा (पार्ट-4): देवताओं के देस में सूखा, पश्चिमी घाट की हरियाली ही एक रास्ता

केरल आज सूखे की मार झेल रहा है तो इसमें कुदरत और आदमी दोनों का हाथ है.

TK Devasia

देवों का अपना देश कहलाने वाला केरल यों तो अपनी हरियाली के कारण मशहूर है लेकिन इस सूबे के बड़े हिस्से में जिन्दगी सूखे की मार से कराह रही है. केरल को 44 नदियों का वरदान हासिल है और यहां जल-प्रांतर भी बहुतायत में हैं लेकिन लगता है वर्षा के देवता इंद्र ने इस बार केरल की तरफ से अपनी नजरें फेर ली हैं.

केरल आज सूखे की मार झेल रहा है तो इसमें कुदरत और आदमी दोनों का हाथ है. पानी की कटौती क्या चीज होती है, यह केरल में किसी ने जाना ही नहीं लेकिन आज केरल में पानी की कटौती रोजमर्रा की बात हो चली है. मजबूरी में कई लोग बहुत दूर से पानी ढोकर ला रहे हैं.


पश्चिमी घाट ही है मानसून का द्वार

लोग सूखे की इस हालत के लिए जलवायु-परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापन) को जिम्मेदार बता रहे हैं. वे अपने को इस जवाबदेही से बचाना चाहते हैं कि सूखे के हालात पैदा होने के पीछे उनका भी हाथ है. लोग यह तो कह रहे हैं कि सूबे में फॉरेस्ट कवर (वन आच्छादन) घटता जा रहा है लेकिन असली मुद्दा तो पश्चिमी घाट को बचाने का है. केरल में पश्चिमी घाट वर्षा के बादलों को रोकने में अहम भूमिका निभाता है और भारतीय उपमहाद्वीप में पश्चिमी घाट ही मॉनसून का प्रवेश-द्वार है.

पश्चिमी घाट के नाजुक प्रकृति-परिवेश की सुरक्षा के मकसद से बनायी गई माधव गाडगिल समिति और कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट धूल खा रही है. सरकार इन रिपोर्ट को हाथ ही नहीं लगाना चाहती क्योंकि सरकार को भय है कि पश्चिमी घाट के बाहरी इलाके में रहने वाले लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ेगी.

राजनीतिक दल लोगों को भड़काने का काम तो खूब करते हैं लेकिन लोगों के मन में मौजूद भय-भावना को दूर करने के उपाय नहीं करते. पश्चिमी घाट के बाहरी इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग ईसाई हैं, सो चर्च इनके बीच भय-भावना फैलाने में सबसे आगे रहता है. आपदा कभी भी अपना भयंकर रुप दिखा सकती है.

चर्च है जिम्मेदार?

पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर सक्रिय एक कार्यकर्ता जॉन पेरुवनंतनम् बताते हैं, 'जहां तक केरल का सवाल है, यह बात सच है कि जमीन हथियाने में चर्च अव्वल है. यही वजह है जो चर्च पश्चिमी घाट को बचाने को लेकर आयी विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्ट से डरता है.'

लेकिन चर्च को इन आरोपों से सख्त इनकार है. तमरासेरी डायसिज (धर्मक्षेत्र) के बिशप रेमिगियोज इच्ननियिल इलाके में चल रहे प्रतिरोध को जायज ठहराते हुए कहते हैं, 'पर्यावरण के नाम पर आतंकवाद फैलाकर किसानों को जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता. हम पर्यावरण का सम्मान करते हैं लेकिन लोगों की कीमत पर नहीं.'

पानी की कमी से पशुओं की मौत जैसे हालात

पिछले साल केरल के उत्तरी इलाके वायनाड के गरीब किसान वेलाप्पन को मजबूरन अपनी तीन गायें बेचनी पड़ीं. उसे किसी ने झूठ-मूठ का समझा दिया कि सरकार गायों की संख्या का परिसीमन करने वाली है. गाडगिल और कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट पर चल रहा बवाल जब थम गया तो वेलाप्पन ने पांच गाय और खरीद ली. इनमें से चार गायों की पिछले महीने मौत हो गई. उन्हें पिलाने के लिए पानी ही नहीं बचा है.

पानी की कमी झेल रहे वेलाप्पन जैसे कई किसानों को एक और खतरा जंगली जानवरों से है. जंगली जानवरों ने पानी की खोज में किसानों की बस्तियों पर धावा बोलना शुरु किया है और इससे किसानों के जीवन को खतरा है. पिछले साल के अक्तूबर महीने से इसकी शुरुआत हुई. तब झुंड के झुंड हाथी किसान बस्तियों में आने लगे. वायनाड और ईडुकी जिले में पिछले महीने अलग-अलग घटनाओं में तीन लोगों की मौत हुई है. कई किसानों का कहना है कि उनके घर के आसपास मोरों ने उत्पात मचा रखा है.

'प्रकृति का खुलेआम दोहन- जंगलात पर कब्जा, पेड़ कटाई, अंधाधुंध खनन, बालू की तस्करी और लचर जल-संरक्षण- इन सबने बहुत नुकसान पहुंचाया है. सूबे के पश्चिमी घाट इलाके में अब भी खनन की 300 अवैध इकाइयां सक्रिय हैं. इन लोगों को राजनीतिक संरक्षण हासिल है, जो कोई सवाल करे उन्हें ये लोग चुप करा देते हैं.' फर्स्टपोस्ट से यह बात पेरुअनंतम् ने कही.

भूमाफियाओं के आगे सब फेल

सूबे ने गलतियों से अभी तक सबक नहीं सीखा. मुन्नार का खूबसूरत हिल-स्टेशन इस बात की जीती-जागती मिसाल है. हर कोई इस खूबसूरत हिल स्टेशन को कंक्रीट के जंगल में तब्दील करने पर आमादा है.

आईएएस अधिकारी और सब कलेक्टर श्रीराम वेंकटरमण ने भूमाफिया पर सीधी कार्रवाई की लेकिन सरकार ने उन्हें चुप करा दिया. सूबे के ऊर्जा मंत्री इसी इलाके के हैं. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि वेंकटरमण को पागलखाने भेज देना चाहिए. कहा जाता है कि ऊर्जा मंत्री की भूमाफियाओं से सांठगांठ है. अफसोस की बात तो है कि मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने अपने अफसरान से कहा है कि भूमाफियाओं के कब्जे वाली जमीन पर कोई कार्रवाई करने से पहले ऊर्जा मंत्री से सलाह-मशविरा किया जाय.

'अपने को जीवित रखने के लिए प्रकृति को मनुष्य की जरुरत नहीं लेकिन मनुष्य प्रकृति के बगैर जीवित ही नहीं रह सकता. दोनों के बीच सह-अस्तित्व का प्रेमपूर्ण रिश्ता होना चाहिए. लेकिन केरल में ऐसा नहीं हो रहा. हमने बड़े खोज-बीन के बाद चर्चा के लिए एक वैज्ञानिक एजेंडा सुझाया लेकिन इसकी अनदेखी की गई.' यह कहना है वीएस विजयन का. विजयन बायो डायवर्सिटी (जैव विविधता) के एक्सपर्ट हैं और माधव गाडगिल समिति के सदस्य रह चुके हैं.

2003 में ही आई माधव गाडगिल समिति की रिपोर्ट

पश्चिमी घाट यूनेस्के के हेरिटेज साईट में शुमार है. मानवीय गतिविधियों से यहां के प्रकृति परिवेश को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है. इस बात की चर्चा ने जब जोर पकड़ा तो सरकार को मजबूरन प्रसिद्ध पर्यावरणविद् माधव गाडगिल की अध्यक्षता में एक समिति बनानी पड़ी. समिति ने 2003 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी.

पश्चिमी घाट की छाया में आने वाले सभी छह राज्यों (गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु) ने गाडगिल समिति की सिफारिशों का विरोध किया. इस विरोध को देखते हुए इसरो के पूर्व प्रधान कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक कार्य समूह (वर्किंग ग्रुप) का गठन किया गया.

गाडगिल समिति ने पश्चिमी घाट के 67 फीसद इलाके को पर्यावरण के लिहाज से नाजुक घोषित किया था. कस्तूरंगन की अध्यक्षता वाले कार्यसमूह ने इलाकाई वर्गीकरण में कुछ बदलाव करते हुए नाजुक घोषित इलाके का विस्तार घटाकर 37 फीसद कर दिया. लेकिन पश्चिमी घाट के बाहरी हिस्से में रहने वाले लोगों और चर्च ने अपेक्षाकृत नरम रवैया अपनाने वाली इस रिपोर्ट का भी विरोध किया.

दोनों रिपोर्ट को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि जंगल के बाहरी हिस्से से किसानों और अन्य बाशिंदों को हटाने की बात उनमें नहीं कही गई है. रिपोर्ट का जोर अनियंत्रित खनन और जंगल की कटाई पर सख्त अंकुश लगाने का है ताकि पर्यावरण के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील माने जाने वाले इस इलाके को बचाया जा सके.

इस इलाके में 20 हजार वर्गफीट से ज्यादा विस्तार वाला निर्माण-कार्य (इमारत आदि) नहीं किया जा सकता. पर्यावरण के लिहाज से खतरनाक करार दिए गए उद्योग इस इलाके में नहीं लगाये जा सकते, ना ही इलाके में शहरीकरण का विस्तार किया जा सकता है. लेकिन रिपोर्ट की इन बातों का प्रतिरोध पर उतारु लोगों पर कोई असर नहीं हुआ. इन लोगों ने यही माना कि सबकुछ उन्हें उजाड़ने की साजिश है.

सरकार की इच्छाशक्ति से सुधर सकते हैं हालात

विजयन ने फर्स्टपोस्ट को बताया कि दोनों ही रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के बाहरी हिस्से में रहने वाले किसान और गरीब लोगों के हित की रक्षा के उपाय सुझाये गये हैं. अगर सरकार इच्छाशक्ति दिखाये तो दोनों रिपोर्ट की अच्छी बातों को एक साथ मिलाकर लोगों को बिना नुकसान पहुंचाये अपनी कार्य-योजना पर अमल कर सकती है.

विजयन कहते हैं कि 'रिपोर्ट की सिफारिशों के क्रियान्वयन का विरोध करने वाले लोग मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं. ये लोग गरीब लोगों का इस्तेमाल एक ढाल की तरह कर रहे हैं क्योंकि इन लोगों ने पश्चिमी घाट में एक बड़े इलाके पर कब्जा कर रखा है.' विजयन के मुताबिक चर्च इस मामले में सबसे ज्यादा दोषी है.

वायनाड के एक कार्यकर्ता एन भडूसा का कहना है कि 'यह सारा कुछ बहुत उदास करने वाला है. हर कोई तात्कालिक फायदे की बात सोच रहा है. सूखे की विकराल स्थिति का सामना कर रहे केरल में अब वक्त आन पहुंचा है जब सब लोग साथ मिलकर स्थिति पर विचार करें वर्ना केरल प्रकृति के कोप का बार-बार सामना करेगा.'

अंधेरे में रोशनी की किरण

बुरे हालात में अक्सर कहीं ना कहीं उम्मीद की किरण भी फूटती दिखायी देती है. अलपुझा में एक नदी दो दशक से सूखी पड़ी थी. इस नदी को पानी से भरने के लिए लोगों ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर पानी का सोता तैयार किया. लगभग 700 लोगों ने 70 दिन तक मेहनत की और सूखी पड़ी नदी में फिर से पानी भर उठा.

पलक्कड जिले में एक नामालूम सा गांव है पूकोट्टकावू. यहां महिलाओं ने हिम्मत दिखायी और पानी के संकट से उबरने के लिए छह माह के भीतर 186 कुएं खोद दिए. कई पंचायतों ने आदेश सुनाया है कि नये घर तभी बनेंगे जब उनमें बारिश के पानी को इक्ट्ठा करने की सुविधा हो. सरकार भी चिंता में है. उसने हरित केरलम् परियोजना चलायी है. इसके अंतर्गत सूबे के सभी जल-स्रोतों को पानीदार बनाया जाना है.

पर्यावरणविदों का ख्याल है कि हरित केरलम् जैसी परियोजना चलाने भर से समस्या का निदान नहीं हो सकता. पश्चिमी घाट के जरिए ही केरल में वर्षा होती है, सो पहला काम पश्चिमी घाट को बचाने का होना चाहिए. विजयन का सवाल है कि 'सिर की अनदेखी कर पूरे शरीर का इलाज करने में क्या तुक है.'

विजयन का कहना है कि सियासी दल अपने तुच्छ स्वार्थ और वोट बैंक की राजनीति के कारण पर्यावरण बचाने के अपने वादे को निभाने से बचना चाहते हैं. सब तात्कालिक फायदे के बारे में सोच रहे हैं, दूरगामी रणनीति की बात कोई नहीं सोच रहा. विजयन के मुताबिक प्रकृति के संरक्षण के बड़े हित को देखते हुए सियासी दलों को अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचना चाहिए.

'यह बात सच है कि अगर आप प्रकृति को मां नहीं समझते तो आपके भीतर कोई कमी है. अब वक्त आ गया है कि केरल में सब लोग प्रकृति के संरक्षण-संभरण के बारे में नये सिरे से सोचें. अगर ऐसा होता है तो बहुत सी प्राकृतिक आपदाओं को रोका जा सकेगा.' जरुरत विजयन की इन बातों पर ध्यान देने की है.

(दक्षिण भारत के सूखे के हालात पर फर्स्टपोस्ट पर आठ लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित हो रही है. लेखमाला में कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के सूखे के हालात के विभिन्न पहलुओं को समेटने की कोशिश है. श्रृंखला में दक्षिण भारत के वर्तमान जल-संकट के बारे में जमीनी हालात का जायजा लिया जा रहा है.)