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कश्मीर: बीजेपी-पीडीपी की 'बेमेल शादी' में फंसे हैं कश्मीरी और सैनिक

महबूबा मुफ्ती और बीजेपी के बीच के मतभेद इतने ज्यादा हैं कि उनका कोई समाधान संभव नहीं है

Sreemoy Talukdar

कश्मीर में बुरे ख्वाब भी हकीकत बनकर डरा रहे हैं. ऐसा लगता है कि कश्मीर एक ऐसे जाल में फंस गया है, जिससे निकलना नामुमकिन है. कश्मीर की नियति के भागीदार भी ऐसे ही भंवर में घूमते मालूम होते हैं. और डरावने सपने जैसी हकीकत के नाटक में हर किरदार अपने रोल को ऐसे निभाता जा रहा है, जैसे कि इसका कोई ओर-छोर न हो. हां, हर गुजरते पल के साथ कश्मीर के हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं.

कश्मीर में एक तरफ तो पाकिस्तान ने पर्दे के पीछे से जंग छेड़ रखी है. साथ ही राज्य में अलगाववादी सोच भी बढ़ती जा रही है. इसी के साथ इस्लामिक कट्टरपंथ भी कश्मीर में अपनी जड़ें जमाता जा रहा है. इतनी मुश्किलों के साथ ही कश्मीर को दो ऐसी पार्टियों की साझा सरकार को झेलना पड़ रहा है, जो विचारधारा के लिहाज से एक-दूसरे की धुर विरोधी हैं.


पीडीपी और बीजेपी के बीच मतभेद बहुत खराब दर्जे के हैं. इनकी सोच का फर्क साफ दिखता है. नतीजा ये कि कश्मीर में मुख्यधारा की सियासत के लिए जमीन कम से कमतर होती जा रही है. पीडीपी और बीजेपी के बीच विचारधारा के टकराव और बढ़ते मतभेदों ने कश्मीर के हालात और बिगाड़ दिए हैं.

ये ऐसा गठजो़ड़ था, जिसका बनना ही नामुमकिन माना जाता था. लेकिन अब कश्मीर में पीडीपी और बीजेपी का गठबंधन जहरीला भी होता जा रहा है. शोपियां में दो नागरिकों की मौत (कुछ मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक तीन) ने दोनों दलों के बीच मतभेद को एक बार फिर से उजागर कर दिया है. हमेशा की तरह, इस घटना में भी सच के दो पहलू हैं. और ये दोनों ही एक-दूसरे के ठीक उलट हैं.

घटना शोपियां के गनोपुरा में शनिवार को हुई थी. सेना का कहना है कि उसके सैनिकों को ढाई से तीन सौ प्रदर्शनकारियों ने घेरकर पत्थरबाज़ी शुरू कर दी थी. जान बचाने के लिए सैनिकों को गोली चलानी पड़ी. रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता कर्नल राजेश कालिया के मुताबिक, भीड़ ने सेना के काफिले पर जबरदस्त पत्थरबाजी की और चार गाड़ियों को आग लगाने की कोशिश की. कर्नल कालिया ने बताया कि शोपियां में भीड़ इतनी आक्रामक थी कि उसने एक जेसीओ को पीट-पीटकर मार डालने की भी कोशिश की. लोगों ने उसका हथियार भी छीन लिया था.

कर्नल कालिया के मुताबिक, 'सेना के काफिले के साथ चल रहे एक जेसीओ के सिर में चोट लगी और वो बेहोश होकर गिर गया. भीड़ ने उसे पीटना शुरू कर दिया. उसका हथियार छीन लिया. हिंसक भीड़ ने सेना की गाड़ियों को आग लगा दी. भयंकर हालात को देखते हुए सेना को मजबूरी में आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी. इस घटना में सेना के सात जवान घायल हुए हैं. जबकि सेना की 11 गाड़ियों को नुकसान पहुंचा. सेना की गोलीबारी में दो नागरिकों की मौत हो गई'.

वहीं, गांव के लोगों का दावा है कि सैनिकों ने दो लोगो को जान-बूझकर निशाना बनाया. इसकी वजह ये थी कि कुछ लोगों ने एक आतंकवादी के मारे जाने के बाद अपने घरों पर काले झंडे लगाए थे. सेना ने इस पर ऐतराज जताया. सैनिकों का कहना था कि ये इस्लामिक स्टेट का झंडा लगता है. लेकिन गांववालों ने सैनिकों के कहने पर झंडा हटाने से इनकार कर दिया. उन्होंने सैनिकों का विरोध किया. गांवावालों का दावा है कि सैनिक बाद में अपने और साथियों के साथ लौटे और अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं. उन्होंने गांव के लोगों पर पत्थर भी फेंके.

हिंदुस्तान टाइम्स ने एक ग्रामीण के हवाले से लिखा कि, 'सुबह सैनिक सिर्फ दो गाड़ियों में आए थे. लेकिन शाम को वो और ज्यादा गाड़ियों में आए. उन्होंने दो पत्थरबाजों जावेद अहमद बट और सुहैल जावेद लोन को गोली मार दी'. गांववालों का कहना है कि प्रदर्शनकारियों की तादाद 250-300 नहीं, सिर्फ 20-30 थी.

दो विरोधाभासी बयानों के बीच फंसी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने राज्य में बंदी कर दी. उन्होंने फौरन ही घटना की मजिस्ट्रेट से जांच का आदेश भी दे दिया. अचरज की बात ये रही कि जांच पूरी होने से पहले ही सेना के एक मेजर और दसवीं गढ़वाल यूनिट पर कत्ल और कत्ल की कोशिश के केस दर्ज कर लिए गए. जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भी इस घटना पर खूब हंगामा हुआ. बीजेपी ने मेजर आदित्य के खिलाफ दर्ज केस वापस लेने की मांग की. पार्टी ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री तो जांच से पहले ही नतीजे पर पहुंच गई हैं. महबूबा मुफ्ती के बयान से सरकार का असमंजस साफ दिखा. ऐसा लग रहा था कि परस्पर विरोधी सियासी और सैन्य जरूरतों के बीच फंसी सरकार किसी तरह खुद को बचाना भर चाहती है.

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि, 'घटना के तुरंत बाद दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. सरकार ने शोपियां के जिलाधिकारी को मजिस्ट्रेट से जांच कराने का आदेश दिया. उन्हें पंद्रह दिन के अंदर रिपोर्ट देने को गया गया है. सेना का रिकॉर्ड शानदार रहा है. इस रिकॉर्ड पर दाग न लगे इसके लिए जरूरी है कि दागियों की पहचान करके उन्हें बाहर किया जाए'.

महबूबा दे रही हैं सेना को दोष

बयान में विरोधाभास तो देखिए. एक तरफ तो महबूबा मुफ्ती कह रही हैं कि वो जांच को वाजिब नतीजे तक पहुचाएंगी. वहीं दूसरी तरफ वो दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की बात भी कह रही हैं. मुफ्ती ने अपने बयान में सेना के दागियों का जिक्र किया. इससे ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री सैनिकों को दोषी मान चुकी हैं. मुफ्ती ने आरोप लगाया कि सैनिकों ने गनोपुरा के रास्ते से न गुजरने की पुलिस की सलाह की अनदेखी की थी. उन्होंने विधानसभा में कहा कि हाल ही में साझा कमांड हेडक्वार्टर में हुई बैठक में सुरक्षा बलों को संयम से काम लेने को कहा गया है. उन्हें हवा में गोलियां चलाने को तरजीह देने की सलाह दी गई है.

अब अगर जांच में ये बात सामने आती है कि सेना ने वाकई आत्मरक्षा में ही गोली चलाई थी, तब मुख्यमंत्री क्या करेंगी? फिर वो अपने इस बयान का कैसे बचाव करेंगी? कहा जाता है कि सेना अक्सर अपने अधिकारियों को आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट की आड़ में बचा लेती है. लेकिन हकीकत तो ये है कि एएफएसपीए से सैनिकों को पूरी तरह से सुरक्षा कवच नहीं मिलता.

जैसा कि रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने लिखा कि, 'आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट से कोई बचाव नहीं होता. हां, इस मामले में होता ये है कि केवल केंद्र सरकार ही दोषी के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दे सकती है. 90 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद ने दस्तक दी, तो AFSPA की इस कमी की अनदेखी कर दी गई. मेरी रेजिमेंटल यूनिट 10 गढ़वाल राइफल्स को ऐसे हालात से बखूबी निपटना आता है. उन्होंने बिना वजह गोली नहीं चलाई होगी'.

महबूबा मुफ्ती को आर्मी के मेजर और एक यूनिट के खिलाफ केस दर्ज करने से पहले जांच पूरी हो जाने देनी चाहिए थी. असल में महबूबा मुफ्ती की हालत त्रिशंकु जैसी है. वो सत्ता में तो हैं, मगर उनके पास सत्ता की ताकत नहीं है. वो सूबे की मुख्यमंत्री तो हैं. मगर कश्मीर घाटी में उनका फरमान कोई मानता नहीं.

राज्य में फरवरी में पंचायत चुनाव होने हैं. लेकिन अब तक इस चुनाव की अधिसूचना तक जारी नहीं हुई है. राज्य के चुने हुए प्रतिनिधि अपने इलाके के लोगों के बीच जाने के बजाय घर बैठने को तरजीह देते हैं. घाटी में अलगाववादियों का हुक्म चलता है. ये अलगाववादी पाकिस्तान से आदेश लेते हैं. उनकी जब मर्जी होती है, वो घाटी को बंद कर देते हैं.

महबूबा मुफ्ती अपनी सरकार का असर घाटी में लौटाना चाहती हैं. लेकिन वो ऐसा करने के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करतीं. इसके उलट वो अलगाववाद को और हवा देकर अपनी पैठ जमाना चाहती हैं. राज्य सरकार ने माफी की तमाम योजनाएं शुरू कर दी हैं. इनमें पहली बार पत्थरबाजी के आरोप में पकड़े गए 9 हजार से ज्यादा युवा भी हैं. अब सुना ये जा रहा है कि बार-बार पत्थरबाजी में पकड़े गए लोगों को भी माफी देने की तैयारी है.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, कश्मीर में पुलिस आतंकवादियों को बिना शर्त समर्पण की मंजूरी दे रही है. बस आतंकवादियों को आकर अपने परिवार के साथ रहने लगना चाहिए. उन्हें तो अब थाने आकर हाजिरी लगाने से भी छूट दी जा रही है.

अब अलगाववादियों के इशारे पर पत्थर फेंकने वालों को माफ कर दिया जाएगा. सरकार हिंसक प्रदर्शनकारियों का बचाव करेगी. आतंकवादियों को बिना जांच-पड़ताल के आकर परिवार के साथ रहने की इजाजत दे दी जाएगी. सेना के मेजर के खिलाफ बिना जांच के ही एफआईआऱ दर्ज होगी. मुख्यमंत्री खुलकर सेना पर अविश्वास जताएंगी, तो इससे क्या संदेश जाता है. इससे तो हुकूमत की कमजोर हालत साफ दिख जाती है. ऐसा मालूम होता है कि राज्य की मुख्यमंत्री ने अपने अधिकार पाकिस्तान के इशारे पर चलने वाले अलगाववादियों को दे दिए हैं. मुख्यमंत्री को ये समझना होगा कि अलगाववादियों की वकालत करके उनकी लोकप्रियता नहीं बढ़ने वाली.

एक तरफ लाचार मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हैं. तो, दूसरी तरफ बीजेपी अपनी अलग जहरीली सियासत कर रही है. नौशेरा से पार्टी के विधायक रविंद्र रैना ने मेजर और सेना की यूनिट के खिलाफ एफआईआर वापस लेने की मांग की. रामनगर से बीजेपी के विधायक आर एस पठानिया ने मुख्यमंत्री का विरोध किया. राज्यसभा में बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने महबूबा मुफ्ती पर तीखा हमला बोला. उन्होंने मुफ्ती सरकार बर्खास्त करने की मांग की.

सवाल ये है कि आखिर बीजेपी राज्य में पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार चलाने पर क्यों आमादा है?

कश्मीर के एक सीनियर पत्रकार ने दावा किया कि बीजेपी के आलाकमान ने अपने विधायकों से कहा है कि वो अपने तेवर जरा ढीले ही रखें.

खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली बीजेपी, खुले तौर पर अलगाववादियों की वकालत करने वाली पीडीपी के साथ सरकार कैसे चला रही है, ये समझ से परे है. खास तौर से तब और जब पीडीपी के नेता केंद्र की कश्मीर नीति की अक्सर कड़ी आलोचना करते रहते हैं. ये सियासी मजबूरी नहीं, बल्कि जिम्मेदारी से बचना है.

ऐसा लगता है कि पीडीपी और बीजेपी ने प्रशासन चलाने का जिम्मा सुरक्षा बलों के हवाले कर दिया है. अब दोनों पार्टियां अपने-अपने सियासी हित साधने में जुटी हुई हैं. बीजेपी की सियासी मजबूरियां अपनी जगह, मगर इसके सियासी हित, देश के हितों का नुकसान कर रहे हैं. पीडीपी के साथ बीजेपी का गठबंधन, सियासी, प्रशासनिक और विचारधारा के लिहाज से नामुमकिन सा है. इसके नतीजे सबके सामने हैं.