सोनू निगम के होने से पांच सौ साल पहले कबीर हुए थे. जिस तरह से सोनू निगम को सुबह अज़ान की आवाज से दिक्कत हो रही है लगभग वैसी ही दिक्कत कबीर को हुई होगी.
कबीर के समय में बिजली नहीं थी लेकिन अज़ान तब भी थी. नींद में खलल न पड़ा हो लेकिन मन में कष्ट तो हुआ ही था.
सोनू निगम एक पेशेवर गायक हैं. लेकिन उन्होंने जो बात कही है वह सिर्फ मस्जिदों से होने वाले अज़ानों की नहीं है. मंदिर में बजने वाले भजनों और गुरुद्वारे के शबद कीर्तन से भी है. उन्होंने इसे गुंडागर्दी से जोड़ा है और कहा है कि यह कोई धार्मिक मुद्दा नहीं बल्कि एक सामाजिक मुद्दा है.
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ठीक उसी तरह जिस तरह से समाज में व्याप्त कठमुल्लापन या पोंगापंथ या रूढ़िवाद के खिलाफ कबीर ने लिखा था...
“कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाए
ता चढ़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय”
हर धर्म की समस्या है
मैं खुद भी दिल्ली में बरसों तक अज़ान की आवाज से सुबह एक बार जागता था. अगर दोबारा नींद आ गई तो दूसरी बार शबद कीर्तन की आवाज से नींद खुल जाती थी.
झुंझलाहट होती थी लेकिन लगा कि यह धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल है. चुप ही रहना बेहतर लगा. लेकिन पहली बार प्रतिरोध का मन बनाया अमरकंटक पहुंचकर. चारों ओर विंध्य के पहाड़ों से घिरी खूबसूरत सी जगह.
जैसा कि होता है हमने नर्मदा को मैया बनाया और पूरा अमरकंटक एक धार्मिक नगरी में बदल गया.
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मुझे अमरकंटक जाना अच्छा लगता है. नर्मदा जैसी जिद्दी नदी से मिलने क्योंकि जब सारी नदियां पश्चिम से पूर्व बहती हैं तो एक नर्मदा ही है जो पूर्व से पश्चिम बहती है.
अमरकंटक में बरसात के दिनों में हरीतिमा के अनगिनत शेड्स देखने का अपना अलग ही अनुभव होता है. लेकिन कुछ वर्ष पहले दो रात वहां ठहरा तो सुबह चार बजे के बाद लाउडस्पीकर पर बज रहे भजनों के शोर ने सोने न दिया. सुबह चार से शुरु हुए लाउडस्पीकर रात नौ बजे से पहले बंद ही न हों.
प्रतिरोध का जो तरीका मुझे ठीक लगा मैंने अपनाया. वहां स्थानीय एसडीएम से अनुरोध किया कि वे इस शोर के आतंक को रोकें. पहले तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए लेकिन कुछ दिनों पहले उन्होंने बताया कि अब लाउडस्पीकर के उपयोग पर रोक लग गई है. तब से अमरकंटक तो जाना नहीं हुआ लेकिन एक सुकून सा मिला.
तो ऐसा कोई धर्म नहीं मिला जो अपने कथित भक्तों को सुबह सुबह न जगाता हो. जो उस धर्म विशेष को न मानता हो, वह चुप ही रहे क्योंकि यह धर्म का ‘संवेदनशील’ मामला है.
शोर बर्दाश्त करने की मजबूरी
सच तो यह है कि धर्म का यह ‘संवेदनशील’ मामला धीरे-धीरे हमारे जीवन में सुविधाओं की जगह असुविधाएं पैदा कर रहा है.
मैं धार्मिक हूं या नहीं, आप किसी धर्म को मानते हैं या नहीं, ये सवाल है ही नहीं. अगर कोई धर्म को मानता है तो भी और नहीं मानता तो भी उसे धर्म के ठेकेदार आतंकित करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते.
अब तो शहरों में ऐसा जुलूस निकलने लगे हैं कि पूरा शहर दिनभर लाउडस्पीकरों से पट जाता है और शोर इतना होता है कि लोग आपस में बात भी नहीं कर पाते.
यह धीरे धीरे एक प्रतियोगिता में बदल गया है. रामनवमी और ईदमिलादुन्नबी और गुरुपरब और कृष्ण जन्माष्टमी के आयोजनों के बीच एक तनाव भरी प्रतिस्पर्धा होने लगी है.
ब्रिटेन में अगर किसी पड़ोसी का रेडियो भी लगातार ऊंची आवाज में बजता रहे तो आप पुलिस को फोन करके बुला सकते हैं और पुलिस आपके पड़ोसी को शोर मचाने से बलपूर्वक रोक सकती है.
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लेकिन हमारी सरकारें धर्म के मामले में इतनी समझौतावादी हो गई हैं कि वे किसी को नाराज ही नहीं करना चाहती.
जिन्हें नाराज होना है वो तो किसी न किसी बहाने से हो ही जाएंगे. जैसा कि सोनू निगम से कुछ लोग हो गए हैं.
एक धमकी के बाद सोनू निगम ने अपना सिर मुंडवा लिया है ताकि वे अपनी बात थोड़ी और दूर तक पहुंचा सकें.
पता नहीं ये आवाज कहां तक पहुंचेगी
अब तक कहीं पढ़ने में नहीं आया कि अपने दोहों की वजह से कबीर को किसी फतवे का सामना करना पड़ा या उनका कोई सामाजिक विरोध हुआ. वरना न तो वे ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...’ लिख पाते और न ‘ताते यह चाकी भली पीस खाए संसार...’ लिख पाते.
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लेकिन क्या कबीर इस समय होते तो भी वह सब कह पाते जो वे कह गए हैं?
सोनू निगम ने एक सही मुद्दा उठाया है लेकिन गलत समय में. यह समय धार्मिक आस्थाओं के अतिक्रमण पर चर्चा करने का नहीं है क्योंकि हम पहले से ही धार्मिक शत्रुता के आरोप झेल रहे हैं.
एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे मामले इतने बढ़ गए हैं कि भारत को सीरिया और इराक के साथ खड़ा होना पड़ा है.