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दिल्ली: इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है...

आज धुएं-धूल और कोहरे के गुबार में लिपटी दिल्ली में दिन एकदम से घातक हो चले हैं तो इसे डेडली (मारक) कहें तो बेजा नहीं होगा!

Rakesh Bedi

शहर तो हमेशा से ही बेशुमार संभावनाओं का नाम है. शहर के कई छोटी-छोटे इतिहास होते हैं और इन इतिहासों से शहर के सीधे-सपाट भूगोल को विस्तार मिलता है. काम के बोझ के मारे शहर के लाखों निवासियों और उनकी बेचैन रूह के लिए यह वो जगह है जहां ‘राह-ए-निजात’ मौज-मजे के ठिकानों पर जाने का नाम है. जो सादा-दिल और सादगी पसंद हैं वे राह-ए-निजात के नाम पर अपने लिए शहर से बस तन्हाई मांगते हैं लेकिन भीड़ भरा शहर उन्हें तन्हाई तो बख्श ही नहीं सकता.

जो शाह-दिल हैं, शहर उन्हें खुशियों की सौगात भेंट करता है और उदास आत्माओं को अकेलापन. लेकिन कुछ ऐसे भी दिन गुजरते हैं जब शहर कोहरे की चादर में लिपटा अलसाता है और ऐसे वक्तों में शाहदिल लोगों को भी उदासी और नाउम्मीदी घेर लेती है, वे वॉट्सऐप की झिक-झिक और फेसबुक की चिक-चिक के बीच चिंता में डूबे कहीं खोए-खोए से नजर आते हैं.


उन्माद के कई युगों और खून के धब्बों से भरे इतिहास के ढेर सारे पन्नों से गुजरने के बावजूद दिल्ली बची रह गई है और अपने आधुनिक अवतार में महानगर की शक्ल में राक्षसी सुरसा की तरह फैलती-पसरती गई है. दिल्ली का फैलना-पसरना कुछ ऐसे हुआ है कि उसे तरतीब में बांधकर रखना भी मुहाल है और ऐसी दिल्ली में जब साल दर साल स्मॉग कहलाने वाले, धुएं और धूल से भरे कुहासे का धुंधलका छाता है तो दिल्ली एकदम से अपना रास्ता भटक जाती है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

शहर धुंधलके में किसी जादूगर की छुप्पम-छुपाई के खेल में तब्दील हो जाता है. शहर की कई इमारतें अचरज से भरे कई घंटों तक नजरों से ओझल हो जाती हैं. एक काला जादू सवार हो जाता है शहर के सिर पर, एक शैतान का साया मंडराता है और वह अपने ताकत के जोर से शहर को जहां का तहां किसी पत्थर के बुत में बदलकर जैसे एकबारगी रोक देता है.

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फिर अपने महानगरीय फैलाव में सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा शहर अपने हाथ-पांव, नाखून और पंजों को सिकोड़ लेता है. सबकुछ छुप जाता है, हर चीज की पहचान खो जाती है, सबकुछ पोशीदा-हर पहचान गुम.

दिल्ली में हो जाइए गुम

अमेरिका के गली-कूचों की जिंदगी की महान फोटोग्राफर, तन्हाई-पसंद विवियन मेयर को कुछ बेमिसाल फोटोज कैमरे की आंखों में उतार लेने का बाद घर के बिस्तर में जा घुसने की अपनी हैरतअंगेज आदत ना पालनी होती. वो दिल्ली में होतीं तो फोटोग्राफ्स उतार लेतीं और बस 100 मीटर के फासले पर खड़े धुंधलके में फौरन से पेश्तर गुम हो जाती. दिल्ली में गुमनामी की गुंजाइश हर कोने पर मौजूद है. कहीं भी जाइए और जाकर गुम हो जाइए! एकदम छू-मंतर-छू!

लेख के शीर्षक में शहरयार का जो मिसरा लिखा गया है वह हमारे एक और महानगर बॉम्बे की बेचैनियों को बड़ी बारीकी से पकड़ता है. शहरयार का मिसरा हिंदुस्तान के नए उभरते महानगरों में छाते धुंधलके, दमघोंटू माहौल और आंखों की जलन और दिमाग की नसों में छा जाने वाली परेशानियों का इजहार करने वाला एक बेहतर प्रतीक है.

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आखिर 1970 के दशक में जब शहरयार ने इस मिसरे को लिखा था तो ‘बंबई के बाबू’ दिल्ली को गंवार ही मानते थे, यानी एक ऐसी जगह जहां पाकिस्तान से आए पंजाबी शरणार्थी और अभी-अभी पहुंचे बिहार के देहाती खिचड़ीनुमा झुंड बनाकर रहते हैं. बंबई के बाबू अब भी ऐसा ही मानते हैं, लेकिन यह तो एक अलग ही कहानी है और उस कहानी को लिखने के लिए किसी और दिन का इंतजार करना होगा जब यह धुंधलका छंट चुका होगा.

शहरयार

इंसान के गढ़े वास्तुशिल्प और एक प्रचंड लय, महानगर घुमने पहुंचे किसी शख्स की आंखों में ये दो चीजें हमेशा के लिए समा जाती हैं. कवि गार्सिया लोर्का ने कही थी ये बात. महानगर का मतलब ज्यामितिक आकृतियां और ढेर सारा दुख. लोर्का को अगर स्पेन के दक्षिणपंथियों ने मारा ना होता और जो वे दिल्ली में होते तो उन्हें गाजीपुर जैसे तकलीफ के टीले पूरे शहर में पसरे मिलते, कहीं कोई वास्तुशिल्प नहीं मिलता उस कवि को. हिंदुस्तान में बर्नम जैसा मायाजाल रचने वाला कोई सर्कसबाज होता तो वह भी धुंधलके को हटाकर इस होमोसेक्सुअल कवि लोर्का को वास्तुशिल्प की कोई ज्यामितिक आकृति नहीं दिखा पाता.

दिल्ली दयार के आशिक-मिजाज और शराबी शायर गालिब ने लिखा- हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले और ये मिसरा बिना धुंधलके वाले आसमान से झांकती ढेर सारी चांदरातों के पहले की बात है. जो गालिब को इन दिनों का पता होता जब ख्वाहिशें दबी हुई चीख बन चली हैं और उनके अशआर को परवान देने वाली दिल्ली का दम घुट रहा है तो वे ऐसे माहौल की नुमाइंदगी में क्या लिखते?

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आज जब चांदनी चौक अपनी ठेलम-ठेली में किसी दुःस्वप्न की तरह जागता और जीता है, गालिब अपनी कलम को गिरवी रख देते और मेरठ या फिर उससे भी कहीं आगे किसी बस्ती में गुम हो जाते. आखिर जो उन्होंने लिखा कि ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’ तो इसका कोई मतलब उनके लिए भी होगा ही. शहर का जो मौजूदा सूरत-ए-हाल है उसमें तो ऐसा कोई तसव्वुर ही मुमकिन नहीं कि आह भरते हुए ही सही आदमी को जीने के लिए कोई उमर नसीब होगी! सो गालिब अपने अकेलेपन और शराब की तमाम सुराहियों के साथ बल्लीमारां से निकलकर कहीं और को जाते और वहां जाकर टेलीविजन पर आने वाली कार्टून कथाओं से दिल लगाते!

राजनेताओं को कुछ नहीं पता

हमारे वक्त का मिजाज थोथे नारे, दिलजली से उपजी लड़ाइयों, सियासी डाह, तकनीक की गुलामी और मटमैले दिनों से बना है. ये वो वक्त है जब राजनेता सारी चीजों पर अपनी बौड़ाहट उगल रहे हैं. उनके भीतर जज्बातों का उफान जोर पकड़ता है और वे ऐसे फरमान जारी करते हैं जो पलक झपकते अखबार के पहले पन्ने की सुर्खी बन जाय. इसे बंद करो, उसे भी बंद करो, कार मत चलाओ, अपनी नाक पर मास्क चढ़ा लो, बीजिंग से सीख लो, पुराने ख्यालों से बाज आओ. उनकी बेकाबू जबान की मोटाई शहर पर मंडराती धुंध की मोटी चादर को और ज्यादा मोटा बनाती है.

जनसंहार पर बनी क्लाद लैंजमैन की लंबी फिल्म जिसने गैस-चैंबर नाम के लफ्ज में रोंगटे खड़े कर देने वाले खौफ के मायने भरे, बखूबी दिखाती है कि किस मशीनी क्रूरता और बेअहसास निर्दयता से नाजियों ने यहूदियों का नरसंहार किया. राख से भरे धुएं की मोटी परत छोटे-छोटे शहरों पर मंडराती दिखती है, नाजी इन शहरों में अपने फाइनल सॉल्यूशन के तौर पर यहूदियों को गैस-चैंबर के जरिए हमेशा को मिटा देने के इरादे से भेज रहे हैं. तो जब हम, गैस-चैंबर कहते हैं तो दरअसल यह एक अपशकुन का संकेत है कि हमें भी यहूदियों की तरह अब अपने संहार के लिए तैयार रहना है. शायद, दिल्ली के लिए गैस-चैंबर शब्द का व्यवहार अनजाने में हुआ लेकिन आखिर हुआ तो गैस-चैंबर लफ्ज का ही इस्तेमाल ना!

दिल्ली वालों के पास याद रखने के लिए वक्त कहां?

जीवन में यह मायने नहीं रखता कि तुम्हारे साथ हो क्या रहा है, मायने रखता है कि तुम अपने साथ हुए में से किसको याद रखते हो और कैसे याद करते हो—यह बात गार्सिया मार्खेज ने लिखी है. तो फिर दिल्लीवाले अपने इन दिनों को किस तरह याद करेंगे? क्या दिल्लीवाले याद भी करेंगे इन दिनों को? रात में वे अपने फोन पर प्रदूषण के भयावह आंकड़े एक-दूसरे को पहुंचाने में लगे होते हैं, सुबह को काम होता है वॉट्सऐप ग्रुप्स को एयर क्लासिटी इंडेक्स के नंबर बताना. तो इस सबके बीच कुछ भी याद रखने के लिए वक्त कहां है?

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पिछले साल जो कथा-कार्टून बने वही इस साल भी एक-दूसरे तक पहुंचाए जा रहे हैं लेकिन सुरसा के बदन की तरह फैलता यह महानगर तो रोज ही बदलता है, हर लम्हें बदलता है. लेकिन अगर पिछले साल के ही कथा-कार्टूनों में आज लोगों को आज के महानगर की गूंज सुनाई दे रही है तो फिर कैसे मान लिया जाय कि महानगर सचमुच बदला है? क्या अभी यह महानगर किसी कुंभकर्णी नींद में है, क्या महानगरीय चौंकन्नेपन पर नींद की गोलियां भारी पड़ रही हैं.

शहर सोता है, धुंध और धुएं की यादें उसके मन में दर्ज नहीं हो पातीं, गुजर चुकी धुंध भरी बहुत सी सर्दियों में ऐसी यादें पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं. शहर का ‘तब’ शहर के ‘अब’ मे बदल रहा है, शहर का ‘अब’ शहर के ‘तब’ की शक्ल ले रहा है.

फोटोग्राफ्स दरअसल सच्चाई को कैद करने की तरकीब है. आप सच्चाई को हाथ में थाम नहीं सकते लेकिन आप उसकी तस्वीरों को हाथ में थाम सकते हैं, आप अपने वर्तमान को तो नहीं लेकिन अपने इतिहास के मालिक हो सकते हैं—ये बात सूसन सोंटैग ने कही थी. दिल्ली का धुंध भरा निस्सार इतिहास एक अचल-अडिग वर्तमान में तब्दील हो रहा है, सो दिल्ली की सच्चाई भी एक धुंध में बदल रही है. अतीत किस आसानी से अपने खूनी जबड़ों से वर्तमान को निगलता और उगलता है! जो फोटोग्राफ बीत चुकी किसी अलसायी हुई सुबह की हकीकत का फसाना सुनाती है वही आज के बंजर और वीरानी का भी पता दे सकती है.

फिलिप लार्किन

साहित्यकार फिलिप लार्किन ने अपने मुल्क इंग्लैंड के देहात को लेकर गहरे अफसोस में यह मार्मिक पंक्ति लिखी है कि एक ऐसी भी सांझ आ रही है जो किसी चिराग को रोशन ना कर पायेगी.. लेकिन दिल्ली में सांझ की कौन कहे, यहां तो ऐसी सुबहें गुजर रही हैं जो किसी चिराग को रोशन नहीं कर पा रहीं.. उम्मीद की कोई लौ नहीं जगा पा रहीं. दिन की रोशनी प्रदूषण के अंकमान बताते पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के धुंध में कहीं खो जाती है. इतिहास के आड़े-तिरछे आंगन में दिल्ली ने कई दफे अपना नाम बदलते हुए देखा है. आज धुएं-धूल और कोहरे के गुबार में लिपटी दिल्ली में दिन एकदम से घातक हो चले हैं तो इसे डेडली (मारक) कहें तो बेजा नहीं होगा.