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दलाई लामा का अरुणाचल दौरा: चीन पर चाल बदल रहा है भारत

भारत और चीन को आपसी बातचीत के जरिए समाधान ढूंढने का प्रयास करना चाहिए

Seema Guha

अभी हाल ही में तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा ने सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश में पड़ने वाले तावांग और अन्य इलाकों का दौरा किया है.

इस दौरे को लेकर चीन की तरफ से भारत को जो धमकी दी जा रही है वह किस हद तक भारत के लिए चिंता का विषय हो सकती है?


क्या इसे चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स के हठधर्मी संपादकों की महज भड़काऊ लफ्फाजी माना जाए या फिर इसे संजीदगी से लेने की जरूरत है क्योंकि ग्लोबल टाइम्स चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नजरिए को ही बयान करता है?

अलका आचार्य जैसे विश्लेषकों की अगर मानें, तो ग्लोबल टाइम्स के विचारों को खारिज नहीं किया जा सकता.

वह मानती हैं, 'भारत जब तक इस मामले पर यथास्थितिवादी रूख अपनाए हुए था और दलाई लामा के साथ भारत के संबंध गैर-आधिकारिक स्तर पर जारी थे तब तक चीन को इस पर किसी प्रकार की आपत्ति नहीं थी. साल 2009 में तिब्बत के नेताओं के तावांग दौरे की तरह इस बार भी चीन की तरफ से वैसी ही सख्त प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा सकती है लेकिन बात इसके आगे जाने की संभावना नहीं है.'

नेहरू के साथ दलाई लामा (फाइल)

भारत सरकार के मंत्री दलाई लामा के कार्यक्रमों में इसके पहले तक शिरकत नहीं करते थे. लेकिन पिछले साल दिसंबर में पहली बार दलाई लामा को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक समारोह में आमंत्रित किया गया जहां राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भी उनकी मुलाकात हुई.

अलका आचार्य का मानना है कि इस महीने का दलाई लामा का अरुणाचल दौरा अलग किस्म का रहा. इसका अंदाजा अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा कांडू के इस बयान से लगाया जा सकता है कि ‘अरुणाचल की सीमाएं तिब्बत के साथ लगती हैं न कि चीन के साथ.' यानि कि तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं है.

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एक चीन पॉलिसी को टा-टा?

कांडू ने ऐसा बयान केंद्र सरकार के इशारे पर दिया या फिर खुद अपनी तरफ से, इसके बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन इस बात की संभावना कम ही लगती है कि किसी बीजेपी-शासित प्रदेश का मुख्यमंत्री अपनी मर्जी से इस तरह का बयान देगा और वह भी दलाई लामा के दौरे के दौरान.

इस घटना को ‘एकल चीन नीति’ के प्रति भारत की वचनबद्धता से मुकरने के रूप में देखा जा सकता है. क्या भारत वाकई 1950 के दशक से ही भारतीय विदेश नीति का हिस्सा रहे ‘एकल चीन नीति’ से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहा है?

ऐसा लगता तो नहीं है, यह देखते हुए कि हठीले स्वभाव के वर्तमान अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए हैं. राष्ट्रपति पद संभालने के ऐन बाद डोनाल्ड ट्रंप ने ताइवान के राष्ट्रपति के साथ फोन पर बातचीत की थी लेकिन इसके बाद से वे भी धीरे-धीरे अपने कदम वापस खींच रहे हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अपनी मुलाकात के बाद से ही वह चीन की तारीफों के पुल बांधने में लगे हैं और उत्तर कोरिया पर चीन की तरफ से जो प्रतिबंध लागू किए गए हैं, उसकी सराहना करते नहीं थक रहे.

भारत का रुख चीन को लेकर हताशापूर्ण होने की कई वजहें रही हैं. जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर पर प्रतिबंध लागू करवाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की तरफ से जारी कोशिशों पर चीन ने मामूली तकनीकी मसलों का हवाला देकर बार-बार पानी फेर दिया है.

जैश-ए-मोहम्मद को संयुक्त राष्ट्र संघ ने पहले से ही एक प्रतिबंध संगठन का दर्जा दे रखा है लेकिन भारत सरकार मसूद अज़हर पर अलग से प्रतिबंध लागू करवाने की जुगत में लगी है. अगर ऐसा होता भी है तो इससे भारत कौन सा बड़ा तीर मार लेगा, यह एक अलग सवाल है.

लेकिन चीन जिस तरह से भारत के इरादों पर पानी फेरने में लगा है इसको लेकर भारत चीन पर बुरी तरह से खफा है. इसके साथ-साथ चीन लगातार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत के शामिल होने के प्रयासों को विफल करता आया है.

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दलाई लामा के दौरे का मतलब

अमेरिका के साथ ऐतिहासिक असैन्य परमाणु करार के बाद से ही भारत इस समूह में शामिल होने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. साथ ही चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) परियोजना के तहत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर(पीओके) में सड़कों के निर्माण के चलते भी चीन के साथ भारत के रिश्तों में खटास आई है क्योंकि पीओके पर भारत अपनी दावेदारी जताता रहा है.

दलाई लामा के अरुणाचल दौरे के बहाने भारत चीन के साथ अपना हिसाब बराबर करना चाहता है. लेकिन इसके जवाब में चीन ने अरुणाचल प्रदेश के छह इलाकों का इसी हफ्ते चीनी, तिब्बती और अंग्रेजी भाषाओं में नामकरण किया है.

चीन के अधिकारियों का कहना है कि ये नाम इन इलाकों के ऊपर चीन की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक दावेदारी को वाजिब ठहराते हैं. वैसे तो चीन समूचे अरुणाचल प्रदेश पर अपनी दावेदारी जताता रहा है लेकिन पिछले 10 सालों में तावांग पर दावेदारी की इसकी कोशिशें और भी तेज हुई हैं.

गौरतलब है कि तावांग अरुणाचल का एक पुराना शहर है जो बौद्ध मठों के लिए जाना जाता है. चीन का दावा है कि यह शहर दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा है.

भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गोपाल वागले ने पत्रकारों के साथ समूहिक रूप से होने वाली साप्ताहिक भेंटवार्ता दौरान चीन के इस कदम का करारा जवाब देते हुए कहा, 'अपने पड़ोसी देश के शहरों का नाम बदल देने से किसी का अवैध दावा वैध नहीं हो जाता. अरुणाचल प्रदेश भारत का अंग है और हमेशा रहेगा.'

इस मामले को लेकर भारत और चीन दोनों ने अपने तेवर सख्त कर लिए हैं. अलका आचार्य कहती हैं, 'अगर आप हद पार करेंगे तो चीन भी वैसा ही करेगा.'

हालांकि, उनको ऐसा नहीं लगता कि इस वक्त चीन कोई बड़ा कदम उठाएगा. भारत हर हाल में चीनी राष्ट्रपति शी जिंपिंग की पसंदीदा ‘एक क्षेत्र, एक सड़क’ परियोजना से अलग रहना चाहता है और चीन के साथ भारत के सम्बन्धों पर इस बात का भी असर दिख रहा है.

चीन जिस तरह से बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और दूसरे पड़ोसी मुल्कों में बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं के विकास के नाम पर पैसा उड़ेलने को तैयार है इसके मद्देनजर भारत अपने अन्य छोटे पड़ोसी मुल्कों से इस बात की उम्मीद नहीं कर सकता, वे भी भारत का अनुसरण करेंगे.

अलका आचार्य कहती हैं, 'चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर(सीपीईसी) भारतीय रणनीतिक दृष्टिकोण को कमजोर कर रहा है.'

कश्मीर में अभी जिस तरह के हालात बने हुए हैं और उसपर काबू पाने के लिए जिस तरह से मोदी सरकार मुख्य रूप से सुरक्षा बलों पर निर्भर है, ऐसे में कश्मीर घाटी में हालत और बिगड़ने के आसार लग रहे हैं.

चीन आज से तीन दशक पहले तक जिस तरह से उत्तर-पूर्व में उग्रवादी गुटों को सरक्षण प्रदान करता था जरूरत पड़ने पर ठीक उसी प्रकार की नीति वह कश्मीर के मामले में भी अपना सकता है.

इससे पहले कि हालत बद से बदतर हों, भारत और चीन को चाहिए कि दोनों पक्ष आपसी बातचीत के जरिए समस्या का समाधान ढूंढने की दिशा में प्रयास करें.

देश की बागडोर संभालने वाली बीजेपी के कुछ लोगों को लगता है कि चीन उसी पक्ष की बात सुनता है जिसका नेतृत्व मजबूत हो लेकिन उनका यह खयाल अपने-आप में बेमानी है और इस नजरिए को जितनी जल्दी हो सके, खारिज कर देने की जरूरत है.