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अगली बार अपने बच्चों के स्कूल जाएं तो कुछ सवाल ज़रूर पूछें

बच्चों के यौन शोषण के मामलों में साठ प्रतिशत मामले लड़कों के साथ होते हैं

FP Staff

गुरुग्राम के रायन स्कूल में सात साल के प्रद्युम्न ठाकुर की हत्या का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ है कि दिल्ली के शहादरा में एक पांच साल की बच्ची के साथ कथित तौर पर रेप का मामला सामने आया है. इस बात को कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि ये मामले भारत की राजधानी से और हाई प्रोफाइल स्कूल से जुड़े नहीं होते तो देश भर के मीडिया में चर्चा का विषय नहीं बन पाते.

अब जब इस पर एक चर्चा शुरू हुई है तो हम सभी को चाहिए कि इन  घटनाओं को बस कुछ दिन की सनसनी बनाकर न छोड़ दिया जाए. ज़रूरत है कि हमारे शिक्षा तंत्र और हमारे बच्चों से जुड़े अहम मुद्दों पर कुछ गंभीर सवाल उठाए जाएं.


हमारे बच्चे हम से ही सुरक्षित नहीं हैं

प्रद्युम्न मामले में स्कूल की व्यवस्था में कई बड़ी खामियां पाई गईं. इससे पहले भी इस स्कूल में इस तरह से बच्चों के संदेहास्पद तरीकों से मारे जाने की घटनाएं हुई हैं. मगर साफ है कि कोर्ई सबक नहीं लिया गया.

व्यवस्था की कमियों पर भी निगाह डालेंगे मगर उससे पहले अपने बच्चों के प्रति हमारे देश के लोगों के रवैये से जुड़े कुछ तथ्यों पर नज़र डाल लीजिए.

2010 से 2014 के बीच में बच्चों से बलात्कार के मामले 84 प्रतिशत बढ़े हैं.

नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन औफ चाइल्ड राइट्स के अनुसार बच्चों के साथ यौन हिंसा के जो मामले पुलिस में आते हैं उनमें सिर्फ 8 प्रतिशत ही अदालत में पहुंचते हैं.

बाल विकास मंत्रालय की 2007 में आई रिपोर्ट के अनुसार 57 प्रतिशत से अधिक बच्चों के साथ कभी न कभी सेक्सुअल अब्यूज़ हुआ है. इनमें से आधे से ज्यादा बच्चों के साथ उनके किसी रिश्तेदार ने ही ये दुष्कर्म किया था.

यौन शोषण का शिकार बच्चों में लगभग 60 फीसदी लड़के होते हैं.

5 से 12 साल की उम्र में बच्चों के साथ सबसे ज़्यादा यौन शोषण की घटनाएं होती हैं.

बच्चों के साथ यौन शोषण करने वाले रिश्तेदारों में 50 प्रतिशत ऐसे होते हैं जिनपर बच्चों की हिफाज़त की जिम्मेदारी दी गई होती है.

अगर आगे बढ़ते जाएं तो और आंकड़े मिलते जाएंगे. मगर अब तक आपके सामने ये तस्वीर साफ हो चुकी होगी कि हमारे बच्चे अपने आस-पास के लोगों से कितना असुरक्षित है. इस घटना से सबसे बड़ा सबक ये लिया जा सकता है कि हम अपने बच्चों को सुरक्षित रहने के लिए शिक्षित करें और साथ ही इस मानसिकता से बाहर आएं कि हमारे आस-पास ये नहीं हो सकता.

व्यवस्था पर सवाल उठाने में कमी

समाज के रूप में हमारी एक कमी है कि हम ज़्यादातर मामलों में सरकारी सिस्टम पर सवाल उठाते हैं मगर निजी संस्थाओं पर चुप रहते हैं. टीवी, मीडिया और बाकी चर्चाओं में आपने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई और तमाम मुद्दों पर सवाल उठते देखे होंगे मगर निजी स्कूलों पर इस तरह की चर्चा होती नहीं देखी होगी.

सामान्यत: लोग निजी संस्थाओं के मोटे खर्च और बाहरी चमक-दमक को देखकर सुरक्षा जैसे बुनियादी सवालों पर बात करना भूल जाते हैं. रायन स्कूल के मामले में ऐसी कई लापरवाहियां सामने आई हैं. स्कूल की चारदीवारी टूटी थी. सीसीटीवी कैमरे काम नहीं कर रहे थे. आग बुझाने वाले उपकरणों के भी एक्सपायर हो जाने की बात सामने आई है.

अगर गौर से देखेंगे तो रोज़ सुबह आपको कई बार रिक्शे, ऑटो और वैन में ओवरलोडिंग की स्थिति में स्कूल जाते बच्चे दिख जाएंगे. स्कूल के स्पोर्ट्स ग्राउंड पर अक्सर 100 से ज़्यादा बच्चों के बीच एक पीटी टीचर होता है. खेल के मैदान पर लगने वाली दुर्घटनाओं के लिए ये संख्या कितनी नाकाफी है, आप खुद सोचिए.

बहुत से सवाल हैं जो मां-बाप को पूछने चाहिए पर कभी पूछे नहीं जाते जैसे, ‘कितने लोगों ने अपने बच्चों के स्कूल प्रिंसिपल से कर्मचारियों के पुलिस वैरिफिकेशन की डीटेल मांगी होंगी.’

ज़्यादातर पब्लिक स्कूलों में हर महीने या तीन महीने पर एक पैरेंट्स टीचर मीटिंग होती है. दुर्भाग्य है कि ज़्यादातर मां-बाप टीचर से ‘इसके 95 परसेंट बढ़कर 98 कैसे हों’ जैसे सवाल कर के वापस आ जाते हैं. याद रखना चाहिए कि स्कूलों का हमारी ज़िंदगी में बच्चों के अच्छे नंबर लाने के ज़्यादा महत्व है.

इसलिए अगली बार जब अपने बच्चे के स्कूल जाइए तो परीक्षा की आंसर शीट के साथ-साथ कुछ और सवाल भी पूछिएगा.