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'इंटरनेशनल लेवल पर पाकिस्तान को अलग-थलग कर दें पुलवामा में हुए आतंकी हमले का जवाब'

पीएम मोदी का मिडिल-ईस्ट, खासकर यूएई और सऊदी अरब के देशों के राजनयिकों के साथ काफी अच्छे संबंध हैं, जिसका इस समय भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए

Neeraj Bali

14 फरवरी को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में बड़ा आतंकी हमला हुआ. ये हमला आईईडी ब्लास्ट के जरिए किया गया है, जिसमें 42 सीआरपीएफ सैनिक शहीद हुए हैं, ऐसे मौके पर जब भावनाएं हमारी सोच पर हावी हो रही है तब ये जरूरी हो जाता है कि राजनीतिक और मिलिट्री दोनों संस्थाओं में शीर्ष स्तर पर सलाह करने वाले लोगों में, ऐसी आवाजों को प्रमुखता मिले जो न सिर्फ समझदार हों बल्कि इस पूरे मुद्दे पर गंभीर सोच भी रखते हों.

एक सर्जिकल स्ट्राइक करने पर या किए जाने पर जनता के मन में जो जिज्ञासा होती है, वो आज खत्म हो चुकी है. सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत द्वारा दिया गया ये बयान कि दुश्मन को सबक सिखाने के लिए सीमापार बदले की कार्रवाई करने की जरूरत है, इससे पाकिस्तान काफी हद तक चौकन्ना हो गया होगा, लेकिन क्या सच में इस तरह की धमकी या चेतावनी की कोई जरूरत थी भी?


हम इस समय एक ऐसे समय में हैं जब देश आम-चुनाव की तरफ बढ़ रहा है. हम सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं कि हमारे नेता इतनी समझदारी दिखाएंगे कि, वे ऐसी कोई हरकत न करें, जिसे देखकर ये लगे कि वो सीमा पर होने वाली घटनाओं से कोई चुनावी फायदा उठाने की कोशिश कर रहें हैं. इस हमले के जवाब में हमारा विरोध चार मोर्चों पर होना चाहिए. हमने कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को घेरने की कोशिश शुरू कर ही दी है. हमने उससे मोस्ट फेवर्ड

नेशन की वरीयता भी छीन ली है.

ये दोनों ही कदम सराहनीय हैं, लेकिन अभी इस दिशा में काफी कुछ किए जाने की जरूरत है. पीएम मोदी का मिडिल-ईस्ट, खासकर यूएई और सऊदी अरब

के देशों के राजनयिकों के साथ काफी अच्छे संबंध हैं, जिसका इस समय भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जिससे हम पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग कर दें.

ऐसा कूटनीतिक कदम उठाएं जो लंबे समय तक पूरी दुनिया में रहे याद

 

इस समय हम जो भी कूटनीतिक कदम उठाएं, वो न सिर्फ पूरी दुनिया में फैले बल्कि लंबे समय तक के लिए हो. इसका एक अच्छा उदाहरण या यूं कहें कि नमूना 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का तरीका था, जिसको अगर हमारे आज के नेता चाहें तो फॉलो भी कर

सकते हैं. हालांकि, पहले से ही ऐसा माहौल बन रहा है, जिसमें ये देखा जा रहा है कि आईएमएफ यानी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा निधि ने, पाकिस्तान पर जैश-ए-मोहम्मद को लेकर दबाव बनाना शुरू कर दिया है.

आईएमएफ कहीं न कहीं पाकिस्तान द्वारा जैश को अपने देश में खुला मैदान देने के विरोध में है. ये सब कुछ कहीं न कहीं इमरान खान को परेशान जरूर कर रहा होगा. दूसरी और जरूरी बात ये है कि हमें हर हाल में एक दीर्घकालीन दृष्टिकोण अपनाना होगा. आखिर, क्यों हमारे पास आज तक पाकिस्तान से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बन पायी है?

कश्मीर की समस्या को स्थायी रूप से सुलझाने के लिए हमने आखिर किस तरह तैयारी की है, हम कश्मीर समस्या कैसे सुलझाएंगे? उरी हमले के बाद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि, कश्मीर समस्या सुलझाने के लिए एक कुशल और रणनीतिक जवाब तैयार किया जाएगा. सर्जिकल स्ट्राइक ने पीएम

द्वारा किया गया पहला वादा तो पूरा कर दिया लेकिन, रणनीतिक विरोध के वादे का क्या हुआ?

अगला कदम नीतिगत उपायों का है. हालांकि, इससे जुड़ा फैसला लेने का एकमात्र अधिकार डीजीएमओ यानि डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशंस का है, लेकिन फिर ही हम यहां कुछ सुझाव जरूर देना चाहेंगे. हम सब ये अच्छी तरह से जानते हैं कि आंतकवादियों के लिए बगैर स्थानीय मदद के गुजारा करना मुश्किल है. कुछ मामलों में आतंकी स्थानीय लोगों में मौत का डर दिखाकर मदद हासिल करते हैं, तो वहीं कुछ और मामलों में देखा गया है कि, कई बार स्थानीय लोग खुद ही आगे बढ़कर उनकी मदद करने लगते हैं.

आतंकियों से निपटने के लिए एक संगठित और सुनियोजित कोशिश की जरूरत

हमारा फोकस उन गरीब, मजलूम और मजबूर लोगों पर नहीं होना चाहिए जिन्होंने किसी विकट परिस्थिति में आतंकियों को एक या दो समय का खाना खिलाया हो. बल्कि हमारा ध्यान उन लोगों पर होना चाहिए जो इस खेल में शामिल बड़े खिलाड़ी हैं, जिन्हें ओजीडब्लू यानि ओवरग्राउंड वर्कर भी कहा जाता है. ये वे लोग होते हैं जो पाकिस्तान और इन आतंकवादियों के बीच वाहक का काम करते हैं, वो दोनों को आपस में जोड़ते हैं. यही वे लोग हैं जो उन आतंकवादियों को सामान, संसाधन, खाना-पीना, राशन और सुझाव और जानकारी मुहैया कराते हैं, जो सीमापार से एक विदेशी धरती पर पहुंचते हैं.

जानकारी के मुताबिक इन ओजीडब्लू में से कई लोग ऐसे हैं जो समाज के सम्मानित सदस्य हैं, जो कई दूसरे काम-काज में लगे हैं. इनमें से कई तो ऐसे हैं

जो किसी न किसी राजनीतिक दल के कार्डधारी सदस्य भी हैं. मैं ये बात कश्मीर में बिताए गए समय और अपने निजी अनुभव से कह रहा हूं. इस पूरी परिस्थिति की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि यहां के स्थानीय लोगों को ये अच्छी तरह से पता होता है कि ये कौन लोग हैं, सब कुछ खुला राज है.

इसलिए अगर मुझे कहने की आजादी हो तो मैं यही कहना चाहूंगा इन सभी लोगों को जो आतंकवादियों की रीढ़ हैं उनसे निपटने के लिए न सिर्फ एक संगठित और सुनियोजित कोशिश की जरूरत है, बल्कि कठोर कदम की भी, जिससे ऐसे लोगों के साथ जल्द से जल्द न्याय किया जा सके.

दूसरा ये कि हमें हमारी इंटेलीजेंस विभाग के ज्यादा खराब स्तर पर भी ध्यान देना चाहिए. जब मैं कश्मीर में तैनात था, तब हम हमारे वरिष्ठ अफसरों से सुना करते थे कि किसी भी अभियान की सफलता का 90% श्रेय इंटेलीजेंस को जाता था और सिर्फ 10% असल एक्शन को. हम इस कहावत को अनंत काल तक सुनते रहे. इसके बावजूद चाहे वो स्टाफ रखने की बात हो या संसाधन देने की, हम पता नहीं क्योंकि इंटेलीजेंस विभाग को प्राथमिकता क्यों नहीं देते.

इंटेलीजेंस एजेंसियां मुख्य आरोपी के वीडियो पर नहीं लगा सकीं रोक

इसके उलट हो ये रहा है कि हमले का मुख्य आरोपी मानव बम बने जैश-ए-मोहम्मद का आतंकी आदिल (जो कि ककपुरा गांव का रहने वाला था, ये गांव

बम बलास्ट वाली जगह से ज़्यादा दूर भी नहीं है) का वीडियो खुलेआम हर किसी को मिल रहा था लेकिन इसके बावजूद, वहां सक्रिय अनेकानेक सुरक्षा और

इंटेलीजेंस एजेंसियां कोई कार्रवाई नहीं कर पाईं.

आखिर, इस तरह का वीडियो जिसे खुलेआम सर्कुलेट किया जा रहा था, वो सुरक्षा एजेंसियों की नजर से बच कैसे गया? खासकर, मिलिट्री इंटेलीजेंस की

नजर से. इसलिए ये जरूरी हो गया है कि भारत सरकार घाटी में खासकर, कार्यरत इंटेलीजेंस सेवा की तरफ न सिर्फ ज्यादा ध्यान दे, उन्हें मज़बूत करे,

उसकी गुणवत्ता बढ़ाए बल्कि संख्या भी. सरकार को ऐसे उपाय करने होंगे जिससे बेहतर और कुशाग्र लोग इंटेलीजेंस सेवा को करियर के तौर पर अपनाना चाहें.

एक दूसरा विकल्प ये है कि, मिलिट्री इंटेलीजेंस कर्मचारियों का एक छोटा और स्थायी यूनिट तैयार किया जाए, और उसमें पैदल सेना और सशस्त्र बल के

बेहतरीन अधिकारियों को, जिनके पास ग्राउंड पर काम करने का अनुभव हो, उन्हें इंटेलीजेंस ऑपरेशंस में 2-3 साल के लिए डेप्यूटेशन पर लाया जाए.

अगर इस प्रक्रिया को अनिवार्य बना दिया जाए, और साथ में हर रैंक के अफसरों के लिए ईनाम भी तय हो, तो मुमकिन हो कि इस कदम के अच्छे परिणाम सामने आएं. इस तरह का आधारभूत फेरबदल करने में संभव है कि काफी वक्त लगे, लेकिन सफलतापूर्वक किए जाने पर इंटेलीजेंस ऑपरेशंस के लिए ये एक गेमचेंजर भी साबित हो सकता है.

इसके अलावा, एक नीतिगत प्रतिक्रिया के तौर पर, मैं डीजीएमओ और उत्तरी कमांड के विशेषज्ञों से निवेदन करना चाहूंगा. हम चाहें जो भी कदम उठाएं, उसे

पूरी तरह से सोच-विचार कर ही अमल में लाएं, क्योंकि हम जो भी कदम उठाएंगे उसके नतीजे के रूप में हमारा अपना भी काफी नुकसान हो सकता है.

जिसमें हमारे सैनिकों की मौत, विरोध में पड़ोसी देश द्वारा बदले की कार्रवाई को अंजाम देना या फिर वो अंतिम युद्ध जो हमारे दिमाग में है. इसके अलावा हमें हर हाल में उस उकसावे से बचने की जरूरत है जो हमें पहले और तुरंत हमला करने को प्रेरित करता है.

(लेखक मेजर जनरल नीरज बाली (रिटायर्ड) 37 वर्षों तक सेना में इन्फैंटरी ऑफिसर के तौर पर कार्यरत थे, और कई बार वो कश्मीर में भी तैनात रहे. उन्होंने कई ऑपरेशन्स में राष्ट्रीय राइफल बटालियन का नेतृत्व भी किया था. वो इस समय रोडिक कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड के CEO हैं)