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राष्ट्रगान पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: देशभक्ति भीतर से आएगी, थोपने से नहीं

अगर हम इस स्थिति में पहुंच गए हैं कि सिनेमाहॉल हमें देशभक्ति की याद दिला रहे हैं तो यह भारतीय मूल्यों की हार है...

Sandipan Sharma

अगर सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान के लिए खड़ा होना मुझे देशभक्त बनाता है तो सुप्रीम कोर्ट सही है. इस नियम-कानून को जरूर लागू करें.

यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कोई धार्मिक ज्ञान बांटने वाला या पंडित आपसे पवित्र गंगा में डुबकी लगाने को कहता है: इस एक प्रतीकात्मक कार्य के करते ही आपके सारे पाप धुल जाएंगे.


मैं फिर सड़क दुर्घटना के पीड़ितों के सामने से उनके प्रति उदासीन रहते हुए गुजर सकता हूं (74 फीसदी लोग ऐसा ही करते हैं), सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं का छेड़ा जाना चुपचाप देखते रह सकता हूं, चुप रह सकता हूं जब कन्याभ्रूण की हत्या की जाती है (लगभग 2000 हर रोज), अपने टैक्स नहीं भर सकता हूं (केवल 1 फीसदी ईमानदारी से अपना टैक्स भरते हैं), आर्मी द्वारा की जाने वाली भर्ती अपील की अनदेखी कर सकता हूं, खुले में कहीं भी पान-गुटखा थूक सकता हूं और जहां-जब मन करे पेशाब कर सकता हूं.

लेकिन, जब तक मैं राष्ट्रगान गाने को तैयार हूं, मेरे पास खुद को देशभक्त कहलाने का अधिकार बना रहता है.

शुक्रिया, माई लॉर्ड, क्या हम अब ग्रैंड मस्ती देखने जा सकते हैं?

यह आइडिया सिनेमाहालों तक ही सीमित क्यों रहे?

लेकिन यह आइडिया सिनेमाहालों तक ही सीमित क्यों रहे? क्यों न मॉलों में, रेस्त्राओं में, पब में, ऑफिसों में, मेट्रो में, बसों में, हवाईजहाजों में, अस्पतालों में घुसते वक्त; घरों के बेडरूम में ‘जन गण मन’ गाना अनिवार्य कर दिया जाए?अगर उद्देश्य हर एक इंसान को देशभक्ति का डोज दिया जाना है तो क्यों इसे केवल सिनेमाहॉल जाने वालों तक ही सीमित किया जाए?

अच्छा इंसान और अच्छा नागरिक ही सच्चा देशभक्त

मेरी विनम्र राय में हर इंसान के केवल दो ही नैतिक फर्ज होते हैं:

पहला, अच्छा इंसान होना. और दूसरा, अच्छा नागरिक होना.

इन्हीं दो गुणों से किसी सभ्य समाज का निर्माण होता है. साथी इंसानों, देश और उसकी नैतिकता के लिए प्रेम और सम्मान, समाज को चलाने वाले नीतिपरक और कानूनी सिद्धांत इन्हीं गुणों से खुद-ब-खुद निकलकर आते हैं. कहने का अर्थ है कि एक अच्छा इंसान और अच्छा नागरिक ही सच्चा देशभक्त हो सकता है. इसलिए किसी भी सभ्य समाज का फोकस चरित्र निर्माण करने, लोगों को ईमानदार इंसान और नागरिक बनाने पर होना चाहिए.

भारत को देशभक्ति की संस्कृति की जरूरत है, देशभक्तिकरण की संस्कृति की नहीं.

अगर हम इस स्थिति में आ चुके हैं कि सिनेमाहॉल हमें देशभक्ति के मूल्य याद दिला रहे हैं तो इसका मतलब है कि भारतीय मूल्यों की हार हुई है. अगर हमारे घर हमें सही संस्कार नहीं सिखा सकते, अगर स्कूल और उसके पाठ्यक्रम हमारे भीतर सही सभ्य मूल्य नहीं भर सकते, और अगर अब हम प्रतीकों के क्रैश कोर्स पर निर्भर हैं, मसलन तीन घंटे के मनोरंजन से पहले जबरन देशभक्ति का सामूहिक उपचार दिया जाना, तो इस गणतंत्र का ईश्वर ही मालिक है.

भारतीय समाज और उसके मूल्यों पर कलंक

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जो मस्ती में नाच रहे हैं, विडम्बना है कि वे इस असफलता को रेखांकित करना भूल गए हैं. वास्तव में यह बहस भारतीय समाज और उसके मूल्यों पर कलंक है. जरा सोचिये, अगर राष्ट्रगान का सम्मान करने के लिए हमारे साथ जबरदस्ती करने की जरूरत पड़े, अगर कानून के डर दिखाकर देशभक्ति सिखानी पड़े तो इसका अर्थ यही है कि हमारे भीतर इसकी कमी है.

लॉरेंस ल्यांग द वायर के लिए लिखते हुए भावनाओं को कानून बनाने के खतरों पर बात करते हैं. वह एक अहम कानूनी सवाल भी पूछते हैं: कुछ नहीं करना, मसलन राष्ट्रगान के लिए नहीं खड़ा होना अपराध की श्रेणी में कैसे आ सकता है. खासतौर पर जब कानूनन यह साफ है कि, 'कोई व्यक्ति अगर जानबूझकर राष्ट्रगान गाते वक्त रुकावट डालता है या ऐसी किसी सभा में अशांति पैदा करता है तो वह तीन साल की जेल या जुर्माना अथवा दोनों द्वारा दंडित किया जा सकता है.'

देश, उसके झंडे और राष्ट्रगान के लिए प्रेम व सम्मान किसी भी सभ्य, विवेकशील दिमाग की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है. वो हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति होता है. इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक किस्सा सुनाता हूं.

पूरा भारत एक असाधारण मौके पर एक साथ खड़ा हो गया

अगस्त 2008 में पूरा भारत एक असाधारण मौके पर एक साथ खड़ा हो गया था. 28 साल बाद ओलम्पिक में लहराते तिरंगे के साथ जन-गण-मन गाया जा रहा था. बीजिंग में जब एक भारतीय ने स्वर्ण पदक जीतकर हमें गर्व करने का मौका दिया था, पूरे स्टेडियम और पूरी दुनिया को जन-गण-मन पर खड़ा होते और तिरंगे को सलाम करते देखने का दुर्लभ सुख हमें मिला था. मुझे भरोसा है कि हर एक भारतीय ने देशभक्ति को अपनी नसों में गाता हुआ, गर्व और खुशी को अपने खून में नाचता हुआ महसूस किया होगा.

भारत को तिरंगे को देखकर उत्साहित होने, राष्ट्रगान गाते वक्त धड़कते सीनों के लिए गर्व, महत्व और खुशी के ऐसे ही सच्चे पलों की जरूरत है.

लेकिन,डर्टी पिक्चर देखने से पहले जन-गण-मन? माफ कीजिए, माई लॉर्ड, मैं असहमत हूं, सादर.