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परंपरा की दुहाई देकर हिंसा को जायज मत ठहराइए सरकार!

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि वैवाहिक संबंध के भीतर हुए बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं गिना जाएगा

Deya Bhattacharya

कुछ हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट ने धारा 498ए से संबंधित घरेलू हिंसा और क्रूरता के बारे में एक चौंकाऊ निर्देश जारी किया था. आदेश हुआ कि ऐसे सारे मामले में पति और उसके परिवार पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत आरोप तय करने से पहले उनका सत्यापन और प्रमाणीकरण फैमिली वेलफेयर कमेटी के मार्फत करवाया जाए.

इसके बाद मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 (एमटीपीए) के तहत आने वाले गर्भपात संबंधी मामलों पर फैसलों की एक झड़ी सी लग गई. खास कर वैसे मामलों पर जिनमें बलात्कार का शिकार होकर गर्भवती हुई महिला के गर्भपात संबंधी अधिकार पर विचार किया जाना था.


ऐसे मामलों में अक्सर एक किस्म का मनमानापन देखने को मिलता है क्योंकि ऐसा कोई तयशुदा तरीका अमल में नहीं आया है जिससे कहा जा सके कि उसे बुनियाद मानकर न्यायपालिका का फैसला आएगा.

इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में खुद के लिए ही एक नई लकीर खींचने का काम किया है. अदालत ने कहा है, 'वैवाहिक संबंध के भीतर हुए बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं गिना जाएगा.'

इंडिपेंडेंट थॉट बनाम भारतीय संघ के इस मामले में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ से कहा कि सरकार आईपीसी की धारा 375 के परंतुक (एक्सेप्शन) 2 के समर्थन में है जिसमें पति, नाबालिग पत्नी और उनके वैवाहिक संबंध की मर्यादा की रक्षा की बात कही गई है.

क्या है कानून में असंगति?

स्वयंसेवी संस्था इंडिपेंडेंट थॉट ने 2013 की अपनी अदालती अर्जी में परंतुक 2 को चुनौती दी थी. परंतुक 2 में कहा गया है कि कोई पुरुष अपनी पत्नी से यौन-संबंध बनाए और पत्नी की उम्र 15 साल से कम न हो तो ऐसे यौन-संबंध को बलात्कार नहीं माना जाएगा.

बहरहाल इस कानून में एक असंगति भी है. इसमें कहा गया है कि अगर कोई पुरुष 18 साल से कम उम्र की महिला से यौन-संबंध बनाता है तो यह संबंध चाहे महिला की सहमति से बनाया गया हो या असहमति से लेकिन उसे बलात्कार माना जाएगा.

इंडिपेंडेंट थॉट ने अदालत से बड़ी सरल सी विनती की थी कि धारा 375 के तहत सभी नाबालिगों को बलात्कार के विरुद्ध सुरक्षा दी जाए, चाहे उनकी वैवाहिक स्थिति जो भी हो.

सोचने पर विसंगति बड़ी साफ उभरकर सामने आती है. भारत में कानून किसी महिला को 18 साल की उम्र से पहले विवाह की इजाजत नहीं देता. इसके अतिरिक्त दंड संहिता में यह भी कहा गया है कि विवाह-संबंध के बाहर किसी नाबालिग से यौन-संबंध उसकी सहमति से बनाया जाता है तो भी वह कानून की नजर में बलात्कार माना जाएगा. अब ऐसा किस स्थिति में संभव हो सकता है?

कानून यह कहता हुआ जान पड़ता है कि किसी नाबालिग लड़की को शादी के पहले तक बलात्कार से सुरक्षा हासिल है. इंडिपेंडेंट थॉट की ओर से मामले की पैरवी कर रहे वकील गौरव अग्रवाल ने टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, 'हम पोस्को एक्ट के तहत 18 साल से कम उम्र की किसी महिला को नाबालिग मानते हैं लेकिन इस महिला की शादी हो जाए तो आईपीसी की धारा 375 के परंतुक 2 के अंतर्गत उसे नाबालिग नहीं माना जाएगा. यह एकदम असंगत है. सच्चाई यह है कि 15 साल से कम उम्र की लड़की चाहे विवाहित हो या नहीं वह हर हाल में नाबालिग है. संसद को चाहिए कि वह नाबालिग की हिफाजत करे.'

क्या थी इंडिपेंडेंट थॉट की याचिका?

इंडिपेंडेंट थॉट ने साल 2013 में जो याचिका दायर की थी उसमें ध्यान दिलाया था कि धारा 375 से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का घोर उल्लंघन होता है. किसी भी यौन-संबंध में सहमति की उम्र बढ़ाकर 18 साल की जानी चाहिए चाहे स्त्री की वैवाहित स्थिति जो भी हो.

साल 2013 में क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट ने मौजूदा स्थिति का जायजा लिया और यौन-संबंध के बाबत स्त्रियों के लिए सहमति की उम्र बढ़ाकर 16 से 18 साल कर दिया. लेकिन परंतुक 2 में विवाहित स्त्री के लिए यौन-संबंध के मामले में सहमति की उम्र अब भी 15 साल बनी हुई है.

कानून की यह विसंगति 15 से 18 साल की उम्र की विवाहित स्त्रियों को वैधानिक तौर पर एक विचित्र दशा में रखती है जहां अतिक्रमणकारी यौन-संबंध के विरुद्ध उन्हें कानूनी तौर पर कोई सुरक्षा नहीं हासिल है. गौर करें तो नजर आता है कि 18 साल से कम उम्र की लड़कियों को शादीशुदा और गैर-शादीशुदा की दो श्रेणियों में बांटने के बीच कोई तर्कसंगति नहीं है.

इसके अतिरिक्त प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्सेज एक्ट, 2012 (पोस्को) में कहा गया है कि किसी स्त्री की उम्र 18 साल से कम हो तो उसे नाबालिग माना जाएगा. यानी एक ऐसा व्यक्ति जो शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक रुप से यौन-संबंध बनाने के मामले में सही निर्णय लेने के काबिल नहीं है.

इंडिपेन्डेन्ट थॉट की याचिका में कहा गया, 'अगर 2013 में सहमति की उम्र बढ़ाकर 18 साल करने के पीछे यही मकसद था तो फिर 15, 16 या 17 की उम्र में स्त्री का ब्याह हो जाने भर से ऐसा नहीं हो सकता कि वह सहमति देने के मामले में शारीरिक या मानसिक रुप से सक्षम मान ली जाए. इसलिए कानून में प्रयुक्त शब्द में निर्विवाद रुप से भेदभाव है क्योंकि वर्गीकरण का अपने मकसद से कोई तर्कसंगत मेल नहीं है.'

केंद्र सरकार की परेशान करने वाली दलील

बहरहाल, केंद्र सरकार ने अपने पक्ष की रक्षा में दलील पेश करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में उसे परंपरा का सहारा लेना कहीं ज्यादा पसंद है, खासकर इसलिए कि मामला विवाह-बंधन के भीतर यौन-संबंध बनाने से ताल्लुक रखता है.

केंद्र की तरफ से पैरवी कर रहे वकील बीनू टमटा ने विवाह संबंधी कानूनों का हवाला देते हुए कहा कि भले स्थिति बाल-विवाह की हो लेकिन इस रिश्ते को वैधता हासिल है. अभाव भरी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण बाल-विवाह भारत में एक सच्चाई है. टमटा ने यह भी कहा कि विवाह-संस्था की हिफाजत करना सरकार की प्राथमिकता है.

सोचिए, कितनी परेशान करने वाली है यह बात कि बाल-विवाह जैसे मानवाधिकार उल्लंघन को गरीबी का तर्क देकर बर्दाश्त करने के लिए कहा जा रहा है!

दरअसल, बीते कुछ साल में कई राजनेताओं ने विवाह-संबंध के भीतर होने वाले बलात्कार को लेकर परेशान करने वाली बातें कही हैं. केंद्रीय महिला एवं बाल-विकास मंत्री मेनका गांधी ने कहा कि ‘विवाह-संबंध के भीतर बलात्कार’ जैसी धारणा का इस्तेमाल भारतीय संदर्भ में नहीं किया जा सकता.

गुजरात के एक सांसद हरिभाई परथीभाई चौधरी ने कहा, 'अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विवाह-संबंध के भीतर बलात्कार जैसी धारणा को जिस रुप में समझा जाता है उस रुप में उसे ठीक-ठीक भारतीय संदर्भ में लागू नहीं किया जा सकता. इसके कई कारण हैं जिसमें शिक्षा का स्तर, निरक्षता, गरीबी, कई तरह के सामाजिक रीति-रिवाज और मूल्य, धार्मिक मान्यताएं तथा विवाह-बंधन को पवित्र ठहराने वाले सामाजिक मानस की गिनती की जा सकती है.'

वैवाहिक बलात्कार पर बहस से कोर्ट ने किया इनकार

मौजूदा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विवाह-संबंध के भीतर बलात्कार की धारणा पर विचार करने से इनकार कर दिया. कोर्ट ने नहीं माना कि इस धारणा पर बहस हो सकती है और विवाह-संबंध के भीतर बलात्कार को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध करार दिया जा सकता है.

कोर्ट के मुताबिक 'संसद में विवाह-संबंध के भीतर बलात्कार की धारणा पर विस्तारपूर्वक बहस हो चुकी है और संसद ने इसे अपराध नहीं माना इसलिए इसे आपराधिक कृत्य नहीं कहा जा सकता.' दरअसल जान पड़ता है सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपनी तरफ से कुछ कहना ठीक नहीं समझा और जिम्मा संसद के मत्थे मढ़ दिया.

ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट पर मुद्दे का असर ही ना हुआ. तथ्य यह है कि देश की दंड-संहिता में एक भारी विसंगति है और यह विसंगति संविधान ही नहीं बच्चों के अधिकार संबंधी यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन राइटस् ऑफ चाइल्ड (यूएनसीआरसी) के विपरीत है. लेकिन न्यायपालिका पर इस तथ्य का कोई असर होता नहीं दिखता.

इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि न्यायपालिका मुद्दे पर संविधान के अनुकूल विचार करने की जगह लगातार विवाह-संस्था के मुहाफिज की भूमिका अख्तियार करते जा रही है. ऐसे में परंपरा और संस्कृति की दुहाई देकर अधिक से अधिक संख्या में मानवाधिकारों की राह रोकी जा रही है.

इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि बाल-विवाह और विवाह-संबंध के भीतर बलात्कार संबंधी बहस के बीच सुप्रीम कोर्ट ने सहमति की धारणा को एकदम ही अलग छोड़ दिया जबकि इंडिपेन्डेन्ट थॉट की अर्जी का यह एजेंडा था.

अदालत ने एक बार भी इस नजरिए से नहीं सोचा कि सहमति स्वेच्छा से दी हो सकती और दबाव डालकर भी हासिल की गई हो सकती है. जबकि इसी सहमति की बिनाह पर एक शादीशुदा 16 साल की लड़की से राजसत्ता विवाह-संस्था की दुहाई देकर अपनी सुरक्षा का हक छीन रही है, उस लड़की को हिंसा के बर्ताव के सम्मुख और ज्यादा कमजोर हालत में छोड़ रही है.

कई साल से भारतीय न्यायपालिका बड़े संगत फैसले लेते रही है. आज अचानक अदालतें औरत की देह, स्वतंत्र फैसला करने की उसकी ताकत, स्वायत्तता और सहमति को विवाह-संस्था के बरक्स रखकर तौल रही हैं जबकि ऐसा करने से औरतों के अधिकार का हनन हो रहा है.