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मोदी-नवाज के बीच में बिचौलिया उद्योगपति! फिर वही बासी गप्प

क्या वाकई सज्जन जिंदल की भारत और पाकिस्तान की कूटनीति में कोई भूमिका है?

Ajay Singh

नोट: भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाली बयानबाजी को देखकर तो ऐसा लगता है कि लड़ाई बस छिड़ने ही वाली है, लेकिन दूसरी तरफ सुर्खियों में फिर से भारतीय कारोबारी सज्जन जिंदल और पाकिस्तान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से उनकी मुलाकात की बातें तैर रही हैं. तनाव के बीच एक भारतीय कारोबारी से मिलने पर नवाज शरीफ तो अपने देश में बुरा भला सुनने को मिल ही रहा है, लेकिन कयास भारत में भी लग रहे हैं कि क्या जिंदल मोदी का कोई संदेश लेकर नवाज शरीफ के पास गए थे. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब मोदी और शरीफ के बीच सज्जन जिंदल का नाम एक कड़ी के तौर पर दिखाई पड़ रहा है. माना नवाज शरीफ से तो उनके कारोबारी रिश्ते हैं, लेकिन क्या मोदी भी उन्हें घास डालते हैं? कुछ समय पहले फर्स्ट पोस्ट पर छपे लेख में आपको इस सवाल का बखूबी जवाब मिल सकता है, पढ़िए.

काबुल से लौटते हुए मोदी का विमान जब 25 दिसंबर 2015 को अचानक लाहौर में उतरा तो सब हैरान थे कि आखिर ऐसा क्या हुआ. मोदी के समर्थक जहां इसे उनका एक और मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे, तो आलोचकों ने कहा कि मोदी भारत के किसी राष्ट्रीय हित के लिए लाहौर नहीं गए बल्कि कुछ स्वार्थ उन्हें लाहौर ले कर गए.


झूठ और अधपके सच

कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने तो यह भी कहा कि काठमांडू में सार्क सम्मेलन के दौरान मोदी और नवाज शरीफ ने दुनिया को दिखाने के लिए तो हाथ बेरुखी से मिलाया, लेकिन बाद में उन्होंने गुपचुप बैठक भी की थी और जिस माध्यम के जरिए यह गोपनीय बैठक हुई, वही उन्हें लाहौर ले गया. उन्होंने कहा कि इस कारोबारी के पाकिस्तान में सत्ता प्रतिष्ठान के साथ कारोबारी साझेदारियां हैं. उनका इशारा किसी और की तरफ नहीं बल्कि सिर्फ सज्जन जिंदल की तरफ था.

स्टील टायकून हैं सज्जन जिंदल

आनंद शर्मा के अनुसार उन्होंने ही 25 दिसंबर को लाहौर में मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के बीच बैठक कराई थी. और इस बात का सबूत यह था कि जिंदल भी उसी वक्त लाहौर थे जब मोदी वहां पहुंचे.

सज्जन जिंदल

झूठ, अधपके सच और अपनी छवि खुद गढ़ लेने की सियासत में बहुत अहमियत होती है. लाहौर में मोदी और नवाज शरीफ की मुलाकात जिंदल ने कराई, यह भी एक ऐसा झूठ है जो सिर्फ इसलिए सच दिखाई देने लगा कि उसे बार बार दोहराया गया है. कांग्रेस ने भी इसी झूठ का सहारा लिया ताकि मोदी के अचानक लाहौर पहुंच जाने को निशाना बना सके और इसका फायदा उठा सके.

“स्टील के संबंध” जैसी सुर्खियों ने जिंदल की उस छवि को और परवान चढ़ाया जिसका सच से कोई लेना देना नहीं है. उन्हें ऐसे इंसान के तौर पर पेश किया गया मानो जिसकी उंगलियों पर दोनों देशों के प्रधानमंत्री नाचते हों.

लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय और आवास के रिकॉर्ड तो जिंदल के बहुप्रचारित मोदी कनेक्शन के बारे में कुछ और ही कहानी बयान करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी से जिंदल की सिर्फ एक बार मुलाकात हुई है. वह भी तब जब वह प्रधानमंत्री के सरकारी आवास 7 रेसकोर्स रोड पर 20 सदस्यों वाले एक कारोबारी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बन कर गए थे. इस बैठक में मौजूद एक सूत्र ने बताया, 'इस दौरान पूरी तरह कारोबारी चर्चा हुई थी और पाकिस्तान का उसमें जिक्र भी नहीं हुआ था.'

क्या कांग्रेस भूल गई..

इसी तरह प्रधानमंत्री कार्यालय ने काठमांडू में दोनों प्रधानमंत्रियों की किसी निजी मुलाकात से पूरी तरह इनकार किया था. मोदी के साथ गए अधिकारियों का कहना था कि दोनों नेता आखिरी लम्हे तक एक दूसरे से बचते रहे. उनका कहना था, 'मोदी अचानक मीडिया के सामने नवाज शरीफ से हाथ मिलने के लिए बढ़े. अचानक उनके इस कदम से भारतीय शिष्टमंडल के लोग भी हैरान थे.'

प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय की तरफ से दोनों नेताओं की किसी भी गोपनीय बैठक की बातों को पूरी तरह खारिज किया गया. लेकिन कांग्रेस ने इस झूठ का इस्तेमाल इस धारणा को मजबूत करने के लिए किया कि प्रधानमंत्री कुछ कारोबारी समूहों को फायदा पहुंचाने के लिए यह सब कर रहे हैं.

साउथ ब्लॉक में रक्षा मंत्रालय का हेडक्वार्टर

कांग्रेस को सरकार में रहने का लंबा अनुभव है. पार्टी को अच्छी तरह पता है कि यह किसी भी उद्योगपति के बस की बात नहीं है कि वह साउथ ब्लॉक में सख्तऔर रवायती तरीके से काम करने वाले विदेश मंत्रालय की नौकरशाही पर असरडाल सके.

कांग्रेस को भी इस तरह की आलोचना झेलनी पड़ी थी जब मनमोहन सिंह के दौर में अमेरिका में एक भारतीय होटल व्यवसायी संत सिंह चटवाल की यकायक अहमियत बढ़ गई और दिल्ली के कॉकटेल हल्कों में उनके चर्चे होने लगे. यहां तक कहा गया कि भारत-अमेरिकी परमाणु करार तक पर उनकी परछाई दिखती है. यह बात सही है कि अमेरिकी प्रतिष्ठान के आला नेताओं से चटवाल की निकटता थी, लेकिन यह कहना कि भारत-अमेरिका संबंधों पर उनका असर था, यह सिर्फ मीडिया और विपक्ष (उस वक्त बीजेपी) का ही खड़ा किया हौव्वा था.

कांग्रेस बनाम बीजेपी

अब कांग्रेस सिर्फ बीजेपी को वही लौटा रही है. लेकिन पार्टी इस बात को भूल रही है कि इन दोनों लोगों की परिस्थितियों में एक अहम अंतर है. चटवाल की उठ-बैठ न सिर्फ देश के सबसे आला और ताकतवर लोगों के बीच थी, बल्कि उन्हें पद्म भूषण भी मिला हुआ था. यह भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक है. हालांकि भगवान ही जाने चटलवाल ने देश के लिए ऐसा कौन सा योगदान दिया जो उन्होंने यह सम्मान दिया गया.

बहरहाल जिंदल परिवार की स्थिति इससे उलट नजर आती है. मोदी से नजदीकी तो दूर उन पर तो शिकंजा कस रहा है. सरकार की कई प्रवर्तन एजेंसियों ने जिंदल परिवार के खिलाफ कई मामले शुरू किए है. यही नहीं जिंदल परिवार को बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस के ज्यादा करीब समझा जाता है.

सज्जन जिंदल के भाई और उद्योगपति नवीन जिंदल कांग्रेस के टिकट पर पिछली लोकसभा में कुरुक्षेत्र से सांसद रहे हैं. नवीन को खुद कोयला घोटाले में सीबीआई की तरफ से मुश्किलें झेलनी पड़ रही हैं.

तो सवाल यह है कि फिर इस खबर ने जोर कैसे पकड़ा कि सज्जन जिंदल पाकिस्तान को लेकर भारत की कूटनीति को प्रभावित कर रहे हैं. सरकार में मौजूद सूत्र कहते हैं कि इसकी शुरुआत मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण समारोह के बाद ही हो गई थी, जिसमें सभी सार्क देशों के नेताओं ने हिस्सा लिया था. शपथ ग्रहण समारोह के बाद नवाज शरीफ चाय के लिए सज्जन जिंदल के घर चले गए.

इससे इन अटकलों को बल मिला कि संभवतः सज्जन जिंदल ने ही नवाज शरीफ को भारत आने के लिए मनाया है. यह बात तो साबित होती है कि जिंदल की नवाज शरीफ से दोस्ती है, लेकिन यह कैसे माना जाए कि मोदी से भी उनकी वैसी ही छनती है?

सच से बड़ा झूठ?

सरकार के उच्च पदस्थ सूत्र इन बातों से बिल्कुल इनकार करते हैं कि इस तरह की किसी भी बैठक के पीछे सज्जन जिंदल का योगदान था. वह कहते हैं कि शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित करने का फैसला मोदी ने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मशविरा करके लिया था. वह बताते हैं, “चूंकि शपथ ग्रहण समारोह के मेजबान राष्ट्रपति थे, तो उन्होंने ही सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को निजी रूप से निमंत्रण पत्र भेजने की पहल की.”

सज्जन को तो भूल ही जाइए, इस फैसले की घोषणा होने से पहले इसकी जानकारी मोदी की कैबिनेट के कुछ साथियों और विदेश मंत्रालय के कुछ अधिकारियों के सिवाय किसी को नहीं थी.

वे पूछते हैं, 'क्या भारत के प्रधानमंत्री को किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष से बात करने के लिए किसी बिचौलिए की जरूरत होगी.' सूत्र इस तरह की सब बातों को बेबुनियाद बताते हैं. उनका कहना है, 'अगर सरकार किसी काम को गोपनीय तरीके से करने का फैसला करती है तो आप इस बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं कि किसी को पता नहीं चला.'

वे याद दिलाते हैं कि जब वाजपेयी सरकार ने पोखरण – दो परीक्षण किए थे तो दुनिया की नामी जासूसी एजेंसियां अपने सिर खुजलाती रह गई थीं.

सो इस झूठ से दो देशों का आलम रोशन करने वाला अनारदाना पिछली बार कांग्रेस ने जलाया था और इस बार पाकिस्तानी प्रेस ने जिससे फिर कुछ भारतीय अखबार फुलझड़ी जला रहे हैं.