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एक किताब जो जिन्ना की ‘बागी’ पत्नी की जिंदगी में झांकती है

किताब में पत्रों से बनने वाली रुटी की दोस्तियों की परतों और विभिन्न पहलुओं को पेश किया है

Maya Palit

'उसकी छोटी सी बुद्धू खोपड़ी में ना जाने क्या आया कि वह अचानक अपने पिता की उम्र वाले एक आदमी के प्यार में पड़ गई?' यह कटाक्ष सरोजिनी नायडू के बेटे जयसूर्या ने अपनी बहन पद्मजा को लिखे एक खत में किया.

उनका इशारा उस स्कैंडल की तरफ था जिसने 1916 में बंबई की हाई सोसायटी और सियासी गलियारों में भूचाल ला दिया.


ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नेता और बाद में पाकिस्तान के संस्थापक बने मोहम्मद अली जिन्ना की उम्र तब 40 साल थी, जब उन्हें 16 साल की एक पारसी अमीरजादी से प्यार हो गया. नाम था रुटी पेटिट.

जिन्ना को अपने इस प्यार के लिए जितनी निंदा और आलोचना सहनी पड़ी, उसकी आधी कड़वाहट भी जयसूर्या की बातों में नहीं थी. लंबी अटकलों के बाद दोनों ने 1918 में शादी कर ली और इसे लेकर बड़ा हंगामा हुआ.

कारण था दोनों का अलग-अलग धर्म से होना. रूटी का परिवार बहुत नाराज था. कई अखबारों ने लिखा कि वह सोना खोदने वाली हैं. पारसी समुदाय ने इसे लेकर खूब विरोध प्रदर्शन किए. रुटी के नजदीकी लोगों में कई उदार लोग थे जिसमें मोतीलाल नेहरू की बेटी भी शामिल थीं.

इन लोगों को धर्म वाली बात से तो कोई एतराज नहीं था, लेकिन हर कोई दोनों की उम्र में इतने ज्यादा फासले से हैरान था.

रुटी के बारे में माना जाता था कि वह एक बिगड़ैल लड़की है और उन्हें जो भी मिला है सिर्फ इसलिए मिला कि वह अमीर परिवार से है.

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जिन्ना से उनकी शादी को बहुत दूर की कौड़ी माना गया. एक ब्रिटिश वायसराय की पत्नी ने रुटी को एक बार “पूरी तरह बेशर्म” कहा था.

रुटी को खत

जिन्ना और रुटी के रिश्ते की परतों को खोलती है वरिष्ठ पत्रकार शीला रेड्डी की किताब 'मिस्टर एंड मिसेज जिन्ना: द मैरिज दैट शुक इंडिया'. रुटी के बारे में मशहूर था कि वह अपनी जिंदगी से जो चाहें हासिल कर सकती थीं. लेकिन इसके लिए उन्होंने बहुत बार-बार आलोचना झेली.

यह किताब इन्हीं हालात और वाकयात पर रोशनी डालती है. साथ ही इसमें किसी से न डरने और न दबने वाली रुटी की शख्सियत को बखूबी उभारा गया है.

रेड्डी रुटी की जिंदगी को खुद उनकी जुबानी बयां करती हैं, उनके लिखे पत्रों के माध्यम से, जो अब से पहले सामने नहीं आए थे. ये खत रुटी के गर्म मिजाज की गवाही देते हैं. यह किताब जिन्ना परिवार का समूचा इतिहास बयां करती है. साथ ही उनकी शादी के दौर की पूरी झलक भी इसमें है.

महात्मा गांधी के साथ मोहम्मद अली जिन्ना

किताब के भरपूर ब्यौरे वाले पैराग्राफ्स में रूटी के खतों की बहुत सी मजेदार बातें भी शामिल की गई हैं.

एक जगह वह अपना पत्र मित्र पद्मजा को लिखती हैं, 'क्या चलताऊ भाषा को लेकर तुम्हें बहुत बहुत एतराज है? उम्मीद है नहीं होगा क्योंकि मैं तुम्हें झटके दे सकती हूं.'

वही रुटी अक्सर देश भर के अपने विभिन्न दौरों के बारे में लिखती है. इनमें लखनऊ में राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्रों में जाना भी शामिल है.

वह शादीशुदा होने के बावजूद अन्य मर्दों के साथ जैज क्लबों में जाने का जिक्र भी करती हैं. रुटी को किसी की परवाह नहीं थी. जो करना है सो करना है.

जब वह 14 साल की थी, तभी से उन्होंने राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी. जिन्ना की राजनीतिक मुहिम में जब उन्हें महज ‘एक सुंदर चीज’ होने तक सीमित कर दिया गया तो वह इसके खिलाफ खूब लड़ीं.

पहले विश्व युद्ध के बाद जब भी उनके पति बंबई की शांताराम चॉल में अंग्रेजों के खिलाफ कोई रैली करते तो रूटी ऐसी हर रैली में उनके साथ हुआ करती थीं. एक बार तो उन्होंने अंग्रेजों के सामने न झुकने को लेकर एक जोशीला भाषण भी दिया था.

इसके बाद पत्रकारों ने जिन्ना से एक सवाल पूछा, 'मिस्टर जिन्ना, क्या आप उन्हें घर पर रहने के लिए नहीं मना सकते थे?' शायद यही सवाल था जिसके बाद सियासी आंदोलन में रुटी की भूमिका सिमटती गई.

जटिल किरदार

जैसा कि रेड्डी बयां करती हैं, रुटी उससे कई ज्यादा जटिल किरदार नजर आती हैं जितना ज्यादातर लोग उनके बारे में सोचते हैं. परिवार बिखरने के बाद वह अलग थलग पड़ गईं.

मां बनने की शुरुआती मुश्किलें और अपने पति से बढ़ती दूरियां और ऊपर से फैशनेबल ड्रेसे पहनना.

वह बहुत पढ़ती थीं और राष्ट्रवादी आंदोलन को लेकर बहुत प्रतिबद्ध थीं. इसके अलावा बहुत बीमार रहती थीं. बेहोशी, नींद न आना, चिड़चिड़ा होना. यह उनकी शख्सियत का हिस्सा हो गए थे.

इनकी वजह से उनका मूड पल में तोला और पल में माशा रहता था. और यह सब बातें उनके अंदर के तूफान को और हवा देती थीं.

इन सबके बावजूद उन्होंने यह पीड़ा चुपचाप सहन नहीं की और उनके पत्रों से पता चलता है कि अपनी महिला मित्रों को लिखे खतों में उन्होंने सख्त रवैया अपनाया है.

उन्होंने अपने जज्बात को दमदार तरीके से सामने रखा है, 'जिंदगी तूफानी जोश और सर्द अवसाद का घालमेल रही है.. फिर भी यह इतनी भरी- इतनी भरी है, अपने खोखलेपने की वजह से! इतनी खाली है, अपनी भरपूरता की वजह से! .. ऐ तुम इसे उन्माद का एक रूप कह सकती हो.'

बच्ची से बेपरवाह

तीन चीजों ने शायद उन्हें सबसे ज्यादा परेशान किया. और इन बातों को लेकर जैसी प्रतिक्रिया उन्होंने की, उसके चलते वह उस दौर की महिलाओं से बहुत अलग नजर आती हैं.

उन्हें मां और पत्नी बनने की दो मांगों को एक साथ ढोना कतई पसंद नहीं था. एक बार उन्होंने इसे 'गुलामी' तक कह दिया था. दूसरा उन्हें अलगाव भी सालता रहा.

रुटी और जिन्ना के सभी दोस्त अंग्रेजों के बहिष्कार और बंबई छोड़ने की गांधी की मुहिम में शामिल हो रहे थे.

खुद रुटी की भी शहर छोड़ने की बहुत इच्छा थी, लेकिन वह जिन्नाह को राजी नहीं कर पाईं. इसके बाद रुटी अपनी नवजात बच्ची को छोड़ कर इंग्लैंड और मोंटे कार्लो चली गईं. इससे अफवाह और चुगली पसंद लोगों को फिर एक मुद्दा हाथ लगा.

रुटी के नजदीकी दोस्त भी हैरान था. लोगों ने यहां तक कहा कि वह अब फिल्म एक्टर बनने और चुड़ैल वाले रोल करने गई है.

रुटी को अपनी बच्ची की कोई परवाह नहीं थी और इस बात को छिपाने की उन्होंने कभी कोशिश भी नहीं की. या फिर कम से कम लोगों ने उनके बारे में ऐसा समझा.

उनकी नजदीकी दोस्त पद्मजा ने अपनी बहन लीलामणि को रुटी के बारे में लिखा, 'मुझे तो रुटी का स्वभाव समझ में ही नहीं आता- मैं इसके लिए उसे दोष नहीं देती हूं जैसा कि बहुत से लोग देते हैं.

लेकिन जब भी मुझे वह छोटी सी, घबराई, जानलेवा चोट के शिकार जानवर सी सहमी बच्ची याद आती है तो मैं रुटी से नफरत करने के बहुत करीब पहुंच जाती हूं. मेरे मन में उसके लिए अपार स्नेह होने के बावजूद.'

सरोजिनी नायडू का रुख तो और सख्त नजर आता है. वह एक पत्र में लिखती हैं, 'जब भी मैं उस बच्ची के बारे में सोचती हूं तो रुटी को पीटने का मन करता है.'

एक अविश्वसनीय महिला

उस दौर में यह काबिले माफ नहीं था कि कोई मां हो कर भी मां की भूमिका को न निभाए.

लेकिन यह भी सच है कि उस वक्त जिन्ना के पास परिवार के लिए ज्यादा समय नहीं था. एक तरफ उनकी वकालत तो दूसरी तरफ उनका राजनीतिक काम.

रेड्डी लिखती हैं, 'घरेलू जिम्मेदारियों की जंजीरें तोड़ने की रुटी की साहसी कोशिश को उनके आसपास के लोग समझ ही नहीं पाए.

नतीजा यह हुआ कि वह उन्माद की शिकार हो गईं, खुद को ‘मैड लिटिल रूटी’ के तौर पर पेश करने लगीं, कुछ समय के लिए उन पर भविष्य को पढ़ने का भी भूत चढ़ा और फिर अकेली होती चली गईं. इसके बाद उन्हें कैंसर हो गया और सिर्फ 29 साल की उम्र में मौत हो गई.'

रुटी की जिंदगी छोटी लेकिन अविश्वसनीय थी. उन्हें किसी भी तरह कम करके नहीं आंका जा सकता और इसीलिए रेड्डी की यह कोशिश सराहनीय है जिन्होंने पत्रों से बनने वाली रुटी की दोस्तियों की परतों और विभिन्न पहलुओं को पेश किया है.

यह किताब उस अद्भुत भारतीय महिला की जिंदगी में झांकने का नायाब मौका देती है जिसे गलत समझा गया.